दिल्ली सरकार बारे केंद्र के तर्क सामान्य समझ से परे
Sunday, Jul 15, 2018 - 02:53 AM (IST)
हमारे समय में विडम्बना यह है कि सामान्य असामान्य बन जाता है। किसी भी संसदीय लोकतंत्र में जज व वकील, सांसद तथा विधायक, मंत्री और नौकरशाहों को पता होता है कि असल ताकत किसके पास है। यह चुने हुए प्रतिनिधियों के पास होती है, जो अपने बीच में से प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री को चुनते हैं। एक अन्य नियुक्त पदाधिकारी होता है, जिसे राज्यपाल अथवा उपराज्यपाल कहा जाता है, जिसे प्रतिष्ठित पद तो मिला होता है मगर उसे मंत्री परिषद की सहायता तथा सलाह के अनुसार काम करना होता है।
मुहावरा ‘सहायता तथा सलाह’ एक प्रतिनिधि सरकार का नींव पत्थर है। जहां भी यह होता है, बिना किसी गलती के यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जो व्यक्ति सहायता तथा सलाह देता है उसके पास असल ताकत होती है तथा जो व्यक्ति सहायता तथा सलाह प्राप्त करता है वह महज एक उपाधिधारी होता है। यह नियम इतनी अच्छी तरह से स्थापित है कि जो कोई भी इसके विपरीत विचार रखने का दिखावा करता है वह ठीक वही है-दिखावटी।
कोई भी अस्पष्टता नहीं
भारत के संविधान की धारा 239 ए.ए. (4) (जो दिल्ली के मामले में एक विशेष प्रावधान है) एक सुस्पष्ट परिभाषा देती है कि ‘एक मंत्रिपरिषद होगी जिसकी अध्यक्षता मुख्यमंत्री करेगा तथा उपराज्यपाल को उसके कार्यों के निर्वहन में सलाह देगी...’ नैशनल कैपिटल टैरेटरी आफ दिल्ली एक्ट, 1991 का अनुच्छेद 44 (ए) इस वैधानिक पद को मजबूती प्रदान करता है। यह मंत्रियों को उनके कार्यों के आबंटन के बारे में है, जिनके अनुसार उपराज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सहायता तथा सलाह के अनुसार काम करने की जरूरत होती है।
नजीब जंग तथा अनिल बैजल कोई नौसिखिए नहीं थे। वे भारतीय प्रशासनिक सेवा से संबंध रखते थे और अनुभवी प्रशासक थे। इसके अतिरिक्त जंग कुछ वर्षों तक जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति भी रहे। अनिल बैजल अपने करियर के दौरान कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे जिनमें केन्द्रीय गृह सचिव का पद भी शामिल है और इस दौरान वह दिल्ली सरकार से भी निपटे। हां, यदि उन्होंने एक विशेष तरीके से काम किया तो इसका कारण उनकी अज्ञानता नहीं बल्कि किसी की चापलूसी थी। उन्होंने ब्रिटिश वायसरॉय की तरह काम किया और इस प्रक्रिया के दौरान प्रतिनिधि लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों का अपमान किया।
प्रत्येक तर्क को खारिज किया
केन्द्र सरकार तथा भाजपा के प्रवक्ता अब बेशक यह कहें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कोई नया कानून नहीं बनाया, केवल पुराने कानूनी पहलू की ही पुष्टि की है। यदि यह सही है तो ताॢकक निष्कर्ष यह है कि दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया) गलत तथा कानून के अनुसार बुरा था। केन्द्र सरकार से पूछें कि क्यों उसने सुप्रीम कोर्ट के सामने मजबूती के साथ गलत निर्णय का बचाव किया, मुझे विश्वास है कि प्रवक्ता तथा ब्लॉग-लेखक उत्तर देने की कृपा नहीं करेंगे।
सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि दिल्ली सरकार के पास सभी विषयों पर वैधानिक तथा कार्यकारी शक्तियां हैं सिवाय 3 के-जमीन, पुलिस तथा कानून व्यवस्था। केन्द्र सरकार के मुख्य तर्कों में से एक को भी अदालत से समर्थन नहीं मिला और उन्हें पूरी तरह से खारिज कर दिया गया:
* सरकार ने तर्क दिया कि ‘दिल्ली के मामले में अंतिम प्रशासनिक शक्तियां राष्ट्रपति के पास रहनी चाहिएं जो अपने प्रशासक के माध्यम से कार्य करें’-खारिज।
* सरकार ने तर्क दिया कि ‘यद्यपि धारा 239 एए दिल्ली विधानसभा को 7वीं अनुसूची की सूची 2 तथा सूची 3 में उपलब्ध करवाए गए विषयों के संबंध में वैधानिक शक्तियां प्रदान करती है, मगर उसी धारा के अंतर्गत उक्त शक्तियों को सीमित किया गया है’- खारिज।
* सरकार ने तर्क दिया कि ‘केन्द्र शासित क्षेत्र के प्रशासन के लिए उपराज्यपाल जिम्मेदार हैं न कि मंत्रिपरिषद’-खारिज।
* सरकार ने तर्क दिया कि ‘वैधानिक शक्तियां केवल केन्द्र तथा राज्यों पर लागू होती हैं न कि केन्द्र शासित क्षेत्रों पर’-खारिज।
* सरकार ने तर्क दिया कि ‘उपराज्यपाल मंत्री परिषद द्वारा दी गई सहायता तथा सलाह मानने को बाध्य नहीं हैं’-खारिज।
* सरकार ने तर्क दिया कि ‘धारा 239एए (4) में वाक्यांश ‘एनी मैटर’ की बजाय इसका अर्थ ‘एवरी मैटर’ लिया जाना चाहिए’-खारिज।
पिछले दरवाजे से नियंत्रण
अपने प्रयास में पराजित होने के बाद गलत सलाह प्राप्त केन्द्र सरकार किसी भी तरह जीत हासिल करने की कोशिश कर रही है। इसका कहना है कि सेवाएं (मतलब दिल्ली सरकार में नियुक्तियां, बदलियां तथा नौकरशाहों की तैनाती)उपराज्यपाल के नियंत्रण में ही रहेंगी। केन्द्र सरकार दिल्ली सरकार के साथ एक अन्य लड़ाई के लिए तैयारी कर रही है और पहला वार अनिल बैजल ने किया, जब निर्णय के बाद उन्होंने 3 वरिष्ठ अधिकारियों की बदलियों तथा तैनातियों के आदेश दिए। मेरे विचार में बैजल गलत थे और उनकी गलत कार्रवाई से साबित होता है कि वह भाजपा नीत केन्द्र सरकार की शह पर कार्य कर रहे हैं।
हालिया ब्लॉग्स से खुलासा हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने केन्द्र सरकार की याचिकाएं अन्य के अतिरिक्त अरुण जेतली से प्रेरित थीं, जिन्होंने सेवाओं पर नियंत्रण के प्रश्र पर एक बार फिर एक नई कानूनी लड़ाई छेड़ दी है। अपने ब्लॉग में उन्होंने लिखा, ‘कोई भी ऐसी अवधारणा कि केन्द्र शासित क्षेत्र की सेवाओं का प्रशासन दिल्ली सरकार के पक्ष में विभाजित है, पूरी तरह से भ्रामक है।’ क्या जेतली यह सलाह दे रहे हैं कि दिल्ली की चुनी हुई सरकार बेशक कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल कर सकती है मगर नौकरशाहों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है तो जिम्मेदारियों का निर्वहन कौन करेगा? तर्क सामान्य समझ की अवहेलना करते हैं मगर निर्णय का एक अन्य दिन आएगा।-पी. चिदम्बरम