वैकल्पिक राजनीति के शिल्पकार थे चौ. चरण सिंह

punjabkesari.in Friday, Dec 23, 2022 - 05:25 AM (IST)

अब जबकि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की राजनीति व्यक्तिगत विरोध से भी आगे अमर्यादित टीका-टिप्पणियों तक पहुंच गई है, भारत में वैकल्पिक राजनीति के शिल्पकार रहे चौधरी चरण सिंह की याद आना स्वाभाविक है। 

सवाल किसी नेता या दल विशेष का नहीं है, सदन से लेकर सड़क तक आज राजनीतिक आलोचना में विचार नदारद ही है। उसकी जगह ऐसी व्यक्तिगत अशिष्ट टीका-टिप्पणियों ने ले ली है, जो खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में सुर्खियां बन सकती हों। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीडिया की भी इससे अच्छी तस्वीर तो नहीं उभरती, पर हम बात विचारधारा की कर रहे हैं, जो सोच-समझ से उभरती है और फिर अंतत: वैकल्पिक राजनीति का आधार बनती है। 

सहमति-असहमति हो सकती है, पर आजादी के बाद के कुछ दशकों तक भारतीय राजनीति विचार केंद्रित ही रही। इसीलिए उसमें विचारधारा आधारित दल और नेता उभरे, जिन्होंने समस्याओं को सुलझाने और देश-समाज को आगे बढ़ाने में भी अपना योगदान दिया, पर आजादी के अमृत महोत्सव काल में वैकल्पिक राजनीतिक सोच और उसकी प्रतिबद्धता का अभाव खलने वाला है। 

स्वाभाविक ही हमेशा सत्तापक्ष को भारत चमकता नजर आता है और विपक्ष को हर मोर्चे पर नाकाम, जबकि सच उसके बीच कहीं होता है। हम उस सच की बहस को फिलहाल छोड़ भी दें तो आज महंगाई-बेरोजगारी जैसे ज्वलंत मुद्दों पर हर विपक्षी दल-नेता सत्तापक्ष को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ता, पर क्या इन शाश्वत चुनौतियों के चक्रव्यूह से देश को निकालने का कोई उपाय किसी के पास है? 

दरअसल उपाय तो तब होगा, जब आपकी कोई सोच होगी। देश पहली बार महंगाई-बेरोजगारी की समस्या से रू-ब-रू नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि देश में सिर्फ यही समस्याएं हैं। पिछले साल देश की राजधानी की दहलीज पर आजादी के बाद का सबसे लंबा किसान आंदोलन चला। कृषि संकट की खूब चर्चा हुई, पर क्या यह संकट अचानक पैदा हुआ? क्या उससे उबरने का कोई रास्ता किसी दल-नेता के पास है? 

किसान आंदोलन समाप्त हुए साल होने को है, पर क्या कृषि क्षेत्र को शाश्वत संकट से मुक्ति मिल गई है? निर्भया से लेकर श्रद्धा कांड तक हमारे समाज में नैतिक मूल्यों के पतन की पराकाष्ठा के अनेक मुंह बोलते उदाहरण हैं, पर क्या वह किसी नेता-दल की चिंता का विषय है? नहीं भूलना चाहिए कि बेहतर समाज ही बेहतर देश बनाता है। वर्तमान राजनीति का सबसे बड़ा संकट यही है कि वह सोच से कट कर महज चुनाव जीतने तक सीमित हो कर रह गई है। 

एक चुनाव जीत कर दूसरे की तैयारी करिए और उसके बीच मौके-बेमौके अपने विरोधियों पर शब्द बाण चला कर माहौल बनाते रहिए। शायद इसलिए भी कि अगर समस्याएं ही नहीं रहीं तो विरोधियों को कैसे कोसेंगे और चुनाव में वोट भी किस आधार पर मांगेंगे? समस्याओं पर नारे गढ़ कर चुनाव तो जीते जा सकते हैं, पर उससे समाधान नहीं मिलता। समाधान तभी संभव है, जब देश-समाज की चुनौतियों की बाबत सही समझ विकसित करें और फिर उनसे निपटने की नीतियां बनाएं। कृषि इस कदर घाटे का काम बन कर रह गया है कि नई पीढ़ी उसे हाथ नहीं लगाना चाहती, पर शहरों में भी उसे बहुत बेहतर विकल्प नहीं दिखता। भावी संकट की आहट सुन कर आगाह करना और राह सुझा पाना ही किसी भी वास्तविक नेता की पहचान है। 

नई पीढ़ी को यह जान कर आश्चर्य हो सकता है कि दिवंगत प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह एक विचारवान राजनेता ही नहीं, जमीनी अर्थशास्त्री और नैतिक शिक्षा के पैरोकार समाजशास्त्री भी थे। आज बड़े दल और नेता भी दागियों को टिकट देने और अपराधों में कार्रवाई से उन्हें बचाने में संकोच नहीं करते, लेकिन चरण सिंह ने शिकायत मिलने पर चुनावी सभा के मंच से ही अपने दल के प्रत्याशी के बजाय एक निर्दलीय को वोट देने की अपील कर दी थी। किसी मंत्री/मुख्यमंत्री का वेश बदल कर थाने या सरकारी दफ्तर पहुंच जाना आज फिल्मी कहानी लग सकती है, पर यह उनकी कार्यशैली का अंग थी। उन्होंने कृषि संकट की आहट बहुत पहले सुन ली थी। उन्हें आभास था कि शहर और बड़े उद्योग केंद्रित विकास की कीमत अंतत: कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ेगी।

वह अक्सर कहते थे कि किसान के बच्चों को भी पढ़-लिख कर रोजगार के दूसरे अवसरों की ओर बढऩा चाहिए। महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल के अलावा चरण सिंह ही असली भारत की जमीनी वास्तविकताओं को सही अर्थों में समझ पाए, पर आजादी के बाद सत्ता मिली जवाहर लाल नेहरू को। 23 दिसंबर,1902 को जन्मे और 31 मई, 1987 को दिवंगत हुए चरण सिंह ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखते हुए देश के समक्ष मौजूद चुनौतियों के समाधान के लिए गांधीवाद और समाजवाद की सोच के आधार पर जिस लोकदलीय राजनीति की नींव रखी, वह लगभग तीन दशक तक उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और ओडिशा में गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति का आधार रही। 

मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप में चरण सिंह को लंबा कार्यकाल नहीं मिला, लेकिन उत्तर प्रदेश में उन्होंने जिन भूमि सुधारों की पहल की थी, उन्हीं से प्रेरित वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में साढ़े 3 दशक तक शासन करने में सफल रहा। चौधरी साहब की विशाल राजनीतिक विरासत को वारिस क्यों नहीं संभाल पाए-यह राजनीतिक प्रश्न है।-राज कुमार सिंह
 


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