बगैर स्वतंत्र अधिकारों के ‘पिंजरे का तोता’ बनी रहेगी सी.बी.आई.

Friday, Oct 26, 2018 - 04:48 AM (IST)

केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) के दो वरिष्ठतम अफसरों में वर्चस्व और भ्रष्टाचार को लेकर तूफान मचा हुआ है। सी.बी.आई. निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की आपसी जंग से देश की इस सर्वोच्च जांच एजैंसी के काले कारनामों की कलई खुलती जा रही है। सी.बी.आई. के इतिहास में झांकने से पता चलेगा कि यह जांच एजैंसी पवित्र कभी नहीं रही। 

अस्थाना के खिलाफ  सी.बी.आई. में ही करोड़ों रुपए के लेन-देन का मामला दर्ज किया गया है। अस्थाना ने वर्मा पर इसी तरह के कई गंभीर आरोप लगाए हैं। यह पहला मौका नहीं है जब सी.बी.आई. की गंदगी खुले तौर पर बाहर आ रही है, हालांकि इससे पहले भी विभिन्न प्रकरणों में सी.बी.आई. की जांच पर निष्पक्षता को लेकर लगातार उंगलियां उठती रही हैं। 

सी.बी.आई. के संयुक्त निदेशक रहे बी.आर. लाल ने अपनी पुस्तक ‘हू ओन्स सी.बी.आई.’ में देश की इस सर्वोच्च जांच एजैंसी की अंदरूनी दास्तां बयां की है। पुस्तक में लिखा है कि इस एजैंसी में भ्रष्टाचार, सिफारिश, राजनीतिक दबाव काम करता है। कहने को सी.बी.आई. बेशक निष्पक्ष हो किन्तु हकीकत में इसकी डोर कई हाथों में है। पुस्तक में कुख्यात हवाला कांड का जिक्र करते हुए कहा गया कि जब इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव और वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण अडवानी का नाम आने पर जांच की गई तो सरकार और वरिष्ठ अधिकारियों की भृकुटि तन गई। 

हवाला कांड में बड़े नामों की जांच करने पर वरिष्ठ अफसरों ने कई बार चेतावनी दी थी। इसकी जांच जारी रखने पर इस पुस्तक के लेखक लाल का तबादला सी.बी.आई. से कर दिया गया। पुस्तक में कई उदाहरण दिए गए हैं कि कैसे सी.बी.आई. में जांच प्रभावित करने के लिए बाहरी हस्तक्षेप किया जाता है। पूर्व निदेशक दिवंगत जोगिन्द्र सिंह ने भी अपनी पुस्तक ‘इनसाइड सी.बी.आई.’ में इस एजैंसी के दूषित तौर-तरीकों पर सवाल खड़े किए थे। सी.बी.आई. निदेशक रहते हुए खुद सिंह भी राजनीति का शिकार हुए। चारा घोटाले में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के खिलाफ चार्जशीट फाइल करने पर केन्द्र सरकार ने कुछ सप्ताह बाद ही सिंह को सी.बी.आई. से हटा दिया। इससे यही माना गया कि सरकार सिंह के इस निर्णय से खफा थी। 

विशेष निदेशक अस्थाना तीसरे ऐसे निदेशक स्तर के अधिकारी हैं, जिनके विरुद्ध अपनी जांच एजैंसी ने मुकद्दमा दर्ज किया है। इससे पहले सी.बी.आई. के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा और ए.पी. सिंह के खिलाफ  भ्रष्टाचार का मामला दर्ज हो चुका है। सिन्हा पर टू जी स्पैक्ट्रम और कोलगेट घोटाले के आरोपियों से मिलने पर प्रकरण दर्ज किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी सिन्हा की कार्यशैली पर कड़ी नाराजगी जाहिर की थी। सिन्हा ने कोलगेट की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत करने से पहले तत्कालीन कानून मंत्री अश्विनी कुमार को दिखाई थी। इसी तरह पूर्व निदेशक ए.पी. सिंह पर मांस निर्यातक और मनी लांड्रिंग केस के आरोपी से कई मुलाकात करने के आरोप में मुकद्दमा दर्ज किया गया था। इसी मामले को लेकर मौजूदा सी.बी.आई. निदेशक वर्मा और विशेष निदेशक अस्थाना एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। ऐसे चर्चित प्रकरणों के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने सी.बी.आई. को ‘पिंजरे के तोते’ की उपमा देते हुए कहा था कि इसे संचालित करने वाले कई मास्टर्स हैं। 

सी.बी.आई. अफसरों पर भ्रष्टाचार के अलावा केन्द्र सरकार के इशारों पर नाचने के आरोप लगते रहे हैं। केन्द्र में जिस भी दल की सरकार रही हो, उसने अपने राजनीतिक स्वार्थ और हिसाब-किताब चुकता करने के लिए इस एजैंसी के कान ऐंठे हैं। यही वजह है कि कांग्रेस, ममता, मायावती और दिवंगत जयललिता सहित कई क्षेत्रीय दलों के प्रमुखों ने केन्द्र सरकार पर सी.बी.आई. के दुरुपयोग के आरोप लगाए हैं। दिल्ली में ‘आप’ के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल सचिवालय में सी.बी.आई. के छापों की कार्रवाई को केन्द्र सरकार की करतूत करार दे चुके हैं। 

कहने को केन्द्र में रही सरकारें सी.बी.आई. में हस्तक्षेप नहीं होने का दंभ भरती रही हैं, किन्तु समय-समय पर सी.बी.आई. का जो चेहरा सामने आता रहा, उससे जाहिर है कि सी.बी.आई. में सरकार के इशारों से कितने कामकाज होते हैं। ऐसा नहीं है कि सी.बी.आई. के भ्रष्टाचार और राजनीतिक दबावों का एकपक्षीय चेहरा सामने आया हो। सी.बी.आई. में ऐसे भी निदेशक रहे हैं, जिन्होंने इसकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगाए हैं। सी.बी.आई. के संस्थापक निदेशक रहे डी.पी. कोहली को उनकी बेहतरीन सेवाओं के लिए नागरिक सम्मान पद्मभूषण से नवाजा गया। इसके बाद यह सम्मान सी.बी.आई. में किसी भी निदेशक स्तर के अधिकारी को हासिल नहीं हो सका।

इसके बाद से सी.बी.आई. दबावों और हस्तक्षेप के झंझावतों से जूझती रही। आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी के  सत्ता में आने पर सी.बी.आई. निदेशक बने जे.एस. बावा ने सबसे पहले इंदिरा और संजय पर लगे जीप घोटाले के प्रकरण को बंद कर दिया। इसके एवज में बावा को सेवानिवृत्ति के बाद सेवाविस्तार देकर पुरस्कृत किया गया। इसके बाद सी.बी.आई. की प्रतिष्ठा में गिरावट का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जो अभी तक जारी है। केन्द्र सरकार के इशारे पर निदेशकों के कठपुतली की तरह थिरकने के कई उदाहरण हैं। सी.बी.आई. निदेशक रहे मोहन कात्रे ने रिलायंस के संस्थापक धीरू भाई अंबानी के खिलाफ मुकद्दमा दर्ज करने से इंकार कर दिया जबकि अतिरिक्त निदेशक राधाकृष्ण नैय्यर ने इस मामले की जांच के बाद मुकद्दमा दर्ज करने के पर्याप्त कारण माने थे। बाद में कात्रे के पुत्र की अंबानी के साथ व्यावसायिक भागीदारी का खुलासा हुआ। 

कात्रे को बाद में सेवाविस्तार का फायदा मिला। इसी तरह सी.बी.आई. के निदेशक रहे के. विजय रामाराव को तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने सेवाविस्तार का लाभ दिया। रामाराव हवाला मामले की जांच से जुड़े थे। सी.बी.आई. को ‘तोता मुक्ति’ की परिभाषा से निजात दिलाने के लिए वर्ष 1992 में संसद की प्राक्कलन समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बगैर विधिक चार्टर अधिकारों के सी.बी.आई. की निष्पक्षता और ईमानदारी संभव नहीं है। समिति के चेयरमैन मनोरंजन भक्ता ने इस रिपोर्ट में कहा था कि सी.बी.आई. अभी तक दिल्ली पुलिस एस्टैब्लिशमैंट 1941 से ही संचालित हो रही है। इसके लिए अलग से विधि प्रावधानों की जरूरत है। यह निश्चित है जब तक सी.बी.आई. को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्ति नहीं मिलेगी, निदेशक और अन्य अफसरों की नियुक्तियां राजनीतिक पसंद-नापसंद के हिसाब से होनी बंद नहीं होंगी, तब तक पिंजरे के तोते के दर्जे से नवाजी गई इस सरकारी एजैंसी की प्रतिष्ठा पर ऐसे ही आंच आती रहेगी।-योगेन्द्र योगी

Pardeep

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