मुश्किल राजनीतिक दौर में से गुजर रहा तमिलनाडु

punjabkesari.in Tuesday, Apr 25, 2017 - 11:43 PM (IST)

क्या अखिल भारतीय अन्नाद्रमुक (ए.आई.ए. डी.एम.के.) के दोनों गुट फिर से एकजुट हो सकते हैं और तमिलनाडु में प्रासंगिक बने रह सकते हैं? पार्टी में फूट पडऩे के लगभग 75 दिन बाद मुख्यमंत्री एड्डापड़ी प्लानीस्वामी नीत अन्नाद्रमुक ‘अम्मा’ और पार्टी के विरुद्ध विद्रोह करके फूट डालने वाले पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पन्नीरसेल्वम के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक पुरात्ची तलाइवी (अम्मा) ने एक विलय समिति स्थापित की है। बेशक बहुत कठोर सौदेबाजी के बाद भी यदि विलय हो जाता है तो क्या पार्टी अगले चुनाव तक जिंदा रह पाएगी? 

एकता की यह कवायद तब शुरू हुई जब दोनों ही गुटों को यह महसूस हो गया कि वे एकता कर लेंगे तभी राजनीतिक रूप में जिंदा रह सकेंगे, नहीं तो अलग-अलग रह कर दोनों ही डूब जाएंगे। एड्डापड़ी प्लानीस्वामी (ई.पी.एस.) गुट को यह महसूस हो गया है कि शशिकला का कुनबा पार्टी के लिए एक बोझ बनता जा रहा है। आर.के. नगर के रद्द हो चुके उपचुनाव में शशिकला ग्रुप द्वारा मतदाताओं को रिश्वत दिए जाने की शिकायतों तथा अन्नाद्रमुक मंत्री विजय भास्कर के घर पर आयकर अधिकारियों की छापेमारी से मतदाता ऊब चुके थे। 

अभी भी भविष्य के बारे में निश्चय से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि पन्नीरसेल्वम ग्रुप का दावा है कि जब तक ई.पी.एस. ग्रुप बुआ-भतीजे की जोड़ी (शशिकला और दिनाकरन) को बाहर का रास्ता नहीं दिखाता तब तक दोनों गुटों में विलय नहीं हो सकता।  जैसे ही ई.पी.एस. को यह डर सताने लगा कि दिनाकरन उनकी अपनी कुर्सी पर दावा ठोंक सकते हैं तो उन्होंने तत्काल एकता में रुचि दिखाई। दिलचस्प बात यह है कि पार्टी में से बाहर निकाले जाने के विरुद्ध न तो शशिकला ने किसी प्रकार का ऐतराज किया है और न ही दिनाकरन ने। शायद उन्हें यह समझ आ गई है कि राजनीतिक रूप में गैर-प्रासंगिक बनने की बजाय कुछ पीछे हटना रणनीतिक दृष्टि से लाभदायक होगा। 

दिसम्बर में अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता की मृत्यु के बाद तमिलनाडु राजनीतिक ‘समुद्र मंथन’ की प्रक्रिया में से गुजर रहा है। वर्तमान स्थिति के लिए कुछ हद तक जयललिता ही जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने न तो पहले से किसी उत्तराधिकारी को तैयार किया था और न ही बाद में किसी को उत्तराधिकार सौंपा। उनके खुद के मार्गदर्शक एम.जी.आर. ने भी ऐसा ही किया था लेकिन उनकी विरासत पर दावा ठोंकने वाली जयललिता स्वयं बहुत करिश्माई नेता थीं। 

बेशक एम.जी.आर. की मौत के बाद 1987 में पार्टी दोफाड़ हो गई थी और उनकी पत्नी जानकी ने पार्टी की कमान संभाल ली थी। फिर भी 1989 के चुनाव में जानकी गुट बुरी तरह पराजित हो गया क्योंकि वह केवल 2 ही संसदीय सीटें जीत पाया था जबकि जयललिता गुट की झोली में 27 सीटों के साथ भारी-भरकम जीत आई थी। जया यह समझ गई थीं कि चुनाव जीतने के लिए उन्हें द्रमुक विरोध वोट को सक्रिय करना होगा। वास्तविकताओं से सबक सीखते हुए जानकी ने सक्रिय राजनीति से मुंह मोड़ लिया और इस प्रकार जया दोनों गुटों का एकीकरण करने में सफल हो गई थीं। 

जयललिता की मृत्यु के बाद जब 2017 में पार्टी में फूट पड़ गई तो स्थिति बिल्कुल अलग थी। पहली बात तो यह है कि अन्नाद्रमुक में कोई करिश्माई नेता नहीं था जिसके नाम पर पार्टी अगला चुनाव जीत सके और पन्नीरसेल्वम जयललिता के मुकाबले की हस्ती नहीं हैं। दूसरे नम्बर पर जयललिता की सहेली शशिकला ने पूर्व मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम की बगावत के बाद पार्टी पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। ऊपर से अदालत ने उन्हें 4 साल के लिए जेल की सजा भी सुनाई है। 

तीसरी बात यह है कि पार्टी का पूरा पैसा शशिकला के कब्जे में है जो इस समय बैंगलूर जेल में बंद है और अपने भतीजे दिनाकरन के माध्यम से उन्होंने जेल में बैठे-बैठे पार्टी पर नियंत्रण बनाए रखने की जो योजना बनाई थी वह असफल हो गई है। दिनाकरन ने कथित रूप में अन्नाद्रमुक का दो पत्ती का चुनाव चिन्ह हासिल करने के लिए चुनाव आयोग के अधिकारियों को रिश्वत देने का प्रयास किया। जयललिता इस दुनिया में नहीं हैं और दो पत्ती का चुनाव चिन्ह फ्रीज कर दिया गया। इसलिए दोनों गुटों को यह एहसास हो गया है कि राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखना अब आसान नहीं है। 

एकता की पहल दोनों ही गुटों के लिए दुविधा और अवसर दोनों ही प्रस्तुत करती है। बेशक दोनों गुटों के नेताओं को मंत्री पद मिल जाएं, फिर भी ऐसी आशंकाएं हैं कि ई.पी.एस. गुट का हाथ ऊपर रहेगा। ओ. पन्नीरसेल्वम (ओ.पी.एस.) ग्रुप शशिकला के कुनबे को पार्टी में से बाहर किए जाने के बारे में कुछ स्पष्टता अवश्य चाहेगा लेकिन आखिर उनका विद्रोह शशिकला के विरुद्ध ही था। जहां तक ई.पी.एस. का सवाल था उनके लिए भी एकता की यह पहल शशिकला के पंजों में से खुद को मुक्त करवाने का एक अवसर है। 

यदि शशिकला के मुद्दे पर फैसला हो जाता है तो भी यह सवाल बाकी रह जाएगा कि मुख्यमंत्री कौन होगा? क्या वर्तमान मुख्यमंत्री ई.पी.एस. ही अपने पद पर बने रहेंगे या फिर उनको पदच्युत करके ओ.पी.एस. दोबारा इस कुर्सी पर आसीन हो जाएंगे? यह बहुत फिसलन भरा सवाल है और इसका निर्णय अवश्य ही करना पड़ेगा। इसके अलावा विधानसभा में द्रमुक के नेतृत्व में एक सशक्त विपक्ष मौजूद है जबकि 1989 के राजनीतिक परिदृश्य में विपक्ष की ताकत नगण्य थी। इससे भी बड़ी बात यह है कि द्रमुक के ‘भीष्म पितामह’ एम. करुणानीधि शारीरिक रूप में कोई राजनीतिक गतिविधि करने में सक्षम नहीं। उनका बेटा एम.के. स्टालिन, जो पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष है, सरकार से दो-दो हाथ कर रहा है। इसके अलावा वाइको (एम.डी.एम.के.), रामदास (पी.एम.के.) और विजयकांत (डी.एम.डी.के.) जैसे अन्य विपक्षी नेता भी शोर मचा सकते हैं। 

चौथी बात यह है कि न तो पन्नीरसेल्वम और न ही प्लानीस्वामी अब तक अपनी गवर्नैंस क्षमताएं सिद्ध कर पाए हैं। उदाहरण के तौर पर किसानों का एक शिष्टमंडल अपने सूखाग्रस्त खेतों के लिए राहत हासिल करने हेतु लगभग 40 दिनों से दिल्ली में कैम्प लगाए हुए हैं। तमिलनाडु सरकार ने उनकी तकलीफें कम करने के लिए कुछ भी नहीं किया है। जनवरी में जब जल्लीकट्टु आंदोलन भड़का था तो इसे नियंत्रित करने का प्रयास करके पन्नीरसेल्वम ने निश्चय ही कुछ राजनीतिक दमखम दिखाया था लेकिन ऐसा वह केन्द्र सरकार के पूर्ण समर्थन के कारण ही कर पाए थे। 

5वीं बात यह है कि न तो ओ.पी.एस. और न ही ई.पी.एस. वैसी नेतृत्व क्षमता दिखाने का माद्दा रखते हैं जैसी एम.जी.आर. एवं जयललिता में थी। जिस दौर में युवा लोगों के सपने और आकांक्षाएं लगातार बदल रही हों वहां अन्नाद्रमुक के लिए कार्यकत्र्ताओं अथवा वर्करों को आकॢषत करना और अपने साथ टिकाए रखना काफी मुश्किल होगा। छठी बात यह है कि मुख्यमंत्री चाहे कोई भी बने, उसे केन्द्र सरकार की नजरों में अच्छा बनकर ही रहना पड़ेगा क्योंकि पार्टी की अपनी स्थिति बहुत अधिक मजबूत नहीं है। ओ. पन्नीरसेल्वम के बारे में ऐसा कहा जाता है कि केन्द्र सरकार के साथ उनके  बहुत बढिय़ा संबंध हैं लेकिन ई.पी.एस. भी भाजपा का दिल जीतने की कवायद में जुटे हुए हैं। 

भाजपा बेशक यह दावा कर रही है कि अन्नाद्रमुक के दोनों गुटों के एकीकरण में उसकी कोई भूमिका नहीं तो भी यह स्पष्ट है कि भाजपा भी शशिकला के कुनबे से मुक्त अन्नाद्रमुक के साथ ही संबंध रखना चाहेगी।  क्योंकि राज्यसभा में भाजपा बहुमत में नहीं इसलिए कई कानून पारित करवाने के लिए उसे अन्नाद्रमुक के समर्थन की जरूरत पड़ेगी और इसके अलावा राष्ट्रीय चुनाव में भी भाजपा नीत राजग को लगभग 25 हजार वोटों की कमी खल रही है। समूचे तौर पर यह कहा जा सकता है कि तमिलनाडु एक कठिन राजनीतिक दौर में से गुजर रहा है और इस बारे में केवल अटकलें ही लगाई जा सकती हैं कि वहां ऊंट किस करवट बैठेगा लेकिन एक बात तय है कि पार्टी के दोनों ही गुटों को सत्ता की कुर्सी एक-दूसरे से जोड़ कर रख सकती है।
 


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