‘सुशासन बाबू’ के बिहार में शासन लापता है

Sunday, Apr 01, 2018 - 02:58 AM (IST)

सुशासन बाबू के बिहार से शासन लापता है और नफरत की चिंगारियां भड़क रही हैं, अगर मौजूदा हालात को शायर मुनव्वर राणा के अल्फाजों का लिबास पहना दें तो अक्स कुछ ऐसा उभरता है-‘ये देख कर पतंगें भी हैरान हो गईं, अब तो छतें भी हिंदू-मुसलमान हो गईं/क्या शहर-ए-दिल में जश्न-सा रहता था रात-दिन, क्या बस्तियां थीं, कैसे बियाबान हो गईं।’ शासन के हौसलों पर ताले हैं और नीतीश सरकार के कई मंत्रीगणों की जुबानें आग उगल रही हैं। 

सूत्रों की मानें तो अब नीतीश को भी अपनी खिसकती अस्मिता का खौफ सताने लगा है, अपने करीबियों से वह इस बात पर मंत्रणा करने लगे हैं कि आखिरकार भाजपा का हमसफर बनकर और कितना रास्ता तय किया जा सकता है? नीतीश के एक करीबी की बातों पर अगर यकीन करें तो नीतीश ने भाजपा को बाय-बाय कहने का पूरा मन बना लिया है, इंतजार बस एक माकूल वक्त का है। नीतीश एक बार फिर से महादलित, अतिपिछड़ा और अगड़े वोट बैंक को एकजुट करने में जुट गए हैं। इस बाबत केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान से उनकी एक बेहद गोपनीय मुलाकात इन कयासों को पंख लगाते दिखती है कि अब बस नीतीश भाजपा को अलविदा कहने के बहाने ढूंढ रहे हैं। रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस को पहले विधान परिषद का सदस्य, फिर अपनी सरकार में मंत्री बनाने का नीतीश का फैसला दूरगामी सोच से ओत-प्रोत था। 

नीतीश के भाजपा कनैक्शन सुशील मोदी की शाह व मोदी के समक्ष वैसे ही घिग्गी बंधी रहती है, एक नीतीश करीबी का कहना है कि ‘हमें सुशील मोदी की सियासी धमक का अंदाजा उसी रोज हो गया था, जब 2016 में राज्यसभा भेजे जाने के लिए 4 लोगों के नामों की सूची अमित शाह को भेजी गई थी, इसमें पहले नंबर पर सुशील मोदी का नाम था और चौथे नंबर पर गोपाल नारायण सिंह का, शाह ने सुशील मोदी का नाम काट कर उनकी जगह गोपाल नारायण का नाम लिख दिया और उन्हें राज्यसभा में लेकर आ गए।’ 

नीतीश और भाजपा की दोस्ती में 2019 का आगामी आम चुनाव भी आड़े आ रहा है, कभी राज्य में भाजपा-जद (यू) की जूनियर पार्टनर हुआ करती थी, तब जद (यू) राज्य की 40 में से 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारती थी और 15 सीटें भाजपा के लिए छोड़ देती थी। पर अब बदले सियासी हालात में भाजपा नीतीश के लिए मात्र 8-10 सीटें छोडऩे का इरादा रखती है, जिसके लिए नीतीश किंचित तैयार नहीं, इसके बजाय वे रामविलास पासवान की पार्टी के साथ मोर्चा बना लोकसभा चुनाव में जाना पसंद करेंगे, पर भाजपा है कि वह किसी भी कीमत पर नीतीश को अपने पाले से बाहर नहीं निकलने देना चाहती, सो नीतीश को मनाने के हर भगवा उपक्रम जारी रहेंगे। 

तेजस्वी को सियासी ककहरा कंठस्थ
लालू यादव भले जेल में हों, पर उनके छोटे पुत्र तेजस्वी यादव ने बड़ी जल्दी सियासत के दस्तूर सीख लिए हैं, शह-मात की बिसात पर युवा तेजस्वी का हर दाव सही पड़ रहा है। पिता की गैर-मौजूदगी में तेजस्वी 2019 के चुनावों के लिए अभी से सहयोगी दलों के साथ मिल-बैठ कर सीटों के तालमेल को अंतिम रूप दे रहे हैं। लालू की पार्टी राज्य की 3 लोकसभा सीटें वामपंथी दलों के लिए छोडऩे को तैयार है। इनमें से बेगूसराय की सीट सी.पी.आई. के हिस्से में जा सकती है और यहां से जे.एन.यू. फेम के कन्हैया कुमार अपनी किस्मत आजमा सकते हैं, सूत्र बताते हैं कि भाजपा ने यहां से अपने मौजूदा सांसद भोला सिंह का टिकट काटने का मन बनाया हुआ है, कहते हैं इस बात का इल्म भोला सिंह को भी हो चला है, चुनांचे उन्होंने भी एक तरह से कन्हैया का साथ देने का मन बना लिया है। 

इसके अलावा राजद आरा और सीवान सीटें सी.पी.आई. (एम.एल.) के  लिए छोडऩे को तैयार बताई जाती है। राजद 10 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ सकता है, तो वहीं राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री मांझी अपनी पार्टी के लिए 3 सीटों की मांग कर रहे हैं- गया, महाराजगंज और वैशाली।’ सूत्र बताते हैं कि तेजस्वी गया और महाराजगंज सीटें मांझी को देने के लिए तैयार हो सकते हैं। इस वक्त राज्य के यादव और मुस्लिम वोट राजद के पक्ष में गोलबंद जान पड़ते हैं। ठाकुर वोटरों का भी भगवा पार्टी से मोहभंग हो गया लगता है। ठाकुर वोट भी कमोबेश राजद की ओर लौट सकते हैं। वैसे भी राजद ने अपनी पार्टी के प्रवक्ता डा. मनोज झा को इस बार राज्यसभा में भेजकर ब्राह्मण मतदाताओं को संकेत देना चाहा है। वहीं भाजपा 2019 के चुनाव में अगड़ी व पिछड़ी जातियों के समन्वय से अपना चुनावी रास्ता निकालना चाहती है। 

नए अवतार में पीयूष
रेल मंत्री पीयूष गोयल की उम्मीदों की रेल चल निकली है, इन दिनों वे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेहद भरोसेमंदों में शुमार होने लगे हैं। सो, यू.पी. के उपचुनावों के नतीजों से फक्क हुई भाजपा ने कुम्हलाए कमल को नया स्पंदन देने की जिम्मेदारी गोयल के कंधों पर रखी और इस राज्यसभा चुनाव में यू.पी. में भगवा कमल खिलाने की खातिर गोयल पखवाड़ा पहले से लखनऊ में जमे बैठे थे। विपक्ष को चारों खाने चित्त करने के लिए एक चाक-चौबंद व्यूह रचना रची गई, सबसे पहले वरीयता के क्रम में भगवा उम्मीदवारों को सजाया गया, मसलन अरुण जेतली को सबसे ऊपर रखा गया। जरूरी 37 की जगह, 2 अतिरिक्त यानी 39 सीनियर विधायकों का एक गुलदस्ता तैयार हुआ, इस गुलदस्ते को मांजने-संवारने की महत्ती जिम्मेदारी मंत्री सतीश म्हाना को सौंपी गई, इसी तरह 39-39 विधायकों के समूह पर नजर रखने की जिम्मेदारी एक अदद मंत्री को सौंपी गई। 

चुनाव से ऐन पहले विधायकों से वोट देने की ‘मॉक ड्रिल’ कराई गई। फस्र्ट टर्म एन.डी.ए. विधायकों को बाकायदा ट्रेङ्क्षनग दी गई कि वे अपना वोट कैसे कास्ट करें और इस महत्ती जिम्मेदारी को स्वयं पीयूष गोयल ने उठाया। गोयल अब वोट मैनेजमैंट में भी सिद्धहस्त हो चुके हैं, चुनांचे अनिल अग्रवाल की जीत पक्की करने के लिए तलवार की धार पर चलने की तरह था, सैकेंड प्रैफरैंस के 14 वोटों की उन्हें जरूरत थी, भाजपा के अपने 12 वोट बचे थे, जरूरत थी सिर्फ  2 वोटों की, जब चुनाव के नतीजे आए तो अग्रवाल को निर्दलीय व अन्य उच्च-जाति के विधायकों के 4 वोट मिल गए और उन्होंने मैदान मार लिया और पीयूष गोयल ने भी खुद को एक नवअवतरित रणनीतिकार के तौर पर साबित कर दिया। 

पवार पर एतबार
तीसरे मोर्चे को एक नया चेहरा-मोहरा देने की गरज से बंगाल की उत्साही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दिल्ली में थीं। उन्हें एन.सी.पी. नेता शरद पवार से मिलना था, मिलने का वक्त तय हो चुका था कि ममता-शरद मुलाकात के ठीक ऐन पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद आनन-फानन में पवार से मिलने एन.सी.पी. के दफ्तर जा पहुंचे। सूत्र बताते हैं कि आजाद ने पवार से गुजारिश की कि वे ममता को समझा दें कि उनसे मिलने के बाद ममता दीदी का मीडिया में जो बयान आए उससे कहीं ऐसा नहीं लगना चाहिए कि कांग्रेस विपक्षी एकता की इस पहल से अलग-थलग है। पवार की सहमति हासिल करने के बाद आजाद वहां से चले गए। फिर दीदी वहां पहुंचीं और सियासत के उस्ताद बाजीगर पवार ने ममता को जाने क्या समझाया कि शाम की प्रैस-कान्फ्रैंस में दीदी ने बेखटके कहा-‘हम मिलकर लड़ेंगे।’ और इसके बाद दीदी ने सोनिया को फोन कर उनसे मिलने का समय मांगा और हंसी- खुशी उनसे मिलने भी गईं। 

सियासी रंगरेज कैम्ब्रिज
जिस कैम्ब्रिज एनालिटिका पर इतना बवाल मचा है, सूत्र बताते हैं कि इसके भगवा सरोकार व कनैक्शन के दर्शन 2012 से लेकर 2014 तक हो चुके थे। सूत्रों का दावा है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी के चुनावी अभियान को धार देने में इस संगठन की एक महत्ती भूमिका थी। 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की भद्द पिट गई और महीनों जब कांग्रेस में आत्ममंथन का दौर चला तो सूत्र बताते हैं कि तब राहुल ने अपने लोगों से कहा कि कांग्रेस क्यों नहीं इस संगठन की सेवा लेती है? कहते हैं फिर कैम्ब्रिज के लिए कांग्रेस के दरवाजे खुल गए। और इसका साथ मिलने के बाद सोशल मीडिया में कांग्रेस की छवि बदलने लगी। राहुल की इमेज में भी निरंतर सुधार आने लगा। 

कैम्ब्रिज का प्रताप
कैम्ब्रिज एनालिटिका से भाजपा का कहीं पहले से चोली-दामन का साथ रहा है। सूत्रों की मानें तो जब 2004 में भाजपा के हाई-प्रोफाइल नेता राजीव प्रताप रूडी ने छपरा से लालू यादव के खिलाफ  लोकसभा का चुनाव लड़ा था, तो उन्होंने इस कम्पनी की मदद ली थी। कहते हैं इस कम्पनी की रूडी के छपरा चुनाव में एक महत्ती भूमिका थी। कम्पनी ने छपरा में एक व्यापक जनमत सर्वेक्षण करवाया था और हर बूथ का गणित निकाल लिया था कि किस बूथ पर किस जाति, वर्ग और आय वर्ग के मतदाता हैं, उनका पारंपरिक रुझान किस पार्टी की ओर है और इनमें से कितने फ्लोटिंग वोटर्स हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर ही रूडी और भाजपा ने अपने बूथ मैनेजमैंट की रणनीतियों को अंतिम रूप दिया था, यह और बात है कि इस चुनाव में राजीव प्रताप रूडी को लालू के हाथों पराजय झेलनी पड़ी थी।-त्रिदीब रमण                            

Pardeep

Advertising