सुप्रीम कोर्ट ही आम नागरिक की आशा का अंतिम पड़ाव

punjabkesari.in Saturday, Sep 18, 2021 - 04:36 AM (IST)

अगर नेता का इकबाल किसी कारण से कम हुआ और जन-स्वीकार्यता दरकने लगी तो उसके पास कोई सपोर्ट-सिस्टम नहीं होता इसे रोकने का। इसी के साथ एक और सत्य होता है- सिस्टम को तोड़-मरोड़ कर उसे विरोध दबाने के लिए इस्तेमाल करना भारतीय जनता में एक वर्ग को भावातिरेक में पहले तो अच्छा लगता है लेकिन धीरे-धीरे नेता का यह कृत्य उसे जनता की वितृष्णा का शिकार बनाता है। इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने के बाद जनता उनसे नाराज हुई तो नेतृत्व-शून्य जनता पार्टी को वोट मिले। 

अल्पकाल में ही वापस उसी नेता इंदिरा गांधी के प्रति निष्ठा जाहिर की। हाल के दौर में नरेन्द्र मोदी उसके सबसे मकबूल नेता हैं। अब चूंकि वोट नेता दिलाता है अत: उसकी पार्टी और पार्टी के आदर्श और प्रबंधन भी नेता के अनुरूप होना लाजिमी है। भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने रातों-रात बगैर किसी ज्ञात और स्पष्ट कारण के पांच मुख्यमंत्री कुछ ही माह में बदले। उत्तराखंड में दो, कर्नाटक, असम और अब गुजरात में। ये नए चेहरे प्रशासन में अनुभव-शून्य थे लेकिन चूंकि शीर्ष नेतृत्व का फैसला था लिहाजा विधायक दलों को मानना पड़ा। इसमें कहीं कोई गलती न तो नैतिकता के धरातल पर है, न ही व्यावहारिकता के स्तर पर। लेकिन क्या विधायक दल की भी यही राय थी? क्या जनता या पार्टी में कोई भी पहले से इन नामों को ऐसे पद के लिए योग्य मानता था? क्या इससे यह संदेश नहीं जाता कि गवर्नैंस के लिए नेता से नजदीकी ही पहली और आखिरी योग्यता होती है? 

प्रजातांत्रिक व्यवस्था में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में एक संतुलन बनाया गया है। अगर देश की सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़े कि उसके फैसलों का पालन नहीं होता या यह कि ‘हमारे धैर्य की परीक्षा न ले सरकार’  तो सरकार ही नहीं पूरे समाज को चिंतित होना चाहिए। तब जब कि कार्यपालिका निचले स्तर पर भ्रष्ट, अकर्मण्य या संवेदनहीन हो, कोर्ट्स, खासकर सुप्रीम कोर्ट ही आम नागरिक की आशा का अंतिम पड़ाव है। इस कोर्ट का आदेश था तमाम न्यायाधिकरणों के खाली पड़े पदों को भरने का, पर सरकार न जाने क्यों उन पर नियुक्ति नहीं कर रही है। लगभग यही हाल तमाम हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर है। कॉलेजियम व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के चार बड़े फैसलों का निचोड़ है। इसकी गरिमा को सर्वोपरि रखना कार्यपालिका का पहला दायित्व है लेकिन हाल में कॉलेजियम और केंद्र के बीच एक खतरनाक द्वन्द्व देखने को मिल रहा है। 

इस कोर्ट के स्पष्ट फैसले कि कॉलेजियम अगर जजों के नाम दोबारा भेजे तो वह सरकार पर बाध्यकारी होगा, के बावजूद सरकार नियुक्ति नहीं करती। हाल में ही कॉलेजियम ने 12 जजों के नाम दोबारा भेजे हैं। दरअसल कॉलेजियम की अवधारणा के पीछे यह सोच है कि हाईकोर्ट के जज किसी वकील के बारे में स्वयं भी जानते हैं या अन्य जजों/वकीलों के जरिए जानकारी ले सकते हैं। सरकार के पास आई.बी. के अलावा कोई भी औपचारिक एजैंसी नहीं होती। आई.बी. भी वकीलों से ही जानकारी लेती है। लिहाजा यह माना गया कि कॉलेजियम सरकार के मुकाबले बेहतर साधन रखती है जज बनाने के लिए किसी सुपात्र वकील के बारे जानने की। फिर तमाम अन्य संस्थाओं में नियुक्ति या नागरिक सम्मान (पद्म आदि) देने में भी यह पाया गया है कि सरकार अपनी हिमायत करने वालों को चुनती है। फिर सत्ता में बैठा राजनीतिक दल वोटों का याचक होता है लिहाजा उससे निष्पक्षता की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की गरिमा जनता के लिए सर्वोपरि है। 

पेगासस पर राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ : राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर राज्य को कुछ मौलिक अधिकार बाधित करने की शक्ति है। इसी का सहारा लेकर सरकार ने संसद में लगातार यह बताने से इंकार किया कि उसने जासूसी सॉफ्टवेयर पेगासस का इस्तेमाल किया या नहीं और किया तो क्या कानून जितनी शक्ति देता है उसके बाहर जा कर भी अर्थात क्या पत्रकारों, राजनीतिक लोगों और सरकार-विरोधी बुद्धिजीवियों के खिलाफ भी उनकी निजता भंग करते हुए? लेकिन जब वे देश के सबसे बड़े कोर्ट पहुंचे तो वह चुप नहीं बैठ सकता था। सरकार से हलफनामा देने को कहा गया तो उसने उसी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देते हुए इंकार किया। ऐसा आज तक नहीं हुआ था। 

बहरहाल अगर सरकार की बात मान ली जाए तो क्या सरकार हलफनामे में इतना भी नहीं बता सकती कि उसकी एजैंसियां सॉफ्टवेयर का प्रयोग करती हैं या नहीं और अगर हां, तो केवल कानूनी सीमा तक? यह बताने से कौन सी राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में आएगी? लेकिन सरकार के लिए यह एक रास्ता है जिससे सांप भी मर जाएगा और लाठी भी बची रहेगी। हां, अगर सरकार ने अपनी या गैर-सरकारी एजैंसियों के जरिए किसी भी जासूसी सॉफ्टवेयर का प्रयोग राजनीतिक या सरकार का विरोध करने वालों के लिए किया है तब इसको महंगा पड़ सकता है। दरअसल लार्ड एक्टन का कथन ‘निर्बाध शक्ति निर्बाध रूप से दूषित करती है’ गलत नहीं था।-एन.के. सिंह
 


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