जजों की भर्ती को लेकर सुप्रीम कोर्ट एवं सरकार के मध्य टकराव जारी

Friday, Nov 17, 2017 - 02:14 AM (IST)

यह हैरानी ही है कि सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट के जजों की भर्ती को लेकर सुप्रीम कोर्ट एवं केन्द्र सरकार में गत लगभग 2 वर्षों से टकराव जारी है। दोनों के द्वारा एक-दूसरे से मौखिक एवं लिखित युद्ध किया जा रहा है।

इससे नुक्सान उन लोगों का हो रहा है, जो वर्षों से न्याय की प्रतीक्षा में न्यायालयों में परेशान हो रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे दोनों पक्ष मानने को तैयार नहीं। हालांकि बहुत देर नहीं हुई, जब जजों की भर्ती करने वाले कोलेजियम ने यहां तक भी कह दिया है कि भर्ती की सारी कार्रवाई बाकायदा वैबसाइट पर डाल दी जाया करेगी ताकि पारदर्शिता रहे। फिर भी मामला ज्यों का त्यों ही खड़ा है। 

वर्णनीय है कि पांच सदस्यीय कोलेजियम का प्रमुख सुप्रीम कोर्ट का प्रमुख जज (चीफ जस्टिस) ही होता है। हाल यह है कि प्रधानमंत्री, कानून मंत्री अथवा किसी भी मंत्री को जब कभी मौका मिलता है, तो उनके द्वारा अक्सर न्यायपालिका को जताया जाता है कि वे लोगों को त्वरित एवं सस्ता न्याय दें। उन सभी का इशारा सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट समेत देश की जिला स्तरीय अदालतों में वर्षों से निपटारे के लिए लंबित मुकद्दमों की ओर होता है। देखा जाए तो यह भले ही वे नसीहत या सलाह के तौर पर ही कह रहे हों, पर सुप्रीम कोर्ट इसे अपने जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा महसूस करती है। 

कारण यह है कि वह बहुत देर से सरकार को कह-कह कर थक चुकी है कि बड़ी अदालतों में जजों की सख्त कमी है तथा इसे पूरा किया जाए। पूरा करने की आज्ञा तो सरकार ने ही देनी है परन्तु काम यह सुप्रीम कोर्ट ने करना होता है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के हाथ भी बांध दिए हैं और उलटा उसे ही शिक्षा व परामर्श देने पर जोर है तो फिर जजों की भर्ती की देरी हेतु कौन जिम्मेदार है, यह आप स्वयं भली-भांति समझ सकते हैं। प्रश्र यह है कि आखिर मसले की जड़ कहां है? पहली बात तो यह है कि देश में न्यायपालिका को काम करते हुए लगभग 70 वर्ष हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के अतिरिक्त 30 राज्यों में 24 हाईकोर्ट हैं। जो सरकारें पहले दिन से ही लोगों को उनकी दहलीज पर त्वरित व सस्ता न्याय देने के दावे कर करके चुनाव जीतती रही हैं, उन्हें आज तक यह एहसास ही नहीं हुआ कि कम से कम एक राज्य को अलग हाईकोर्ट तो इस मतलब के लिए दे दी जाए परन्तु नहीं। 

इसका अर्थ यह है कि 6 राज्य आज भी हाईकोर्टों से खाली हैं, केन्द्र शासित प्रदेशों की बात अलग है। क्यों नहीं प्रत्येक राज्य को अलग हाईकोर्ट दी जाती? कथनी व करनी में जमीन- आसमान का फर्क है। दूर क्या जाना है, गत 70 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के लिए अनुमोदित जजों के पद भी नहीं भरे गए। आज भी कई पद खाली हैं। हाईकोर्टों में आज के दिन न्यूनतम 380 जजों के पद खाली हैं। अब मोदी सरकार के समय इस मुद्दे को लेकर शोर कुछ अधिक ही होने लगा है। जजों की भर्ती करने वाली कोलेजियम अपनी कार्रवाई करती है तो सरकार द्वारा उसमें बहुत देरी की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व चीफ जस्टिस तो प्रधानमंत्री की उपस्थिति में यह कहते हुए रो भी पड़े थे कि जजों के पद जल्द क्यों नहीं भरने दिए जाते? इससे दोनों पक्षों में टकराव पैदा होना संभव ही था, जो अनवरत चल भी रहा है।

यह मसला शायद इतना गंभीर नहीं था, जितना अब के दो वर्षों में बन गया है। वास्तव में जैसे ही 2014 में मोदी सरकार बनी तो इसने अन्य संवैधानिक विभागों की तरह न्यायपालिका को भी अपनी मुट्ठी में रखना चाहा। जजों की भर्ती के लिए पहले चल रही कोलेजियम प्रणाली के स्थान पर उसी प्रकार का एक आयोग कायम करने का प्रस्ताव पेश कर दिया जैसे बड़े अधिकारियों की भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग कार्य कर रहा है। इसका नाम राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एन.जी.ए.सी.) रखा गया है।

बेशक इसने सुप्रीम कोर्ट एवं 24 हाईकोर्टों से इस बारे सलाह-मशविरा भी किया परन्तु बहुतों ने यह प्रस्ताव रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने तो सीधे ही इन्कार कर दिया था। इसके बावजूद सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही। फिर सुप्रीम कोर्ट भी पीछे नहीं रही तथा उसने भी इसके विरुद्ध डटकर स्टैंड ले लिया। उसने तो सरकार के इस कदम को सीधा न्याय की स्वतंत्रता में दखलंदाजी बताया। फिर इस मुद्दे का हल निकालने के लिए कुछ प्रयत्न भी हुए। सरकार का सुझाव था कि जजों की भर्ती के लिए कुछ दिशा- निर्देश बनाए जाएं। एक तरह से यह ठीक भी था एवं सुप्रीम कोर्ट सहमत भी हो गई। 

यह बात 2015 की है। हैरानी है कि अब तक ये दिशा-निर्देश सरकार द्वारा तय ही नहीं किए गए। परिणाम के तौर पर जजों की भर्ती के कार्य में बड़ा विघ्न पड़ रहा है, इस दौरान सरकार ने इस काम में एक और अड़ंगा लगाते हुए शिगूफा छेड़ दिया कि कोलेजियम द्वारा जिन जजों की सिफारिश की जाती है, सरकार आवश्यकता पडऩे पर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर किसी की भी नियुक्ति रद्द कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे सीधा रद्द कर दिया क्योंकि उसके अनुसार जजों की भर्ती उसके हाथ न रहकर सरकार के हाथ में है।

उपरोक्त अनुसार कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा जजों की भर्ती में कदम-कदम पर अड़ंगे डाले जा रहे हैं। शायद यही कारण है कि अदालतों के पास जजों की कमी तो है ही, कार्य भी दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है क्योंकि हर न्याय पीड़ित को अदालत का दरवाजा खटखटाने की पूरी आजादी है। सवाल फिर वहीं आ खड़ा होता है कि यदि अदालतों में अपेक्षित जज ही नहीं होंगे, तो फिर मुकद्दमे लटकेंगे ही। वैसे भी न्याय प्रक्रिया बड़ी उलझावदार, खर्चीली एवं लंबी है। निचले स्तर से प्रत्येक जज के पास रोज के कम से कम 100 केस होते हैं। सरकार ने यदि इसी बहाने जज ही नहीं देने हैं तो फिर उलाहने भी क्यों? 

फिर इस मसले का हल क्या निकले? यह बात तो साफ है कि दोनों पक्षों के लोग अगर यूं ही अकड़े रहेंगे तो बात नहीं बनेगी। दोनों को मिल कर ही कोई रास्ता निकालना होगा। बात बड़ी सीधी है, यदि सरकार ने आयोग के प्रस्ताव को एक ओर रखकर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी तले कोलेजियम को ही चलने की हरी झंडी दे दी है तो फिर ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा’’ जैसी अनावश्यक नीतियां लाने की क्या आवश्यकता है? जजों की भर्ती के लिए दिशा-निर्देश (मैमोरंडम आफ प्रोसीजर) वाली बात तो सुप्रीम कोर्ट ने मान ही ली है परन्तु वे तैयार तो करवाए जाएं। 

दूसरी बात इस आपसी टकराव से दोनों पक्षों की बदनामी हुई है, विशेष कर सरकार की अधिक। तीसरी बात जो सरकार लोगों को उनके घरों के निकट, औपचारिक एवं सस्ता न्याय देना चाहती है तो फिर बड़ा दिल भी दिखाए तथा कोलेजियम को पूरी तरह काम करने दिया जाए। हालांकि बात यह भी छिपाने योग्य नहीं है कि कोलेजियम की ओर भी कुछ वर्षों से उंगलियां उठने लगी हैं। देश में अच्छे कानूनदानों की कोई कमी नहीं। इसे जजों की भर्ती एवं तबादलों के समय पूरी पारदॢशता अपनानी चाहिए, ताकि शक की कोई गुंजाइश ही न रहे।-शंगारा सिंह भुल्लर

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