ऐसा था जनरल परवेज मुशर्रफ का चरित्र

punjabkesari.in Saturday, Feb 11, 2023 - 03:42 AM (IST)

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ एक लम्बी बीमारी के बाद दुबई में स्व-निर्वासन में चल बसे। विभाजन से पहले मुशर्रफ दिल्ली के दरियागंज में एक हवेली में रहा करते थे। उन्हें भारत में कारगिल युद्ध के शिल्पकार के रूप में याद किया जाता है। मुशर्रफ का एक जटिल व्यक्तित्व था। वह खुद को डैमोक्रेट कहते थे लेकिन कारगिल युद्ध फ्लाप होने पर परमाणु बम का इस्तेमाल करने के लिए तैयार थे। ऐसा था मुशर्रफ का चरित्र। वह एक पैन-इस्लामवादी थे और यह सोच रखते थे कि पाकिस्तान इस्लामी दुनिया का एक स्वाभाविक नेता है। 

यह कहने की जरूरत है कि जनरल मुशर्रफ सहित पाकिस्तान के सैन्य शासकों ने कभी भी भारत की संवेदनशीलता और जरूरत पडऩे पर कड़ा जवाब देने की क्षमता की सराहना नहीं की। कोई आश्चर्य नहीं कि इस्लामाबाद को हर बार सशस्त्र संघर्ष में भारी कीमत चुकानी पड़ी। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। भारतीय नीति निर्माताओं ने मुशर्रफ के शांति प्रस्ताव को कभी गंभीरता से नहीं लिया। वे जनरल मुशर्रफ के खेल को आसानी से देख सकते थे। मुशर्रफ और उनके प्रशासन के साथ समस्या यह थी कि वे आज से परे देखने में असमर्थ थे। वे बदलते वैश्विक परिवेश की परवाह किए बिना अतीत के अपने पालतू जुनून पर फलना-फूलना चाहते थे। वे भारतीय संवेदनाओं को स्वीकार करने में हमेशा अनिच्छुक रहे हैं। उस मामले में कट्टरपंथी कार्ड वैश्विक कूटनीति में उनके गंदे खेल का हिस्सा बन गया। यह बड़े दुख की बात है। 

ऐसा अक्सर होता है कि पाकिस्तानी शासकों में आमतौर पर उस भव्य दक्षिण एशियाई दृष्टि का अभाव होता है जो भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रक्षेपित की गई थी। पाकिस्तानी नेताओं के लिए शांति या युद्ध वाले कश्मीर को पूरे जोर या फिर बदमाशी से हड़पने की चाह रही है। उन्होंने शायद ही भारत के साथ शांतिपूर्ण अस्तित्व और आर्थिक सहयोग की कभी परवाह की। बेशक, शांति और सहयोग के लिए यहां कोई छोटा रास्ता नहीं है। इस्लामाबाद के लिए जो प्रासंगिक है वह यह महसूस करना है कि भारत के साथ शांतिपूर्ण सहयोग उनके लिए सबसे अच्छा दाव है। नई दिल्ली निरपवाद रूप से शांति की प्रक्रिया के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है। यह बात वर्षों से पाकिस्तानी नेताओं के लिए स्पष्ट होनी चाहिए थी। 

यह मुझे याद दिलाता है कि पाकिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत शरत सभ्रवाल ने एक बार पाकिस्तानी तानाशाह के बारे में क्या कहा था : ‘‘मुशर्रफ अपने पीछे मिलीजुली विरासत छोड़ गए हैं। इसे दो चरणों में बांटा जा सकता है। पहला, सेनाध्यक्ष का पदभार संभालने के बाद उन्हें अति दुस्साहसी के रूप में देखा गया। आतंक के प्रमुख कृत्यों में आई.सी. 814 का अपहरण और संसद पर हमला शामिल है। इन दोनों को मुशर्रफ की चौकस निगाहों में अंजाम दिया गया। बाद में 9/11 और पश्चिम के दबाव के कारण उन्होंने अधिक उचित स्थिति अपनाई। यह तब था जब हिंसा कम हुई थी और दोनों देशों के बीच बैक-चैनल वार्ता हुई थी।’’

इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि भारत-पाक सहयोग की हमेशा से जबरदस्त गुंजाइश रही है। निजी तौर पर, अधिकांश पाकिस्तानी नेता नई दिल्ली के साथ सार्थक आर्थिक सहयोग के महत्व को स्वीकार करते हैं। यहां तक कि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भी इस वियय पर भावुक होकर बात की थी जब मैं उनको भारी चुनावी जीत के बाद इस्लामाबाद में मिला था। हालांकि, अफसोस की बात यह है कि जल्द ही वह भी सैन्य प्रतिष्ठान का कैदी बन गए। यदि हम पीछे मुड़ कर देखें तो यह दुख की बात लगती है कि पाकिस्तान प्रायोजित सीमा पार आतंकवाद और सच को झूठ और झूठ को सच के रूप में बेचने के उसके पुराने खेल, अन्य उपमहाद्वीप की अशांत राजनीति के शिकार बन गए। इस संबंध में कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं। 

उदाहरण के लिए जब पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए जनमत संग्रह करवाने पर जोर दिया तो इसे आसानी से नजरअंदाज कर दिया गया कि यह प्रस्ताव पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पी.ओ.के.) से अपनी सेना वापस लेने से जुड़ा था। यह भी बताने की जरूरत है कि पाकिस्तान सीमा पार विदेशी भाड़े के सैनिकों और सशस्त्र घुसपैठियों को प्रशिक्षण देने, वित्त पोषण करने और भेजने में भी सक्रिय रहा है। इसलिए विवादास्पद मुद्दा यह है कि वैश्विक नेता विश्व मंच पर जनरल मुशर्रफ के खुले झूठ को कैसे नहीं देख पाए? 

इस संदर्भ में मैं कहना चाहता हूं कि हर अंतर्राष्ट्रीय घटना को खुले दिमाग से देखा जाना चाहिए। भविष्य की घटनाओं का क्रम इस बात पर निर्भर करता है कि गंभीर आॢथक संकट का सामना कर रही पाकिस्तानी सरकार अपनी विदेश नीति के साधन के रूप में आतंकवाद को त्यागने के लिए तैयार है या नहीं। मैं, पाकिस्तान के नेताओं के लिए नहीं बोल सकता हूं। वे अपने देश के भविष्य के खुद ही स्वामी हैं। इसलिए मेरे लिए यह कहना मुश्किल है कि क्या वे अपनी पुरानी मानसिकता से बाहर आना चाहते हैं। 

इन परिस्थितियों में भारत के पास सामान्यकरण की प्रक्रिया को जारी रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वैसे भी पाकिस्तान खून-खराबे और नफरत से पैदा हुआ था। इसके नेताओं ने आजादी के बाद से ही अपने सारे गुण दिखाए। मुझे कहना होगा कि नकारात्मकता शायद ही एक तर्कसंगत और मानवीय दृष्टिकोण को आकार देने में मदद कर सकती है। पाकिस्तान न ही मित्रता और न ही सहनशीलता के सेतु बना सकता है। इसमें पाकिस्तान की त्रासदी और उसका मौजूदा आर्थिक संकट निहित है।-हरि जयसिंह


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