‘मॉब लिंचिंग’ रोकने को बने सख्त कानून

punjabkesari.in Monday, Jul 23, 2018 - 04:35 AM (IST)

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को ‘मॉब लिंचिंग’ रोकने के लिए प्रभावी कानून बनाने और अपराधियों को कड़ी सजा देने के निर्देश दिए हैं। ‘मॉब लिंचिंग’ का सबसे पुराना उदाहरण समय-समय पर देश में होने वाले दंगे हैं, जिनमें एक धर्म के मानने वालों की भीड़ दूसरे धर्म के मानने वाले किसी व्यक्ति को घेरकर उस पर हमला करती है, उसे बुरी तरह घायल कर देती है और मार भी डालती है। भारत के इतिहास में पिछली सदी में इसके लाखों उदाहरण हैं। 

दूसरा उदाहरण है चुनावी हिंसा का। जिन दिनों भारत के कुछ राज्यों में चुनावों में ‘बूथ कब्जा करना’ आम बात होती थी, उन दिनों भी आक्रामक भीड़ चुनाव अधिकारियों या राजनीतिक दल के कार्यकत्र्ताओं को घेरकर इसी तरह मारा करती थी। आजाद भारत के इतिहास में ‘मॉब लिंचिंग’ का सबसे वीभत्स उदाहरण 31 अक्तूबर,1984 के बाद देखने को मिला जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बेकाबू कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं ने पूरे उत्तर भारत में सिख समुदाय के लोगों को बहुत निर्दयता से मारा, जलाया या लूटा। 

आजकल जो ‘मॉब लिंचिंग’ का शोर मच रहा है, उसके पीछे हाल ही के वर्षों में हुई घटनाएं प्रमुख हैं, जिनमें भाजपा से सहानुभूति रखने वाले हिंसकयुवा कभी गौरक्षा के नाम पर, कभी मंदिर के नाम पर या कभी देशभक्ति के नाम पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की जमकर कुटाई करते हैं, लूटपाट करते हैं, उनके नाम के साइन बोर्ड मिटा देते हैं और हत्या तक कर डालते हैं। चूंकि ऐसी घटनाएं देशभर में लगातार पिछले 4 वर्षों में बार-बार हो रही हैं इसलिए आज यह सर्वोच्च न्यायालय और सिविल सोसायटी की चिंता का विषय बन गया है। बावजूद इसके शिकायत यह है कि देश का टी.वी. और प्रिंट मीडिया इतने संवेदनशील मुद्दे पर खामोशी धारण किए हुए है जबकि इस पर लगातार तार्किकबहस होनी चाहिए क्योंकि इस तरह का आचरण मध्ययुगीन सामंतवादी बर्बर कबीलों का होता था।

19वीं सदी से लगभग सभी देशों में लोकतंत्र का पदार्पण होता चला गया। नतीजतन सामंतशाही की ताकत बिखरकर आम मतदाता के हाथ में चली गई। ऐसे में ‘मॉब लिंचिंग’ जैसे जंगली व्यवहार को अब कोई सामाजिक मान्यता नहीं है। पश्चिम एशिया के कुछ देश इसका अपवाद जरूर हैं जहां शरियत के कानून का सहारा लेकर ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी परिस्थितियों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। उदाहरण के तौर पर व्यभिचारिणी महिला को पत्थरों से मार-मारकर घायल कर देना, पर भारत जैसे सभ्य सुसंस्कारित समाज में ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी हिंसक गतिविधियों को कोई स्वीकृति प्राप्त नहीं है। हर अपराध के लिए स्पष्ट कानून है और कानून के मुताबिक अपराधी को सजा दी जाती है। इसमें अपवाद भी होते हैं, पर वे उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। आम जनता का विश्वास अभी भी न्यायपालिका में कायम है। 

इन परिस्थितियों में न्यायपालिका, राजनीतिक दलों और सामाजिक कार्यकत्र्ताओं के लिए और भी बड़ी चुनौती है कि  वे अपने पारदर्शी आचरण से ऐसा कुछ भी न होने दें जिसे ‘मॉब लिंचिंग’ की संज्ञा दी जा सके। पर यह कहना सरल है, करना कठिन। फिर भी एक सामूहिक प्रयास तो किया ही जाना चाहिए। फिर वह चाहे राज्य स्तर पर हो या केन्द्र स्तर पर। ‘मॉब लिंचिंग’ किसी एक सम्प्रदाय के विरुद्ध सीमित रह जाए, यह संभव नहीं है। अगर इसे यूं ही पनपने दिया तो जिसके हाथ में लाठी होगी, उसकी भैंस। फिर तो छोटी-छोटी बातों पर बेकाबू हिंसक भीड़ अपने प्रतिद्वंद्वियों, विरोधियों या दुश्मनों पर इसी तरह हिंसक हमले करेगी और पुलिस व कानून व्यवस्था तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे। 

इससे तो समाज का पूरा तानाबाना ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा और हम बर्बर जीवनशैली की ओर उलटे लौट पड़ेंगे। इसलिए हर उस व्यक्ति को जो किसी भी रूप में ‘मॉब लिंचिंग’ के खिलाफ आवाज उठा सकता है या माहौल बना सकता है, बनाना चाहिए। ‘मॉब लिंचिंग’ चाहे  सामंतवादियों की हो, ऊंची-नीची जात मानने वालों के बीच हो, विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच हो या फिर कांग्रेस, भाजपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस के राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के प्रतिनिधियों और विरोधियों के बीच हो, हर हालत में आत्मघाती ही होगी। इसे राजनीतिक स्तर पर भी रोकना होगा। एक सामूहिक राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, अन्यथा हालात बलूचिस्तान जैसे हो जाएंगे जहां केवल बंदूक का राज चलेगा। फिर लोकतंत्र और सामान्य सामाजिक जीवन भी खतरे में पड़ जाएंगे। 

सर्वोच्च न्यायालय अगर अपना रुख कड़ा किए रहे और राजनीतिक दल इसे अहमतुष्टि का मुद्दा न बनाकर तथा राजनीतिक स्वार्थों की परवाह न करके व्यापक समाज के हित में ‘मॉब लिंचिंग’ को रोकते हैं तो कोई वजह नहीं कि यह नासूर कैंसर बनने से पहले ही खत्म न हो जाए। अब तक मीडिया की जो खामोशी रही है खासकर टी.वी. मीडिया की, वह बहुत ङ्क्षचता का विषय है। टी.वी. मीडिया को वाह्यिात मुद्दे छोड़ नाहक की बहस में न पड़कर समाज को सही दिशा में ले जाने वाले मुद्दों पर बहस करनी चाहिए, जिससे समाज में इन कुरीतियों के विरुद्ध जागृति पैदा हो।-विनीत नारायण    
                 


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Pardeep

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