राज्यसभा से और अधिक खिलवाड़ करना बंद करें हमारे नेता

Tuesday, Mar 27, 2018 - 03:28 AM (IST)

हाल ही में सम्पन्न राज्यसभा के द्विवार्षिकचुनावों को राजनीतिक आई.पी.एल. भी कहा गया जिनमें राजनीतिक बेईमानी का पूर्ण प्रदर्शन किया गया। इन चुनावों में धोखा, बेईमानी और क्रॉस वोटिंग देखने को मिली। 

स्पष्ट है कि इस वोट नौटंकी ने बता दिया है कि राजनीतिक माया के राजनीतिक निर्वाण के लिए व्यापार किया जा सकता है। 16 राज्यों में राज्यसभा की 58 सीटें खाली हुई थीं जिनमें से 10 राज्यों में 33 उम्मीदवार निॢवरोध चुने गए और 6 राज्यों में 25 सीटों पर चुनाव हुए। कुल मिलाकर इन चुनावों में भाजपा ने 27 सीटों पर जीत दर्ज की। उसे 11 सीटों का लाभ हुआ। कल तक राजग राज्यसभा में अल्पमत में था, आज भाजपा राज्यसभा में कांग्रेस को पीछे छोड़कर अकेली सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। 

इन चुनावों में उलटा-पुलटा प्रदेश यानी उत्तर प्रदेश ने अपने नाम को सार्थक किया। राज्य में भाजपा ने 10 सीटों में से 9 सीटों पर जीत दर्ज की तथा गोरखपुर और फूलपुर में लोकसभा उपचुनाव में सपा-बसपा के हाथों मिली हार का बदला पार्टी ने चुकाया। यही नहीं, भाजपा ने अखिलेश और राहुल द्वारा समर्थित मायावती के उम्मीदवार को हराकर एक अतिरिक्त सीट पर जीत दर्ज की और उसके लिए उसने मतों का प्रबंधन व क्रॉस वोटिंग करवाई। देखना यह है कि क्या बुआ-भतीजे के बीच यह मैत्री 2019 के चुनावों तक जारी रहती है या नहीं। कर्नाटक में भी नौटंकी देखने को मिली जहां पर जनता दल (एस) द्वारा यह आरोप लगाने के बाद मतगणना रोक दी गई कि कांग्रेस के 2 विधायकों को 2 बार मतदान करने की अनुमति दी गई है किन्तुु राज्य में कांग्रेस 3 सीटों और भाजपा एक सीट पर जीत दर्ज करने में सफल रही। पश्चिम बंगाल में भी परिणाम आशानुरूप रहे। वहां पर तृणमूल के 4 उम्मीदवारों और कांग्रेस के अकेले उम्मीदवार की जीत हुई। 

राज्यसभा की सदस्यता में ऐसा क्या है जिसके चलते पार्टियां, उम्मीदवार, धन-बल, शक्तिशाली उद्योगपति, सत्ता के दलाल आज इतने सक्रिय हो जाते हैं। सभी सौदेबाजी और गुप्त सौदेबाजी, बेईमानी और धन-बल का प्रयोग करने से नहीं चूकते हैं। स्पष्टत: इसके पीछे सत्ता है। एक उद्योगपति के अनुसार मेरे पास सब कुछ खरीदने के लिए पैसा है किन्तु मैं सत्ता के साथ जुड़ी शक्ति नहीं खरीद सकता हूं। एक सांसद के रूप में मैं किसी भी मंत्री या अधिकारी के कमरे में जा सकता हूं और उन्हें मेरी बात सुननी पड़ेगी। मैं किसी भी मुद्दे को उठा सकता हूं और मांग कर सकता हूं तथा अपना प्रभाव छोड़ सकता हूं। 

इसके अलावा यह एक अच्छा निवेश भी है। एक बार राज्यसभा के लिए निर्वाचित होने पर प्रति वर्ष 5 करोड़ रुपए अर्थात 6 वर्षों में 30 करोड़ रुपए की सांसद निधि मिलती है और उसे अपनी मर्जी से खर्च किया जा सकता है। इसके लिए कोई निर्धारित निर्वाचन क्षेत्र नहीं है इसीलिए उच्च सदन सदस्यता खरीदने के लिए बदनाम हो रहा है। लोकसभा के चुनावों की तरह यह भी एक बड़ा व्यापार बन गया है। वोट खरीदने के लिए 20 करोड़ से 30 करोड़ रुपए तक चाहिएं। प्रति वोट 5 से 10 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। 

बसपा की सुप्रीमो मायावती ने कुछ वर्ष पूर्व सबसे ऊंची बोली लगाने वाले का राज्यसभा के लिए नाम निर्देशित कर इस तथ्य का खुलासा किया था और अपने सांसदों से कहा था कि वे अपनी सांसद निधि को पार्टी फंड के लिए दान दें इसीलिए प्रति वर्ष उच्च सदन के चरित्र और उसके सदस्यों की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। नेताओं के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा, पैसे और राजनीतिक संपर्कों को क्षमता, अनुभव व योग्यता से अधिक महत्व दिया जाता है। इसके अलावा राज्यसभा राज्यों की चिंताओं को उठाने व हितों की रक्षा करने की अपनी विशिष्ट भूमिका निभाने में विफल रही है और यह राजनीतिक सदन लोकसभा के समानान्तर और प्रतिस्पर्धी सदन के रूप में कार्य कर रहा है। अक्सर वहां भी शोर-शराबा और उपद्रव देखने को मिलता है तथा गंभीर वाद-विवाद राज्यसभा से भी दूर होने लगा है।

यदि आप समझते हैं कि उच्चतम न्यायालय इस स्थिति में सुधार कर सकेगा तो आप गलतफहमी में हैं क्योंकि न्यायालय ने निर्णय दिया है कि राज्यसभा का चुनाव लडऩे के लिए उम्मीदवार के लिए उस राज्य का निवासी होना अनिवार्य नहीं है, जहां से वह चुनाव लड़ रहा है और इसके चलते राज्यसभा चुनावों में सत्ता के दलालों और लोकसभा चुनाव में हारे प्रत्याशियों के लिए द्वार खुल गए हैं। वे अपने प्रभाव और पैसे का इस्तेमाल कर राज्यसभा की सदस्यता प्राप्त कर लेते हैं जिसके चलते गत वर्षों में सत्ता के दलालों व धन-बल के शोर-शराबे में राज्यसभा में राज्यों की आवाज खो गई है और राज्यसभा का स्वरूप बदल गया है। इससे प्रश्न उठता है कि दूसरे सदन की आवश्यकता ही क्या है।

दुर्भाग्यवश आज राज्यसभा का जो स्वरूप है उसकी स्थापना का उद्देश्य यह नहीं था। हमारे संविधान निर्माता चाहते थे कि लोकसभा की तुलना में राज्यसभा के सदस्य अधिक अनुभवी, योग्य और विद्वान हों। यह ऐसे योग्य लोगों को आवाज देने का मंच था जो राजनीतिक अखाड़े में नहीं उतर सकते थे किन्तु अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर वाद-विवाद में भाग लेना चाहते थे क्योंकि लोकसभा में ऐसा अक्सर देखने को नहीं मिलता है। समय आ गया है कि हमारे नेता राज्यसभा के साथ और खिलवाड़ न करें। संसद की सदस्यता को शासित करने वाले नियमों में बदलाव किया जाना चाहिए। कुछ लोगों का मत है कि राज्यसभा अभी भी सार्थक भूमिका निभा सकती है। जयप्रकाश एक दलविहीन राज्यसभा के पक्ष में थे। उनका मानना था कि राज्यसभा में ऐसे लोगों को ही चुना जाना चाहिए जो कम से कम एक कार्यकाल विधानसभा या लोकसभा में पूरा कर चुके हों और किसी भी व्यक्ति को राज्यसभा में 2 कार्यकाल से अधिक न दिया जाए।इसके अलावा क्या सदस्यों को नामित करने की परंपरा समाप्त नहीं की जानी चाहिए?

यह परम्परा इसलिए की गई थी ताकि विद्वान तथा साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा में विशेष ज्ञान व व्यावहारिक अनुभव वाले ऐसे लोगों को राज्यसभा में स्थान दिया जाए जो देश की दलीय राजनीति और सत्ता की राजनीति का सामना कर सकते हों। किन्तु प्रश्न उठता है कि अनिर्वाचित सदस्यों से देश के करदाताओं पर बोझ क्यों डाला जाए क्योंकि वे सत्ता पक्ष के चमचे बन जाते हैं या ऐसे सांसद बन जाते हैं जिनका उपयोग चुनाव के समय किया जाता है। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि इस सदन को समाप्त किया जाना चाहिए और विभिन्न सांसदों ने भी अलग-अलग समय पर ऐसी राय दी है। वस्तुत: 1949 में डा. अम्बेदकर ने स्वयं कहा था कि राज्यसभा को पूर्णत: प्रायोगिक आधार पर शुरू किया जा रहा है और इसको समाप्त करने का प्रावधान भी है। राज्यसभा के स्वरूप अैर चरित्र में सुधार की आवश्यकता है अन्यथा आने वाले दिनों में यह स्पष्ट हो जाएगा कि क्या यह सदन भारतीय राजनीति को और अधिक दुरूह व जटिल बनाने जा रहा है? कुल मिलाकर क्या हम अपनी अंतर्रात्मा को भ्रष्ट और दागी नेताओं के पास गिरवी रखने जा रहे हैं?-पूनम आई. कौशिश 
                

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