नाड़/पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिए रचनात्मक उपायों के साथ आगे आएं राज्य सरकारें

Thursday, May 31, 2018 - 03:46 AM (IST)

अप्रैल में गेहूं की फसल की कटाई के बाद नाड़ जलाने को लेकर पंजाब तथा हरियाणा के किसानों को 1000 से भी अधिक चालान जारी किए गए हैं। मगर ये आंकड़े एक कहावत की तरह हिमशैल के सिरे की तरह हैं। इन दोनों राज्यों तथा साथ लगते उत्तर प्रदेश में लाखों एकड़ जमीन पर गेहूं तथा धान की खेती की जाती है तथा साल में दो बार नाड़ तथा पराली जलाने की व्यापक प्रथा के कारण पर्यावरण के साथ-साथ मिट्टी की गुणवत्ता को भी बहुत नुक्सान पहुंच रहा है।

अप्रैल में गेहूं की फसल की कटाई के मुकाबले सॢदयों में धान की कटाई के बाद नाड़ जलाने की ओर अधिक ध्यान जाता है। नवम्बर-दिसम्बर में धान की कटाई तथा गेहूं की फसल होने के बीच मात्र लगभग 10 दिन के अंतराल के विपरीत धान की बुआई से पूर्व किसानों को लगभग 2 महीने का लम्बा समय मिलता है। इसलिए जहां गेहूं के अधिकतर खेतों में अप्रैल के अंत तक कटाई कर ली जाती है। किसानों को नाड़ तथा पराली को ठिकाने लगाने अथवा जलाने की कोई विशेष जल्दी नहीं होती। 

नवम्बर-दिसम्बर के दौरान जलते खेतों से उठने वाला धुआं धुंध के साथ मिलकर धूम-कोहरे (स्मॉग)का कारण बनता है। इसके परिणामस्वरूप दृश्यता कम होने के कारण हवाई, रेल तथा सड़क यातायात बाधित होता है और इसे मीडिया में प्रमुखता से स्थान दिया जाता है। गर्मियों में गर्म मौसम तथा हवा की औसत से अधिक रफ्तार यह सुनिश्चित करती है कि प्रदूषण फैलाने वाले कण तथा गैसें क्षेत्र के ऊपर इकट्ठी न हों। नाड़ को जलाने की समस्या तथा उसके परिणामस्वरूप पर्यावरण को होने वाला नुक्सान कुछ दशक पूर्व कम्बाइन हार्वैस्टर्स के आविष्कार के बाद शुरू हुआ। हार्वैस्टरों ने फसलों को काटने के लिए एक सस्ता तथा आसान विकल्प उपलब्ध करवाया। 

इसका दूसरा पहलू यह है कि पीछे 4 से 6 इंच लम्बे ठंडल (नाड़) रह जाते हैं क्योंकि ये मशीनें जमीन के स्तर पर फसल की कटाई नहीं कर सकतीं। बुआई के समय नाड़ रुकावट बन जाती है तथा किसान हाथों से खेतों में बुआई नहीं कर पाते। विकल्प यह होता है कि या तो नाड़ को मजदूर लगाकर काट दिया जाए जिस पर प्रति एकड़ लगभग 6000 रुपए की लागत आती है अथवा उसको केवल आग लगा दी जाए। स्वाभाविक है कि बाद वाले विकल्प को बेहतर माना जाता है। जुर्माने के प्रावधान के बावजूद खेतों में आग लगा दी जाती है। 

पश्चिमी जगत में भी कम्बाइन हार्वैस्टर्स को अपनाया गया है और विशालाकार खेत होने के कारण उन्होंने मशीनों से बहुत फायदा उठाया है। उन्होंने इसके बाद टर्बो हैप्पी सीडर (टी.एच.एस.) मशीनों को भी विकसित कर लिया है, जो न केवल नाड़ को काट कर जड़ से उखाड़ देती हैं बल्कि उसके बाद अगली फसल की बुआई भी करती हैं। इसके अतिरिक्त ये मशीनें नाड़ को काट कर उसका इस्तेमाल बोए गए बीजों को ढांपने के लिए करती हैं। भारत में खेतों का आकार छोटा है और कुछ अमीर किसानों के अतिरिक्त अन्य कम्बाइन हार्वैस्टर तथा टी.एच.एस. मशीन खरीदने बारे सोच भी नहीं सकते। जहां कई उद्यमियों ने कम्बाइन हार्वैस्टर किराए पर देने अथवा खड़ी फसल को एक शुल्क लेकर काटने का व्यवसाय शुरू किया है, वहीं उन्होंने टी.एच.एस. मशीनें शामिल करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है। यहां सरकार आसान ऋण जैसे प्रोत्साहन उपलब्ध करवाकर इन मशीनों का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु दखल दे सकती है। 

कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में पंजाब सरकार ने फसल के अवशेषों को बायो-ऊर्जा में बदलने के लिए 400 प्लांट लगाने हेतु चेन्नई की एक फर्म के साथ गत वर्ष एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए। अधिकृत सरकारी प्रैस रिलीज में कहा गया है कि प्लांट आगामी कटाई सत्र से पहले कार्यशील हो जाएंगे और नाड़ जलाने से पर्यावरण को बार-बार होने वाले नुक्सान से बचाएंगे। हालांकि जमीनी स्तर पर इसमें बहुत कम प्रगति हुई है। 

केन्द्र सरकार ने भी पंजाब में टी.एच.एस. को प्रोत्साहित करने के लिए कुल 665 करोड़ रुपए के खर्च को स्वीकृति दी है जिनमें से 395 करोड़ वर्तमान वर्ष के दौरान खर्च किए जाएंगे। धनराशि स्वीकृत करते हुए केन्द्र ने राज्य सरकार से 30 करोड़ रुपए जागरूकता फैलाने के लिए और बाकी की रकम टी.एच.एस. मशीनों पर सबसिडी देने हेतु खर्च करने को कहा है। मगर किसानों को सब्सीडाइज्ड मशीनें खरीदने के लिए राजी करने में सरकार को काफी कठिनाई आ रही है। पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक अधिकारी के अनुसार अब यह सब्सीडाइज्ड मशीनें खरीदने तथा इसकी सेवाएं किसानों तक पहुंचाने के लिए को-आप्रेटिव सोसाइटियों को लक्ष्य बनाने का प्रयास किया जा रहा है। 

टी.एच.एस. मशीनों के अतिरिक्त सरकार को रिवर्स प्लो, पैडी स्ट्रा चोपर/श्रेडर, मङ्क्षल्चग मशीनों, चोपर कटर-कम-स्प्रेडर तथा जीरो टिल ड्रिल जैसी मशीनों पर भी सबसिडी देनी चाहिए। यद्यपि किसानों के संगठनों का कहना है कि अधिकतर किसान पहले ही संकट में हैं। ये संगठन कृषि ऋणों की बढ़ती घटनाओं की ओर इशारा करते हैं, जिसका परिणाम छोटे तथा मंझोले किसानों की आत्महत्याओं के रूप में निकलता है। कम मार्जिन तथा मौसम के उतार-चढ़ाव किसानों को सबसे अधिक हानि पहुंचा रहे हैं जो इस ओर इशारा करते हैं कि यदि वे मशीनें खरीदने के लिए ऋण ले भी लेते हैं तो मशीनों की संचालन लागत उन पर अतिरिक्त बोझ डालेगी। 

कई संगठनों तथा विशेषज्ञों ने गेहूं-धान के चक्र को तोडऩे का सुझाव दिया है जिस कारण जमीन के नीचे पानी का स्तर भी कम हो रहा है मगर लाभकारी विकल्पों के अभाव में इस क्षेत्र में इस चक्र को तोडऩा कठिन होगा। तब तक विशेषज्ञों तथा राज्य सरकारों को नाड़ जलाने की समस्या तथा इससे वातावरण को होने वाले गम्भीर नुक्सान के साथ-साथ जमीन के पोषक तत्वों में होने वाली कमी से निपटने के लिए रचनात्मक समाधानों के साथ आगे आना होगा।-विपिन पब्बी

Pardeep

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