स्थायी समितियों को ओवरहाल करने की जरूरत

punjabkesari.in Friday, Oct 25, 2024 - 05:00 AM (IST)

135  से घटकर 55 हो गई! संसद की सालाना बैठकों की औसत संख्या पहली लोकसभा में 135 दिनों से घटकर 17वीं लोकसभा (2019-24) में 55 दिन रह गई है तो बचे हुए 300 दिनों में क्या होता है? स्थायी समितियां, जो अनुदानों की मांगों, विधेयकों,वार्षिक रिपोर्टों पर विचार करती हैं और रिपोर्ट देती हैं, तथा संबंधित विभाग/मंत्रालयों के राष्ट्रीय बुनियादी दीर्घकालिक नीति दस्तावेजों पर चर्चा करती हैं, वे समितियां हैं जहां संसद के सत्र में न होने के दौरान अधिकांश कार्रवाई होती है। दुर्भाग्य से, इन समितियों को उन सरकारों द्वारा कमजोर किया गया है जो विचार-विमर्श और बहस के लिए तैयार नहीं हैं। 

काफी देरी के बाद, हाल ही में 24 विभाग-संबंधित स्थायी समितियों (डी.आर.एस.सी.) का पुनर्गठन किया गया और उनके अध्यक्षों की नियुक्ति की गई। प्रत्येक डी.आर.एस.सी. में विभिन्न दलों के 31 सदस्य होते हैं, जिनमें से 21 लोकसभा से और 10 राज्यसभा से होते हैं (स्पष्ट करने के लिए, वक्फ विधेयक पर गहन विचार-विमर्श संयुक्त संसदीय समिति में हो रहा है इसे डी.आर.एस.सी. के साथ भ्रमित न करें।) प्रैस में जाने से पहले, इस बात पर परस्पर विरोधी राय है कि क्या सेबी जैसी नियामक संस्थाएं लोक लेखा समिति की जांच के दायरे में आ सकती हैं।

सभी गतिविधियों के बावजूद, स्थायी समितियां वैसा प्रदर्शन नहीं कर रही हैं जैसा उन्हें करना चाहिए। सामाजिक न्याय और अधिकारिता समिति को ही लेें : यह 3 महत्वपूर्ण मंत्रालयों अल्पसंख्यक मामले, जनजातीय मामले और सामाजिक न्याय और अधिकारिता की देखरेख करती है। फिर भी, 2023 में, कुछ सांसदों ने इसकी 16 बैठकों में से केवल एक या दो में भाग लिया। 24 समितियों में से केवल दो की अध्यक्षता महिलाएं कर रही हैं। महिलाओं की स्थिति में सुधार के उपायों की सिफारिश करने वाली एक प्रशासनिक समिति, महिला सशक्तिकरण पर स्थायी समिति, 18वीं लोकसभा के लिए अभी तक गठित नहीं की गई है। शिक्षा, महिला, बाल, युवा और खेल पर विभाग संबंधित स्थायी समिति में पिछले 2 दशकों में कोई महिला अध्यक्ष नहीं रही है। 15वीं लोकसभा में 10 में से 7 विधेयक समितियों को जांच के लिए भेजे गए थे। 17वीं लोकसभा में यह संख्या घटकर 5 में से सिर्फ एक रह गई। अब विधेयक औसतन 9 बैठकों में ही निपटाए जा रहे हैं, जबकि 3 आपराधिक कानून विधेयकों पर सिर्फ 12 बैठकों में चर्चा की गई। समितियों को गंभीरता से लिए जाने के लिए, उनकी रिपोर्ट को नियमित रूप से संसद में पेश किया जाना चाहिए और उन पर चर्चा की जानी चाहिए। 

संसद में रखे जाने वाले पत्रों पर स्थायी समिति ने रिपोर्ट पेश करने में लगातार हो रही देरी को बार-बार चिन्हित किया है। 2018 में, विदेश मामलों की समिति ने सत्तारूढ़ दल के सांसदों के विरोध के कारण डोकलाम मुद्दे पर अपने निष्कर्षों को महीनों तक रोके रखा था। जब उनसे पूछा गया कि क्या समिति की सिफारिशों को सरकार पर बाध्यकारी बनाया जाना चाहिए, तो पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और दिग्गज सांसद सोमनाथ चटर्जी ने जवाब दिया ‘नहीं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं चाहूंगा कि सरकार सिफारिश को स्वीकार न करने के लिए अच्छे कारण बताए।’ आपके स्तंभकार को लगता है कि ओवरहाल का समय आ गया है। 

यहां 5 विशिष्ट सुझाव दिए गए हैं:-
-नियमों के अनुसार, सरकार को 6 महीने के भीतर समिति की सिफारिशों पर जवाब देना होता है। इसे घटाकर 60 दिन किया जाना चाहिए, जैसा कि ब्रिटिश हाऊस ऑफ कॉमन्स में होता है।
-सांसद समितियों में सिर्फ एक साल के लिए काम करते हैं, जिससे लगातार फेरबदल होता रहता है और विशेषज्ञता की कमी होती है। अमरीकी कांग्रेस की स्थायी समितियों या केरल की विधानसभा से सीख लें, जिनका कार्यकाल 30 महीने का होता है। लंबा कार्यकाल बेहतर रहेगा।
-अर्थव्यवस्था की स्थिति की सालाना जांच करने के लिए राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर एक संसदीय समिति बनाई जानी चाहिए। रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए संसद के दोनों सदनों में अल्पकालिक प्रस्ताव शुरू किए जाने चाहिएं। इसके बाद मंत्री की ओर से जवाब दिया जाना चाहिए। 
-संघीय लोकतंत्र में, संविधान संशोधन विधेयक पारित करते समय संसद की जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती है। इसलिए, संविधान समिति की स्थापना की जानी चाहिए ताकि यह जांच की जा सके कि ये संविधान के विरुद्ध हैं या नहीं, तथा संविधान संशोधनों की विश्वसनीयता को मजबूत किया जा सके।
-बजट पूर्व जांच तथा अनुदानों की मांगों (डी.एफ.जी.) की उचित जांच को चुनावों के कारण दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए। 2014, 2019 तथा 2024 में लोकसभाओं के गठन के पश्चात डी.एफ.जी. को स्थायी समितियों को नहीं भेजा गया। 11वीं लोकसभा (1996) में स्थापित मिसाल का पालन किया जाना चाहिए।
कुछ पर्यवेक्षकों का सुझाव है कि समिति की बैठकों की कार्रवाई का सीधा प्रसारण संसद टी.वी. पर किया जाना चाहिए, जैसा कि संसदीय कार्रवाई का होता है। यह अच्छा विचार नहीं है। क्यों? यह किसी अन्य कॉलम का विषय है।-डेरेक ओ ब्रायन
(संसद सदस्य और टी.एम.सी. संसदीय दल (राज्यसभा) के नेता)         


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