फिजूलखर्ची बनता जा रहा है हमारा ‘गणतंत्र दिवस महोत्सव’

Thursday, Feb 16, 2017 - 12:31 AM (IST)

26जनवरी 1950 को जैसे ही भारत का संविधान अपनाया गया हमने विश्व मंच पर एक स्वायत्तशासी गणराज्य के रूप में प्रवेश किया। वह दिन और आज का दिन, हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है, यानी किहमारी स्वायत्तता का उत्सव। विभिन्न प्रदेशों और विभागों की गुंजायमान झांकियों की परेड निकाली जाती है  लेकिन  प्रमुखतया यह हमारी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन होता है। ध्यानपूर्वक अवलोकन करने पर आप पाएंगे कि 1991 में नई आर्थिक नीतियां अपनाए जाने के बाद यानी कि शासक वर्गों द्वारा देश की आर्थिक स्वायत्तता पर समझौता किए जाने के बाद गणतंत्र दिवस  महोत्सव अधिक से अधिक फिजूल खर्ची का रूप धारण करता जा रहा है। गत 3 दशकों के दौरान आर्थिक स्वायत्तता के साथ-साथ राजनीतिक स्वायत्तता पर भी समझौताकर लिया गया है और राजपथ पर गणतंत्र दिवस के जश्रोंपर होने वाली फिजूलखर्ची अपने चरम पर पहुंच चुकीहै।

सवाल पैदा होता है कि क्या दिखावे के जश्नों की बदौलत हमारी स्वायत्तता में कोई परिपक्वता आई है?  नव उदारवादी व्यवस्था के प्रचलन के बाद लिए गए फैसलों पर सरसरी तौर पर दृष्टिपात करने से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि शासक वर्गों ने हमारी स्वायत्तता  को परिलक्षित करने वाले संविधान की पटरी से सरकारों को उतार दिया है और इसकी बजाय उन्हें  विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व  व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) इत्यादि जैसे नव उदारवादी वैश्विक पूंजीवादी संस्थानों की पटरी पर चढ़ा दिया है। ये समझौते और फैसले राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कार्पोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और इन्हीं जैसे अन्य समूहों के स्वार्थों की पूर्ति हेतु वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संस्थानों  की प्रेरणा से ही लिए गए हैं।

वर्तमान नेतृत्व हालांकि यह दावा करता है कि गत 70 वर्षों के दौरान कुछ भी नहीं किया गया है। फिर भी इसने अपने कार्यकाल के मात्र अढ़ाई वर्षों केदौरान उल्लेखनीय तत्परता दिखाते हुए राष्ट्रीय स्वायत्तता के मामले पर समझौते किए। मौजूदा शासकों को शायददेश की स्वतंत्रता हासिल करने के लिए लोगों द्वारा किए गए संघर्ष और उनकी कुर्बानियों का कोई बोध ही नहीं है, इसीलिए उन्हें देश की स्वायत्तता खो जाने की कोई ङ्क्षचता नहीं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. नरसिम्हाराव, मनमोहन सिंह तथा सोनिया गांधी के मामले में भी यही समस्या थी। यही कारण है कि उन्होंने  देश के लिए स्वतंत्रता हासिल करने वाली पार्टी को एक ऐसे संगठन में बदल दिया है जिसने यह स्वतंत्रता गिरवी रख दी।

शासक वर्ग सैन्य शक्ति को देश की स्वायत्तशासी शक्ति के प्रतीक के रूप में प्र्रस्तुत करता है। अब जबकि रक्षा क्षेत्र में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो रहा है और अमरीकन कम्पनियों को हमारे रक्षा तंत्र में हस्तक्षेप करने की रियायतें प्रदान कर दी गई हैं तो शासक वर्गों द्वारा हमें दिलाया जा रहा स्वायत्तता का विश्वास झूठ और पाखंड के सिवाय कुछ नहीं। सरकारें, और खासतौर पर वर्तमान सरकार, लोगों को भ्रमित करने के लिए राष्ट्रवादी उन्माद भड़काती हैं ताकि वे देश की संवैधानिक स्वायत्तता के विरुद्ध किए जा रहे द्रोह को समझ ही नहीं पाएं। राष्ट्रवादी भावनाएं सामान्यत: पाकिस्तान के विरुद्ध भड़काई जाती हैं, जिसे पराजित करने  की क्षमता भारतीय सेना में हमेशा से मौजूद रहीहै। भारत का हजारों वर्ग किलोमीटर भू क्षेत्र चीन के कब्जे में है। इसे सैन्य कार्रवाई  के बूते वापस लेने के लिए तो हमारे शासक वर्ग कभी भी राष्ट्रवाद की भावनाएं नहीं भड़काते। समूचे तौर पर गणतंत्र दिवस की भव्य परेड शासक वर्गों, सिविल सोसायटी और साधारण जन समूहों के लिए स्वायत्तता के हनन  से पैदा हुई शून्यता को भरने की भारी-भरकम कवायद बन चुकी है।

जैसे-जैसे हमारी स्वायत्तता के गले में नव उदारवाद का फंदा कसता जा रहा है, उसी अनुपात में गणतंत्र दिवस  की फिजूलखर्ची बढ़ती जा रही है। अंध राष्ट्रवाद और भी अधिक प्रचंड होता जाएगा। स्थिति बहुत ही निराशाजनक और  उलझनों भरी है। लेकिन इसी में यह संभावना छिपी हुई है कि हम लम्बे संघर्ष के बाद अपनी स्वायत्तता को फिर से हासिल कर सकते हैं और इसे सुदृढ़ बना सकते हैं। खासतौर पर युवा वर्ग के लिए ऐसी संभावना मौजूद है। भारत के युवा किसी एक परिवेश से नहीं आते। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक जैसे कई  परिवेश हैं जो स्पष्ट रूप में चिन्हित किए जा सकते हैं। इन सभी परिवेशों में शिक्षित, अद्र्ध शिक्षित और अशिक्षित बेरोजगार युवाओं की भारी-भरकम फौज मौजूद है। राष्ट्र और इसमें अपनी स्थिति को लेकर युवाओं के भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्य हैं। देश की स्वायत्तता पर नव उदारवादी हमले के संबंध में भी जरूरी नहीं कि उनका दृष्टिकोण एक ही हो। वैसे अधिकतर युवा भारत को एक महाशक्ति के रूप में देखना चाहते हैं। कुछ तो सचमुच ही ऐसा मानते हैं कि भारत पहले ही एक महाशक्ति बन चुका है।

युवाओं को अवश्य ही यह समझना होगा कि जो राष्ट्र अपनी स्वायत्तता अपने हाथों से निकल जाने देता है वह कभी भी महाशक्ति नहीं बन सकता। वे इस पीड़ा दायक परिकल्पना का प्रयास कर सकते हैं कि भविष्य में गणतंत्र दिवस परेड में नव उदारवादी  संस्थान और प्राइवेट उद्यम अपनी-अपनी झांकियां प्रस्तुत किया करेंगे। युवाओं को अभी से सोचना होगा कि क्या यह स्थिति उन्हें स्वीकार्य होगी? क्या वे नव उदारवादी/नव साम्राज्यवादी राष्ट्र में हिस्सेदार बनना चाहेंगे? या फिर वे अपने कत्र्तव्य का निर्वाह एक स्वायत्तशासी भारतीय राष्ट्र में करना पसंद करेंगे? देश की स्वायत्तता केवल तभी बचाई जा सकती है यदि राष्ट्र के युवा इसे नई समझदारी और नई तैयारियों के बूते बचाने का दृढ़ संकल्प लें। 

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