नई संसद में विशेष सत्र बनाम  I.N.D.I.A. गठबंधन की अग्नि परीक्षा

punjabkesari.in Monday, Sep 18, 2023 - 04:11 AM (IST)

नई संसद में बैठक का श्री गणेश, गणेश चतुर्थी से होगा। अमृत काल में गणपति के जन्मदिन पर नई संसद की पहली बैठक ज्योतिष नहीं राजनीतिक भाषा में दुर्लभ संयोग होगा। सच है कि सत्तारूढ़ भाजपा इस मौके को भांजने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी। यकीनन नई संसद में विपक्षी एकता की टूटती कडिय़ों की बोहनी यानी शुरूआत एन.डी.ए. के लिए बेहद खास होगी। जब आप यह पढ़ रहे होंगे तो विशेष सत्र भी अपने मुकाम पर होगा। सत्र से थोड़ा पहले बैठक की खातिर एकाएक घोषित एजैंडे और आम-खास मुद्दों से इतर भटकती विपक्षी एकता की सरगर्मियां अंत तक रहेंगी। इस सच्चाई से इंकार नहीं कि विपक्ष के I.N.D.I.A गठबंधन की जुदा-जुदा राहें विशेष सत्र के दौरान उतनी आसान नहीं दिखेंगी जितनी 28 दलों की बैठक के बाद की एकजुट तस्वीरों में थीं। 

लोकसभा सचिवालय की तरफ से सत्र की खातिर एकाएक जारी बुलेटिन भी चौंकाने वाला रहा। कहा जा रहा था कि एजैंडे की कोई तय परंपरा नहीं है। अब जबकि एजैंडे की घोषणा हो चुकी है तो विपक्ष यह मानने को तैयार नहीं कि इससे हटकर कुछ नहीं होगा? एकजुटता के बीच विपक्ष की बड़ी चिंता यह है कि किस तरह वह अपना प्रदर्शन करे क्योंकि धरातल पर सब कुछ अलग और बंटा दिख रहा है। सनातन धर्म के मुद्दे पर डी.एम.के. नेता एम.के. स्टालिन बैकफुट पर भले ही चले गए हों लेकिन जिद नहीं छोड़ी। राजद जैसा दल जहां साथ है तो कांग्रेस में बंटी राय है। इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चौका मारते हुए सनातन मुद्दे पर अपना दबंग रुख दिखाया। मध्यप्रदेश की एक जनसभा में ये दावा किया कि सनातन धर्म ने ही महात्मा गांधी को छुआछूत प्रथा के खिलाफ लडऩे की प्रेरणा दी। वाकई इस विवाद को गांधी जी से जोड़कर प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे को राजनीतिक लिहाज से बेहद अलग लेकिन जबरदस्त बना दिया। 

अब उठ रहे सवाल ऐसे बयानों के बाद उठने ही थे। क्या सनातन धर्म ने जाति के पूर्वाग्रहों को बढ़ावा दिया या सामाजिक सुधारों की प्रेरणा को? ये स्टालिन के बयान के न केवल ठीक उलट है बल्कि ऐसी सोच पर करारा हमला भी। जाहिर है नई संसद में एकजुट विपक्ष के सामने खुद की ही बेवक्त खड़ी की गई चुनौतियां यकीनन परेशानी का सबब बनेंगी। राजनीतिक लिहाज से विपक्ष की स्थिति न उगलने, न निगल सकने वाली जैसी बनती जा रही है। बने भी क्यों न क्योंकि खुद के बुने जाल में फंसा विपक्ष एकजुटता को लेकर अलग-अलग बयानबाजियों से घिरता जा रहा है। वहीं विशेष सत्र में संविधान सभा से लेकर संसद के 75 वर्षों की यात्रा पर चर्चा को लेकर विपक्ष खासकर कांग्रेस परेशान होगी। पता नहीं सरकार द्वारा कैसा चित्रण किया जाएगा? उपलब्धियों, अनुभवों, स्मृतियों और सीख की नसीहत होगी या केवल तब के लंबे वक्त तक सत्तारूढ़ दल और आज की बेहद कमजोर कांग्रेस के नेतृत्व पर भी यहां छींटाकशी होगी? 

विशेष सत्र में राज्यसभा में पारित एडवोकेट संशोधन विधेयक-2023, प्रैस और आवधिक पंजीकरण विधेयक-2023 पर चर्चा होगी जिसका लोकसभा में पारित होना बाकी है। डाकघर विधेयक-2023 पर चर्चा होगी। यदि विपक्ष इन पर आक्रामक नहीं भी रहा तब भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़े सेवा शर्त विधेयक 2023 पर भला चुप कैसे रहेगा? यह विधेयक बीते सत्र में राज्यसभा में विधि व न्याय मंत्री अर्जुन मेघवाल पेश कर चुके हैं। इसमें मुख्य निर्वाचन आयुक्त और आयुक्तों के चयन हेतु कमेटी में मुख्य न्यायाधीश की जगह एक कैबिनेट मंत्री को शामिल करना प्रस्तावित है। इसके प्रमुख खुद प्रधानमंत्री होंगे। लोकसभा में नेता विपक्ष सदस्य तो होंगे लेकिन यदि कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं होगा तो सदन में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को ही प्रतिपक्ष माना जाएगा। विपक्ष को इसी पर आपत्ति होगी क्योंकि विधेयक पास होने के बाद मुख्य न्यायाधीश की गैर मौजूदगी में चुनाव निकाय एक तरह से प्रधानमंत्री के हाथों की कठपुतली बन जाएगा? निश्चित रूप से विपक्ष यहां भी लोकतंत्र की दुहाई देगा और कई आरोप लगाएगा। 

कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और टी.एम.सी. ने तो तुरंत प्रतिक्रिया जाहिर कर दी है। बाकी विपक्ष की इसी नक्शे कदम पर चलना मजबूरी होगी। लेकिन सवाल यही कि उनकी बातें कितनी सुनी जाएंगी? विपक्ष अपनी कितनी मजबूती दिखा पाएगा?
अन्य मुद्दे भी उठेंगे। शायद I.N.D.I.A.  बनाम भारत का मुद्दा न भी उठे। जब राष्ट्रपति के आमंत्रण, प्रधानमंत्री की टेबल, और संघ प्रमुख द्वारा अपने-अपने स्तर पर भारत को मान्यता दी जा चुकी है तो यह मुद्दा खास नहीं होगा। वन-नेशन, वन इलैक्शन बाद के लिए टाल भी दिया जाए लेकिन जी-20 घोषणा-पत्र की कामयाबी, चंद्रयान-3 की सफलता की चर्चा अटक कर सत्तारूढ़ दल करेगा। वाकई विपक्षी गठबंधन के 28 दलों के लिए विशेष सत्र में बहुत ही असमंजस वाली स्थिति होगी।

जहां देश के आम चुनाव ज्यादा दूर नहीं वहीं कई राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। हर राज्य में क्षेत्रीय दलों की अलग-अलग पकड़ है। ऐसे में सीट बंटवारे पर आम सहमति बनना तो दूर उल्टा चुनाव लडऩे की घोषणाएं एकता पर सवाल उठाती हैं। ऐसी उलझनों के बीच नई संसद में विपक्षी हैसियत और एकजुटता कितनी दमदार होगी? कहीं ढ्ढ.हृ.ष्ठ.ढ्ढ.्र  गठबंधन की असल परीक्षा भी इसी सत्र में तो नहीं हो जाएगी?-ऋतुपर्ण दवे    


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