आज जन्म दिन पर विशेष- दलितों के मसीहा बाबू कांशीराम

Thursday, Mar 15, 2018 - 02:04 AM (IST)

दुनिया भर में अलग-अलग समय पर दुखों-मुसीबतों के विरुद्ध बड़े स्तर पर संघर्ष होते रहे हैं। इन संघर्षों में से अनेक बड़े नेता उभर कर सामने आते रहे हैं जैसे दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध नेल्सन मंडेला, अमरीका में अब्राहम लिंकन एवं मार्टिन लूथर किंग। भारत में भी जात-पात, छुआछूत तथा नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध बाबा साहेब भीम राव अम्बेदकर ने बड़े पैमाने पर संघर्ष किया और इस संघर्ष की बदौलत वह भारत में ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में दलित नेता के रूप में विख्यात हुए। 

अम्बेदकर की मृत्यु के लगभग 15 वर्ष बाद तक भारत में कोई भी राष्ट्र स्तरीय दलित नेता सामने नहीं आया। छोट-मोटे जो नेता दलित समाज में से उठे, वे या तो किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल हो गए या फिर राजनीतिक पार्टियों ने उनके संघर्ष को तारपीडो करके अपनी पार्टी में मिला लिया। लेकिन बाबू कांशीराम एक अलग तरह के दलित नेता सिद्ध हुए। उनका जन्म 15 मार्च 1934 को अपने ननिहाल पृथीपुरा (नंगल) जिला रोपड़ में हुआ था। उनका अपना पुश्तैनी गांव ख्वासपुर (रोपड़) था। वे कुल 7 भाई-बहन थे, जिनमें से कांशीराम सबसे बड़े थे। उन्होंने प्राइमरी तक की शिक्षा गांव के ही स्कूल से ग्रहण की और उच्च शिक्षा रोपड़ से हासिल की। 1954 में ग्रैजुएशन करने के बाद 1968 में वह डिफैंस रिसर्च एंड डिवैल्पमैंट आर्गेनाइजेशन (डी.आर. डी.ओ.), पुणे में सहायक वैज्ञानिक के रूप में भर्ती हो गए।

उस समय बाबा साहेब अम्बेदकर के आंदोलन का काफी असर था। इसी दौरान डी.आर.डी.ओ. का एक कर्मचारी दीनाभान, एक दलित नेता के रूप में अपने साथी कर्मचारियों के साथ मिलकर डा. अम्बेदकर के जन्मदिवस की छुट्टी बहाल करवाने के लिए संघर्ष कर रहा था। कांशीराम भी इस आंदोलन से जुड़ गए। अंतत: दीनाभान के नेतृत्व में उनका संघर्ष विजयी हुआ। इसके बाद उन्होंने बाबा साहेब की विचारधारा का अच्छी तरह अध्ययन किया और 1971 में लगभग 13 साल की नौकरी के बाद इस्तीफा दे दिया। वह बाबा साहेब के मिशन को आगे बढ़ाने हेतु संघर्ष में कूद पड़े। उन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी (बी.एस.पी.) के नाम से राजनीतिक संगठन का गठन किया और समस्त भारत में चुनाव लडऩे का बिगुल बजा दिया। 

उन्होंने जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक प्रचार और संघर्ष किया और देश की सभी राजनीतिक पार्टियों का पसीना छुड़ा दिया। 1993 में यू.पी. में पहली बार बहुजन समाज पार्टी के 67 विधायक अपने दम पर जीत हासिल करने में सफल रहे और पार्टी का खूब बोलबाला हो गया। यू.पी. बसपा की कमान उन्होंने कुमारी मायावती के हवाले की। कांशीराम की बदौलत ही मायावती यू.पी. की प्रथम दलित मुख्यमंत्री बनीं। बाबू कांशीराम स्वयं भी 1991 और 1996 में दो बार सांसद रहे।

कांशीराम अपने मिशन में इतने तल्लीन हो गए कि अपने शरीर की परवाह तक नहीं की। बीमार होने के बावजूद उन्होंने संघर्ष जारी रखा। धीरे-धीरे बीमारी बढ़ती गई और 2003 में उनकी हालत बहुत ही खराब हो गई। आखिर 9 अक्तूबर 2006 को दिल का दौरा पडऩे के कारण उनकी मृत्यु हो गई और दलित समाज अपने मसीहा से वंचित हो गया। बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर के बाद कांशीराम ही ऐसे दलित नेता हैं जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर याद किया जाता रहेगा।-गुरचरण सिंह रामगढ़

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