‘सपा परिवार’ के विवाद ने बढ़ाई मुलायम की चिंता

Friday, Aug 19, 2016 - 12:57 AM (IST)

(कल्याणी शंकर): समाजवादी पार्टी में सार्वजनिक झगड़ों को देखते हुए लगता है कि उत्तर प्रदेश के पहले परिवार में सब कुछ ठीक नहीं है। महज कुुछ ही महीने पूर्व पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के परिवार में इस तरह के झगड़े अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में इसके अवसरों को क्षति पहुंचा सकते हैं। यह देश में सबसे बड़े राजनीतिक परिवारों में से एक है, जिसके कम से कम 20 सदस्य हैं, जिनमें पुत्र, पुत्रवधुएं, चाचा तथा भतीजे आदि किसी न किसी सरकारी पद पर विराजमान हैं। 

 
यह स्पष्ट नहीं है कि क्यों मुलायम ने अपने बेटे अखिलेश को साढ़े 4 वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री बनाया था, जब उन्होंने अपने नाम पर वोट मांगे थे और विजय प्राप्त की। कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और शिवसेना सुप्रीमो दिवंगत बाल ठाकरे सहित कुछ ऐसे नेता भी हैं या थे, जो ऐसे मामलों से अच्छी तरह से निपट सकते थे। इस सबके साथ मुलायम को परिवार तथा पार्टी के भीतर सब कुछ सामान्य बनाने के लिए एक बेहतरीन संतुलन बनाना पड़ेगा। 
 
जब अखिलेश यू.पी. के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने तो इस बात की चर्चा थी कि राज्य में ‘साढ़े 4 मुख्यमंत्री’ हैं-4 हैं उनके पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा राम गोपाल व शिवपाल और मुलायम के नजदीकी सहयोगी आजम खान। अखिलेश आधे मुख्यमंत्री हैं। जिस दिन से उन्होंने पदभार संभाला है, किसी न किसी मामले को लेकर अन्य 4 मुख्यमंत्रियों में आधे मुख्यमंत्री को लेकर कोई न कोई झगड़ा चलता रहता है। अपने कार्यकाल के अंत तक पहुंचने वाले अखिलेश अभीतक खुद को साबित करने में सफल नहीं हुए। मुलायमसिंह ने अभी तक पार्टी के शीर्ष बारे कोई खुलासा नहींकिया है, जिससे मुख्यमंत्री के अधिकार का क्षरण हो रहा है।
 
मुलायम को काफी चिन्ता होनी चाहिए क्योंकि पार्टी एक बार फिर सत्ता के लिए दाव लगा रही है। सत्ताधारी पार्टी के लिए सब कुछ ठीक नहीं दिखाई दे रहा क्योंकि समाजवादी पार्टी के शासन को लेकर लोगों के मन में उदासीनता पैदा हो रही है। 
 
प्रथम परिवार में लगातार चलते विवादों के कारण कार्यकत्र्ता दुविधा में हैं। बसपा बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है और मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने के लिए मुसलमानों को लुभाने का प्रयास कर रही हैं। यदि वह सफल होती हैं तो यह सत्ताधारी पार्टी के लिए एक करारा झटका होगा। समाजवादी पार्टी हमेशा से मुस्लिम व यादव वोटों पर निर्भर रही है। 2014 के लोकसभा चुनावों में शानदार विजय से उत्साहित भाजपा, जिसने यहां 80 में से 71 सीटें हासिल की थीं, अच्छी कारगुजारी दिखाने के लिए हर तरह का प्रयास कर रही है। 
 
अखिलेश तथा मुलायम सिंह के भाई शिवपाल सिंह यादव के बीच वर्तमान खींचतान पार्टी की वास्तविक स्थिति को प्रदçàæüत करती है। जहां पार्टी के झगड़़ों को छिपाकर रखा गया था, ये गत सप्ताह उस समय सार्वजनिक हो गए, जब एक सार्वजनिक मंच से बोलते हुए शिवपाल सिंह ने इस्तीफा देने की धमकी दे डाली। अगले ही दिन मुलायम सिंह उनके बचाव में उतर आए और मुख्यमंत्री को डांट पिला दी। स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने के कार्यक्रम के दौरान मुलायम ने आरोप लगाया कि शिवपाल सिंह के खिलाफ षड्यंत्र रचा जा रहा है। सपा सुप्रीमो ने कहा,‘‘शिवपाल सिंह कड़ी मेहनत कर रहे हैं। 
 
कुछ लोग उनके खिलाफ हैं। यदि वह छोड़ते हैं तो पार्टी के लिए स्थिति खराब बन जाएगी। आधे लोग उनके साथ चले जाएंगे।’’ उन्होंने अपने बेटे को चापलूसों से भी सतर्क रहने को कहा। अत: बिल्ली अब थैले से बाहर आ गई है। मुलायम के भतीजे रामगोपाल यादव भी खुद को दरकिनार किया गया महसूस करते हैं। 
 
वर्तमान झगड़ा शिवपाल द्वारा 21 जून को माफिया डॉन मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल (क्यू.ई.डी.) के साथ पार्टी के विलय की घोषणा के बाद उत्पन्न हुआ है। उस समय अखिलेश राज्य की राजधानी में नहीं थे। मुख्यमंत्री चाहते हैं कि सपा मुख्तार से दूरी बनाए रखे, जो गंभीर आपराधिक मामलों में जेल में बंद हैं। मुख्यमंत्री ने 2012 के विधानसभा चुनावों से पूर्व माफिया से राजनीतिज्ञ बने डी.पी. यादव को पार्टी में शामिल किए जाने पर भी इसी तरह का सख्त रवैया अपनाया था। क्यू.ई.डी. का उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्सों में प्रभाव है। 
 
मुलायम द्वारा अपने बेटे के दबाव के चलते हथियार डाल देने से सपा संसदीय बोर्ड ने 25 जून को विलय के मामले को खारिज कर दिया। इससे उनके चाचा को बहुत चोट पहुंची। अखिलेश ने उस मंत्री को भी बर्खास्त कर दिया, जिसने विलय को सफल बनाने में भूमिका निभाई थी, मगर कार्रवाई रद्द होने के बाद उसे फिर बहाल कर दिया गया। इन दो महीनों के बीच क्या हुआ, यह नहीं पता मगर अब मुलायम सिंह के आशीर्वाद से सपा क्यू.ई.डी. को गले लगाने के लिए पूरी तरह से तैयार है। 
 
परिवार में राजनीतिक मतभेद पहले दिन से ही सुलग रहे थे। एक समूह चाहता था कि मुलायम राज्य की बागडोर संभालें, जब उन्होंने अखिलेश को मुख्यमंत्री नियुक्त किया था। शिवपाल सिंह ने मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा पाल रखी थी और दूसरे दर्जे की भूमिका निभाने में खुद को असहज महसूस कर रहे थे। 
 
दूसरे, ऐसा पहली बार नहीं था कि मुलायम को अपनी राजनीतिक कार्रवाइयों को लेकर समस्याओं का सामना करना पड़ा। इससे पहले जब शिवपाल राष्ट्रीय लोकदल को लुभा रहे थे तो रामगोपाल यादव ने सार्वजनिक तौर पर इसका विरोध किया था, जिसके परिणामस्वरूप यह कार्रवाई छोडऩी पड़ी। यहां तक कि अमर सिंह को राज्यसभा टिकट देने का भी रामगोपाल यादव तथा आजम खान दोनों ने विरोध किया था। अखिलेश भी इसे लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे। 
 
तीसरे, इस तोल-मोल में प्रशासन भी प्रभावित हुआ क्योंकि आम तौर पर अखिलेश पर किसी न किसी अधिकारी की नियुक्ति का दबाव रहता था। अधिकारी भी जानते थे कि उन्हें अपनी पोस्टिंग करवाने में परिवार के किसी न किसी सदस्य का सहारा मिल जाएगा। कुछ तो मुलायम सिंह यादव की सरपरस्ती हासिल करने के लिए सीधे उन तक पहुंच गए।
 
ऐसी स्थिति में मुलायम के लिए यह दिखाना आवश्यक बन जाता है कि पार्टी में एकता है और सब कुछ ठीक है मगर वह ऐसा कैसे करेंगे, जब सब कुछ ठीक नहीं है। यह उनकी दुविधा है। समय तथा उम्र उनके पक्ष में नहीं हैं और इसलिए सपा प्रमुख निराश हैं। समस्या यह है कि उन्हें अपने सभी पारिवारिक सदस्यों, पार्टी नेताओं तथा सभी सपा कार्यकत्र्ताओं का चुनावों के  समय में समर्थन चाहिए, जब एक बड़ी लड़ाई जीतनी है। क्या वह ऐसा करने में सक्षम होंगे?  
 
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