खेतविहीन गांवों के निवासियों की व्यथा

punjabkesari.in Saturday, Dec 29, 2018 - 04:35 AM (IST)

झारखंड की सरकार ने गोड्डा के आदिवासियों के गांव माली की जमीनें एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी को विकास के लिए उपलब्ध करा कर निवेशकों को सहूलियत पहुंचाने का काम किया है। नतीजतन कम्पनी के कर्मचारियों ने खेतों में खड़ी फसलों को तबाह कर जमीन कब्जाने का काम कुछ ऐसे अंजाम दिया जैसे यह उनका जन्म सिद्ध अधिकार हो। मूक और बेबस संथाली आदिवासी उनके पैर पकड़ते और हाथ जोड़ते रह गए। 

इस मामले में सोशल मीडिया में तस्वीरों के साथ तरह-तरह की बातें चल रही हैं। यह सुदूर देहात का एक ऐसा मामला है जहां से खबरें आसानी से महानगरों के मीडिया तक नहीं पहुंचती हैं। अब इस गांव के लोग खेतविहीन हो गए हैं। कैसी अद्भुत बात है कि विकास के पहिए को गति देने हेतु गांववासी, आदिवासी अब शहरवासी होने जा रहे हैं। प्रकृति के साथ जीने वाले आदिवासियों पर आजादी और विकास थोपना भी खूब है! 

दिल्ली के निकट स्थित गुडग़ांव अब गुरुग्राम हो गया है। नाम से भले ही पुराना लगे, पर है एकदम नवीन। ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं की ऐसी भव्यता पैरिस और रोम को भी मात देती है। यह सारा विकास उसी खेती की जमीन पर हुआ, जो कभी सोना उगलती थी। इन खेतों को आलीशान अट्टालिकाओं में तबदील करना इतना मुश्किल नहीं रहा, जितना उन आदिवासियों के खेतों को, जो पढ़े-लिखे लोगों की भाषा तक नहीं जानते। उनकी बोलियां प्रकृति के साथ सुर मिलाने में आज भी सक्षम हैं। 

बदहाली अधिक दूर नहीं
गुरुग्राम के ग्रामीणों ने तो विकास को आमंत्रित कर नागरिक बनने का भरसक प्रयास किया, भले ही अब उन खेत मालिकों के गांव अविकसित और पिछड़े दिखते हों। विकास की इन मीनारों से ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, बदहाली और दुर्गंध से भरा क्षेत्र भी स्पष्ट दिखता है। फरीदाबाद की स्थिति भी ठीक वैसी ही है। गाजियाबाद और गौतमबुद्धनगर, जिसे नोएडा कहते हैं, उत्तर प्रदेश का दिल्ली से सटा क्षेत्र है। दशानन रावण तक से जुड़े गांव इस क्षेत्र में मिलते हैं। स्थानीय लोग इन क्षेत्रों में कभी खेती-किसानी के बूते ही जीते थे जो विकास की सभ्यता का ऐसा शिकार हुए हैं कि हिम्मत ही नहीं रही अपने ही गांव की संस्कृति को याद करने की। 

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में तीन सौ से ज्यादा गांवों के होने का भूगोल तो नष्ट हो चुका है, पर इतिहास अब भी शेष है। इन गांवों में कभी खेत-खलिहान और कुएं, तालाब ही नहीं, बल्कि पंचायतें तक होती रहीं। 80 के दशक में सरकार ने इन पंचायतों में होने वाले चुनावों पर रोक लगाने का फरमान जारी किया। बिना किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाए इन 3-4 दशकों में इन ग्राम पंचायतों की गतिविधियां ठप्प हैं। फलत: नई पीढ़ी के लोगों के लिए पुरानी बातें ही नई होंगी। बाहरी दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रदूषण और बदहाली इस कदर हावी है कि दिल्ली की आला दर्जे की सरकारें इन्हें हरियाणा और उत्तर प्रदेश बता कर पिंड छुड़ा लेती हैं। देश के तमाम शहरी क्षेत्रों के गांवों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है।

फैलते शहर, सिकुड़ते गांव 
जाने-माने विद्वान आशीष नंदी कहते हैं कि गांव और शहर एक साथ ही शुरू हुए, पर आज शहर फैल रहा है और गांव सिकुड़ रहा है। खेतविहीन गांव नगरीकरण की राह का बेहद हसीन मोड़ है। इस मोड़ पर आकर गांव की परिभाषा तक बदल जाती है। जहां कहीं इनके चहुं ओर खेतों की हरियाली होती थी, वहीं अब विशालकाय अट्टालिकाएं हैं। रही-सही कसर फैक्टरियों और कारखानों से पूरी होती है। इस अवस्था पर विकासवाद के प्रणेता की खुशी लाजिमी है। यह आंधी के उसी झोंके को याद दिलाती है, जिसने पत्तियों को अपनी शाख से जुदा करने के लिए मेहनत की थी। इस विकास की अंधी दौड़ में आज ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों के लोग भी इस मोड़ पर खूब इतरा रहे हैं। लैफ्ट, राइट और सैंटर के तमाम कुशल पंडित अपने-अपने तरीके से इसी राजनीति को अमलीजामा पहनाने में लगे हैं। सिंहासन भी उसी का चरण चूमता है, जो ऐसा करने में कोई चूक नहीं करे। 

भोजन की जरूरत नहीं बदली
देश बदल रहा है। अब तो इंडिया भी नियो इंडिया हो रहा है। लोग भी बदल रहे हैं। पर एक ऐसी जरूरत जो बदलाव से दूरी कायम रखे हुए है, वह है भोजन की। बड़ी अजीब बात है कि हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की तमाम योजनाओं को मूर्तरूप देने वाले आज ऑर्गैनिक पदार्थों की मांग करते हैं। शहरों की घनी आबादी को गांव के खेत-खलिहानों से इनकी आपूर्ति होती थी। अब सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भी गांव खेतविहीन हो गए हैं। किसानी करने वालों के सामने पेशा बदल कर ही जीवन सहेजने का मार्ग शेष बचा है। कभी यहां अस्सी फीसदी लोग किसान थे, पर 2011 की जनगणना में कुल आठ फीसदी किसान पाए गए। अब हर साल लाखों किसान अपना पेशा बदल रहे हैं। खेतविहीन होते गांवों का यह असली प्रमाण पत्र है। इसका परत-दर-परत ब्यौरा दिलो-दिमाग पर दीर्घकालिक असर डालने वाला है। 

महात्मा गांधी के समय में कच्चा माल ब्रिटेन की फैक्टरियों में भेजा जाता था। वहां से कपड़े और दूसरी चीजें तैयार होकर भारतीय बाजारों में पहुंचती थीं। आजादी के दीवाने इसे गुलामी का प्रतीक मानते और इन कपड़ों की होली जला कर विरोध करते थे। क्या मेक इन इंडिया के युग में लोग स्वावलम्बन का सूत्र भूल गए? सच तो यह है कि पढ़े-लिखे लोगों के बीच इसे भूलने का ककहरा ही साक्षरता माना जाता है। हाल में हुए किसानों के आंदोलनों का इस वर्ग पर कोई असर ही नहीं पड़ा। इनकी मान्यता है कि अमरीका और कनाडा जैसे देशों से किसानों के उत्पाद का आयात करना आसान है। उपभोक्तावाद के इस युग में खाद्यान्नों का आयात तो हो ही रहा है। सरकार और समाज दोनों तहेदिल से इसी विकास के नाम पर सब कुछ सौंपने में लगे हैं। फलत: आने वाला समय खेतविहीन गांवों का ही होगा।

माली गांव के संथाल आदिवासी अपने खेतों का मुआवजा लेने के बदले विरोध करते हैं। उन्हें पता है कि एक बार अपनी शाख से जुदा होने की जरूरत होती है, शेष काम करने वाली शक्तियां पहले से सक्रिय हैं। अंडेमान के जाड़वा आदिवासी पढ़े-लिखे नहीं हैं, लेकिन 2004 की सुनामी के आने से पहले उन्हीं पेड़ों पर चढ़े, जिन्हें नष्ट करना उन विनाशकारी लहरों के बूते की बात नहीं थी। अब वह दिन भी दूर नहीं रहा, जब प्रकृति के साथ जीवन जीने की कला सिखाने के लिए कोई विद्वान हार्वर्ड और कैम्ब्रिज से आएगा। इस समस्या का मूल विस्थापन की समस्या है। विकासवादियों को शेष बचे खेत-खलिहान वाले गांव के भोले-भाले लोगों को शहरी नागरिक बनाने से बचाने के लिए उनकी ओर से मुंह फेर लेना चाहिए।-कौशल किशोर


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Pardeep

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