एक राष्ट्र-एक चुनाव पर कुछ सवाल
punjabkesari.in Thursday, Sep 07, 2023 - 05:53 AM (IST)

कांग्रेसी नेता अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि उनके मांगने पर उनको ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ संबंधी कमेटी से जुड़े कागजात नहीं दिए गए इसीलिए उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता वाली इस कमेटी का सदस्य बनने से इंकार किया। उनके कहने को उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए जिस गंभीरता से सरकार इस प्रस्ताव को बढ़ा रही है या समय-समय पर बढ़ाती रही है। पर उनके हटाने के फैसले में भी उतना ही झोल है जितना इस प्रस्ताव को बार-बार रखने और खामोश हो जाने में है।
जिस अंदाज में एक ट्वीट से इस बार की शुरूआत हुई और एकाध को छोड़कर लगभग सारे न्यूज चैनलों ने ‘समझ’ लिया कि संसद का विशेष सत्र एक राष्ट्र एक चुनाव का फैसला करने के लिए बुलाया जा रहा है वह भी कम बड़ा झोल न था। उस समय की चर्चाओं में भाजपा के प्रवक्ता तक कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे और जिस तरह से इस काम के लिए चार या 5 संविधान संशोधनों की जरूरत होगी, संसद के दोनों सदनों में बहुमत ही नहीं दो तिहाई बहुमत और आधे राज्यों से मंजूरी की जरूरत होगी, यह काम 5 दिन के सत्र में संभव नहीं लगता। पर जब एक पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में भारी-भरकम कमेटी बना दी गई हो आधे राज्यों में भाजपा या एन.डी.ए. की सरकारें हों और सरकार द्वारा संसद में अपने मन के प्रस्ताव पास कराने का रिकार्ड, सब कुछ यह भी बताता है कि यह असंभव स्थिति भी नहीं है और तकनीकी मजबूरी या मजबूती से ज्यादा राजनीतिक महत्व के हिसाब से भी इसको अभी लाने का तर्क समझ आ रहा है।
भाजपा की तैयारी, संसाधन, चुनाव लडऩे का कौशल और सबके ऊपर नरेंद्र मोदी जैसा भारी-भरकम चेहरा उसे इस प्रणाली से या इसके एक हिस्से की अभी शुरूआत करा देने से भी लाभ की स्थिति में ला देगी। जिन 5 राज्यों के चुनाव अगले 2-3 महीनों में होने हैं या उनके चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ या उससे पहले होने हैं उन सब में भाजपा मजबूत नहीं है और सब में उसे नरेंद्र मोदी की छवि का ही सहारा दिखता है। राजस्थान में स्थिति अलग है तो वसुंधरा राजे को आगे करना मोदी-शाह की सेहत के लिए अच्छी बात नहीं है। ऐसे में साथ चुनाव कराने या दो हिस्सों में चुनाव कराने का तर्क समझ आता है। अगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की विधानसभा को समय पूर्व भंग करके भाजपा का अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का तर्क समझ नहीं आता तो खर्च घटाने, सरकारी कामकाज में बार-बार चुनाव से होने वाली परेशानियों की बात मतदाताओं के एक समूह को भाती है।
और ऐसा भी नहीं है कि पहले इस तरह के चुनाव नहीं हुए हैं। 1967 तक चार चुनाव तो साथ-साथ हुए हैं फिर विधानसभाओं को असमय भंग करना और फिर लोकसभा के कार्यकाल से भी छेड़छाड़ शुरू हुई तो आज वाली नौबत आ गई है और असमय विधानसभाओ को भंग कराके राज्यों में असमय चुनाव कराना हो या लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाना या फिर मध्यावधि चुनाव कराना सब कानून के दायरे में या कानून बदल कर ही हुए हैं और प्रत्येक के लिए राजनीतिक तर्क दिया जाता था। पर अनुभव यह भी बताता है कि जब लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ होते थे तब हमारे सांसद बिना कुछ किए धरे विधानसभा उम्मीदवारों के श्रम और पार्टी के नाम पर जीत जाते थे और 5 साल दर्शन दुर्लभ हो जाते थे।
अब कोई सांसद ऐसे गायब रहकर नहीं जीत सकता और सारी तत्परता धनबल और सांसद निधि के खर्च के बावजूद हर चुनाव में आधे लोग जनता के पैमाने पर खरा न होने के चलते हार जाते हैं। इस बार तो लोकसभा विधानसभा के साथ पंचायतों और स्थानीय निकाय चुनाव की बात है। इसमें तो और उलटा लोकतंत्र स्थापित होगा सारा काम निचले स्तर के लोगों पर और सारी मौज ऊपर वालों की। हमारा चुनाव आयोग दुनिया में सबसे ताकतवर है। पर हम यह भी देख रहे हैं कि अपराध और चुनाव, तथा धनबल और चुनाव के रिश्ते पर ही नहीं जातिवाद और साम्प्रदायिकता से चुनाव के रिश्ते पर उसका कोई वश नहीं रह गया है। यह काम जब तक बड़े दलों के नेता नहीं करेंगे चुनाव साफ-सुथरे नहीं हो सकते और साथ चुनाव होना ज्यादा परेशानी की चीज है या बाहुबल, धनबल और जाति-धर्म का इस्तेमाल यह कोई भी बता सकता है। इसलिए इस मांग के पीछे सिर्फ ईमानदार मंशा नहीं है।
जानकारों का मानना है कि एक साथ होने वाले चुनाव क्षेत्र और कमजोर दलों का सफाया कर देंगे। जब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते हैं तो मतदाता एक ही दल को दोनों स्तर पर पसंद करता है और एक साथ क्यों, लोकसभा चुनाव के साल 6 महीने बाद होने वाले चुनावों में भी उस राष्ट्रीय दल को काफी लाभ मिल जाता है जो लोकसभा चुनाव जीता होता है बल्कि मुम्बई स्थित आई.डी.एफ.सी. इंस्टीच्यूट के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि दिन-ब-दिन मतदाता का रुझान लोकसभा में वोट देने वाले दल को विधानसभा में भी वोट देने के प्रति बढ़ रहा है।-अरविन्द मोहन