कुछ संवैधानिक प्रावधानों ने देश को विफल कर दिया है

punjabkesari.in Saturday, Dec 03, 2022 - 04:27 AM (IST)

देश के राजनीतिक नेतृत्व को कालेजियम द्वारा स्वीकृत न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में देरी के बारे में सर्वोच्च न्यायालय की कठोर टिप्पणियों को गंभीरता से लेना चाहिए। जैसा कि हम जानते हैं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कालेजियम प्रणाली देश का प्रचलित कानून है और केंद्र से इसकी सिफारिशों पर तुरन्त कार्रवाई करने की उम्मीद की जाती है। शीर्ष अदालत ने तीखे शब्दों में कहा कि केंद्र सरकार सुझाए गए नामों को रोक नहीं सकती है। कुछ नाम तो कथित तौर पर डेढ़ साल से अधिक समय से लंबित पड़े हैं। यह बात छिपी नहीं है कि सत्तारूढ़ सरकार को कालेजियम प्रणाली पर आपत्ति है। 

स्मरण रहे कि 1993 में एक फैसले और 1998 में सर्वोच्च न्यायालय की राय ने उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए कालेजियम प्रणाली को विकसित किया। विडम्बना यही है कि इसी कालेजियम प्रणाली पर अब केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू सवाल उठा रहे हैं। उन्होंने वर्तमान प्रणाली को ‘अपारदर्शी’ और ‘जवाबदेह नहीं’ कहा है। इस तरह के रुख को स्वीकार नहीं किया जा सकता। हितधारकों के बीच अपेक्षित संवाद के बाद कानून की एक उचित प्रक्रिया का पता लगाया जाना और विकसित किया जाना चाहिए। 

वैसे भी न्यायपालिका पर मौजूदा व्यवस्था के कारण अत्यधिक बोझ है। हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि आज असली चुनौती व्यवस्था में लोगों के विश्वास को फिर से जगाने की है। केवल कुछ संवैधानिक प्रावधानों के साथ छेड़छाड़ करके जनता का विश्वास बहाल नहीं किया जा सकता है। लोगों को एक नया तर्कसंगत सौदा पेश करके ही इसे पुनर्जीवित किया जा सकता है। जहां तक राजनेताओं और अन्य लोगों के व्यवहार के पैट्रन की बात है तो लोकप्रिय दबाव और अंतर्निहित सुरक्षा तंत्र उनके कामकाज, प्रतिक्रिया और जवाबदेही को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। 

यह याद किया जा सकता है कि शीर्ष अदालत ने पिछले दिनों लंबित मामलों से निपटने के लिए सभी अदालतों में न्यायाधीशों की स्वीकृत क्षमता को दोगुना करने की मांग करने वाली जनहित याचिका पर विचार करने से इंकार कर दिया था जिसमें कहा गया था कि मौजूदा रिक्तियों को भरना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। यहां यह बताया जा सकता है कि शीर्ष अदालत में 7 रिक्तियां हैं (स्वीकृत क्षमता 34 की है) उच्च न्यायालयों में 336 और ट्रायल कोर्ट में 1108 और 6504 (24827 क्षमता) है। 

विचारणीय बिंदू यह है कि हमें अच्छे न्यायाधीश कहां से मिलते हैं? यह कोई रहस्य नहीं है कि अच्छे वकीलों ने जज बनने से इंकार कर दिया है। जाहिर है, वकील अदालतों में अपनी प्रैक्ट्सि से बहुत अधिक कमाते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस बिंदू को रेखांकित किया है। इस प्रकार से हम चारों ओर जो असफलता देखते हैं, वह मुख्य रूप से राजनीतिक रही है न कि संवैधानिक। यहां तक कि बॉम्बे उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्ट्सि बी. लेन्टिन भी ऐसा ही सोचते हैं। यहां तक कि बॉम्बे उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश  कहते हैं, ‘‘संविधान ने लोगों को विफल नहीं किया है और न ही भारत के लोगों ने संविधान को विफल किया है। यह केवल बेईमान राजनेता हैं जो दोनों में विफल रहे हैं।’’ 

विद्वान जज जिस बात को नजरअंदाज कर देते हैं वह है बेईमान राजनेताओं को मशरूम की तरह बढऩे देना। यह अपने आप में दोषपूर्ण व्यवस्था का परिणाम है। चुनावी प्रणाली भयानक रूप से दोषपूर्ण, महंगी और भ्रष्टाचार से ग्रस्त है तो क्या संवेदनशील प्रावधानों का केंद्र-राज्य संबंधों और राजनीति के समग्र कामकाज पर असर पड़ता है। 

अफसोस की बात है कि कड़वा सत्य यह है कि कुछ महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधानों ने देश को विफल कर दिया है। इसका परिणाम कार्यात्मक विकृतियों, पाखंड, कठोर व्यवहार और भ्रष्टाचार में हुआ है। इन परिस्थितियों में राष्ट्र को कायाकल्प व पुनॢनर्माण के दौर से गुजरना होगा। हमें उन पुरानी अवधारणाओं की नीरसता से दूर हटना चाहिए जो तेजी से अप्रासंगिक होती जा रही है। सिद्धांतों के देश में आखिर राजनीति राजनेताओं के लिए अपने स्वार्थ को बढ़ावा देने का अखाड़ा नहीं होनी चाहिए। 

मेरा मानना है कि मौजूदा ढांचे से परे सोचने और एक गतिशील और व्यापक दस्तावेज तैयार करने का समय आ गया है जो लोकतांत्रिक मानकों को स्थापित करने में नहीं बल्कि राजनीति के स्वस्थ विकास के लिए एक नई दिशा देने में एक अंतर ला सकता है। वास्तव में हमें संघीय राजनीति की अधिक स्थिरता सुनिश्चित करते हुए अपने भविष्य के संवैधानिक और राजनीतिक ढांचे को सरल, दूरअंदेशी, गतिशील और गरिमापूर्ण तरीके से बनाना होगा।-हरि जयसिंह  
 


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