अंधविश्वास के मकडज़ाल में फंसा समाज

punjabkesari.in Tuesday, Sep 03, 2024 - 06:16 AM (IST)

मानव समाज निरंतर विकसित हो रहा है। वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी विकास के माध्यम से लेखक भ्रम से मुक्त हो जाते हैं। स्थापित अवधारणाएं टूट रही हैं और नई वास्तविकताएं खोजी जा रही हैं। हालांकि, देश के विकास का वर्तमान आर्थिक माडल, यानी लूट पर आधारित राज्य व्यवस्था,  सभी लोगों को समानता, स्वतंत्रता, न्याय और भाईचारे की गारंटी नहीं देती है, क्योंकि लूटने वाले वर्ग सत्ता में हैं। दुनिया भर में जो भयानक युद्ध छिड़े हैं उनका मुख्य स्रोत वही राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था यानी ‘साम्राज्यवाद’ है। जिस भी देश में श्रमिक सत्ता में आए हैं, वहां अपेक्षाकृत बेहतर समाज के निर्माण की संभावना बनी है। 

यदि आज देश के हर क्षेत्र में कुछ भी नकारात्मक घटित हो रहा है तो वह नि:संदेह अतीत के प्रतिगामी मूल्यों के निरंतर जारी रहने का परिणाम है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आलोचक वही लोग हैं जो समान न्याय और समानता के सिद्धांतों के आधार पर हर इंसान को अच्छा जीवन प्रदान करने के विरोधी हैं। ये ‘शातिर लोग’ अतीत की झूठी प्रशंसा करके आम लोगों को गुमराह कर रहे हैं, ताकि वे अपने तर्कहीन विचारों पर वापस आ जाएं। भारत में लोगों के भविष्य के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अतीत की पिछड़ी विचारधारा जो  लोगों को बौद्धिक गुलाम बनाकर लूटने की व्यवस्था कायम रखती है, के बीच निरंतर युद्ध चलता रहता है। आस्था के नाम पर अंधविश्वास फैलाने वाले ‘धार्मिक गुरु’ सभी धर्मों में मौजूद हैं, जिन्होंने विभिन्न हास्यास्पद तरीकों और मंत्रों से सभी बीमारियों, आर्थिक कठिनाइयों, सामाजिक समस्याओं और सभी प्रकार के दुख-दर्दों को दूर करने की दुकानें खोल रखी हैं। तांत्रिक बोतलों में भरे साधारण पानी को मंत्रों से युक्त  ‘चमत्कारी जल’ कहकर पीने, कोई अन्य भोजन खिलाने या दवाई आदि देने से सभी प्रकार की बीमारियों को ठीक करने का दावा करते हैं। 

बेहद हास्यास्पद तरीकों से उन बीमारियों के इलाज के भी झूठे और बेबुनियाद दावे किए जाते हैं, जिनके इलाज में मैडीकल साइंस भी अभी तक ज्यादा सफल नहीं हो पाई है। ऐसे पाखंडी ‘संत’ कैंसर जैसी घातक बीमारी को भी ठीक करने का दावा करते हैं। इतना ही नहीं, इन तरीकों से झाड़-फूंक के नाम पर की जाने वाली अंधा-धुंध पिटाई से कई बार पीड़ितों की मौत भी हो जाती है। गौर करने वाली बात यह भी है कि अगर इन ढोंगी बाबाओं को किसी टी.वी. चैनल पर सीमित सीमा तक उजागर किया जाता है, तो चर्चा के लिए उनके एक तरफ एक ऐसा व्यक्ति बैठा होता है, जो उस विषय का विशेषज्ञ होता है। दूसरा पक्ष केवल इस बात पर ढोंगी बाबा की आलोचना करता है कि उसे धर्म और धार्मिक नियमों और शास्त्रों का पूरा ज्ञान नहीं है। मान लीजिए अगर उसे यह ज्ञान मिल भी जाए तो उसके बेतुके दावे सही साबित हो जाएंगे? वैचारिक रूप से दोनों आधे-अधूरे आस्तिक, अंधविश्वासी और पौराणिक घटनाओं के अनुयायी हैं। बहस का यह तरीका कुएं से निकलकर खाई में गिरने के बराबर है। धार्मिक आस्था, जो मन को शांति और सुकून देती है, इन झूठे दावों और पाखंडों से काफी हद तक मुक्त है। 

धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वासों का समर्थन करने वाले राजनीतिक और अन्य सामाजिक दल देश को महिलाओं के साथ बढ़ते बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों से बचाने के लिए समाज को जादू-टोने और अंधविश्वासों से भरे मध्ययुगीन ‘स्वर्ण युग’ की ओर इशारा करते हैं। उनका अभिप्राय यह है कि जातिगत भेदभाव, जाति-आधारित सामाजिक संरचना, सती प्रथा, बाल विवाह, भाग्यवाद जैसे पिछड़े विचारों वाले भयानक अतीत में लौटकर ही समाज के सामने आने वाली समस्याओं और वर्तमान चुनौतियों का समाधान किया जा सकता है। ऐसे लोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता को बढ़ावा देने की बजाय अंधविश्वास फैला रहे हैं। पौराणिक कथाओं के माध्यम से इतिहास को पूर्वव्यापी रूप से बदला जा रहा है। संस्कृति और अन्य सभी क्षेत्रों में अतीत के अंधविश्वासी समाज को ‘दुनिया का तरीका’ बताया जा रहा है। नि:संदेह भारतीय समाज कई क्षेत्रों में अन्य समाजों से अधिक विकसित कहा जा सकता है। 

अंधविश्वासों और गलत सामाजिक अवधारणाओं के कायम रहने के कारण ही देश ‘जगत गुरु’ नहीं बन पाया है। इस पिछड़ी सोच से मुक्त होना ही भारतीय समाज की खूबसूरती मानी जाएगी। आए दिन होने वाली महिलाओं और बच्चों के साथ बलात्कार की भयावह घटनाएं गुलामी और सामंती समाज के अवशेषों का परिणाम हैं। इस अमानवीय घटना से छुटकारा पाने के लिए भारतीय समाज को सामंती मानसिकता से मुक्त करना होगा और पुरुष प्रधान समाज को स्त्री-पुरुष के बीच वास्तविक समानता वाली व्यवस्था में बदलना होगा। उन शासकों के खिलाफ भी बेरहमी सेे वैचारिक समाधान चलाए जाएंगे, जो महिलाओं को केवल यौन संतुष्टि की वस्तु मानते हैं। आर.एस.एस. और इससे जुड़े संगठन जोर-शोर से ‘हिंदुत्व’  का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। इसी प्रकार मुस्लिम और ईसाई धर्म में भी ‘विकृत तत्व’ धर्म की आड़ में अंधविश्वास फैलाने का कुकृत्य करते हैं। वह भी पूरी तरह निंदनीय है। सिख धर्म, जिसे अन्य धर्मों की तुलना में एक आधुनिक और अधिक तर्कसंगत धर्म कहा जा सकता है, के भीतर भी तथाकथित ‘बाबे’ और ‘ब्रह्मज्ञानी’ सिख धर्म के मानवीय मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपवित्र करने का प्रयास कर रहे हैं। वे धर्म को केवल ‘पैसा कमाने’ का जरिया मानकर खुद हर तरह के ऐशो-आराम का आनंद लेते हैं और दूसरों को सांसारिक गतिविधियों और माया से दूर रहने की सीख देते नहीं थकते। 

वस्तुत: इस घटना को विभिन्न धर्मों द्वारा समय-समय पर सामाजिक विकास के लिए किए गए महत्वपूर्ण योगदानों तथा अतीत की बुराइयों के विरुद्ध उठाई गई आवाजों की निंदा के रूप में देखा जाना चाहिए। आवश्यकता हर समस्या के लिए जिम्मेदार वर्तमान सामाजिक-आर्थिक संरचना की वास्तविकता को पहचानने और उसे बदलने के लिए वैज्ञानिक मार्गदर्शन के अनुसार युद्ध छेड़कर आगे बढऩे की है। मानव जाति के सामने आने वाली समस्याओं का वास्तविक समाधान लूट, अन्याय और विभिन्न ज्यादतियों के लिए जिम्मेदार पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर समानता और समानता के सिद्धांतों पर आधारित ‘समाजवाद’  की स्थापना है। 1990 के दशक के दौरान, सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी व्यवस्था के पतन के बाद, समाजवाद की अवधारणा अस्थायी रूप से धुंधली हो गई थी। लेकिन यह वास्तविकता अब वैश्विक स्तर पर तीव्रता से अनुभव की जा रही है।-मंगत राम पासला


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