‘स्मार्ट सिटी’ केवल एक रियल एस्टेट कारोबार

Friday, Dec 11, 2015 - 11:38 PM (IST)

(एम.जी.देवसहायम): 2005 में भारत की शहरी चुनौतियों से निपटने के लिए भारत सरकार ने जवाहर लाल नेहरू नैशनल अर्बन रिन्युअल मिशन (जे.एन.एन.यू.आर.एम.) स्थापित किया था। इस मिशन की असफलता के बारे में लिख-लिख कर अम्बार लगाए जा सकते हैं जिनमें देश की शहरी गवर्नैंस की दयनीय स्थिति प्रतिबबित होगी। 

फिर भी इस प्रयास में रोशनी की कम से कम एक किरण तो थी कि संविधान के 74वें संशोधन में परिकल्पित विकेन्द्रीयकरण की कार्रवाइयों को व्यावहारिक रूप में लागू करके स्थानीय नागरिक सरकारों का लोकतांत्रिकरण करने का प्रयास किया गया था।
 
 इसके साथ ही उन्हें 12वें अनुच्छेद (धारा 243 डब्ल्यू) के अंतर्गत अपने जिम्मे लगे कुंजीवत कार्यों को पूरा करने के लिए सशक्त बनाया गया था। शहरी नियोजन एवं विकास, भूमि परियोजन एवं भवन निर्माण, आर्थिक एवं सामाजिक विकास, सड़कें व पुल, जलापूर्ति, जनस्वास्थ्य एवं स्वच्छता, शहरी वान्यिकी एवं पर्यावरण संरक्षण, समाज के कमजोर एवं विकलांग वर्गों के हितों की रक्षा, झोंपड़-पट्टी का सुधार एवं संवद्र्धन, शहरी गरीबी उन्मूलन, नागरिक सुविधाओं का प्रावधान एवं सांस्कृतिक-शैक्षणिक तथा सौंदर्यात्मक पहलुओं को बढ़ावा देने जैसी शक्तियां इस धारा के अंतर्गत स्थानीय सरकारों को सौंपी गई थीं। 
 
इन शक्तियों को व्यावहारिक रूप में साकार करने के लिए जे.एन.एन.यू.आर.एम. ने शहरी विकास योजनाओं एवं शहरी क्षेत्रों में नागरिक उपलब्ध करवाने वाली एजैंसियों को अधिकारों के हस्तांतरण सहित अनेक प्रकार के सुधारों की कानूनी व्यवस्था की। शहरी गवर्नैंस में नागरिकों की भागीदारी को संस्थागत रूप देने के लिए ‘सामुदायिक भागीदारी कानून’ एवं सभी संंबंधित पक्षों को तिमाही कारगुजारी की सूचना देने की व्यवस्था को कानूनी रूप दिया गया। इसके साथ ही शहरी स्थानीय निकाय की मध्यवर्ती वित्तीय योजनाओं को तैयार करने के संबंध में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए ‘पब्लिक डिसक्लोजर लॉ’ की भी कानूनी व्यवस्था की गई। बेशक इस मिशन में भारी मात्रा में धन बहायागया। फिर भी लोकतांत्रिकरण की जिन कार्रवाईयों की अपेक्षा की गई थी उनमें से अधिकतर साकार नहीं हो सकीं। 
 
प्रभावी और पायदार गुणवत्तापूर्ण निवेश आकर्षित करने की कुंजी अंतिम रूप में राज्य के संस्थागत ढांचे में ही समाहित है क्योंकि यह ढांचा ही अंततोगत्वा उन संस्थानों की गवर्नैंस के लिए जिम्मेदार होता है जिनके अंतर्गत निवेश और विकास का काम होना होता है। भारत में शहरी गवर्नैंस  की मूल कड़ी यहीहै और इसे लोकतांत्रिक संस्थानों तथा भागीदारी के अलावा किसी भी अन्य तरीके से सुनिश्चित नहीं किया जासकता। 
 
यू.पी.ए. सरकारों के लिए शहरी गवर्नैंस का लोकतांत्रिकरण एक दिखावे मात्र से बढ़कर कुछ नहीं था और जे.एन.एन.यू.आर.एम. केवल अफसरशाही का आडम्बर, आंकड़ों की जादूगरी मात्र था। इसके विपरीत राजग सरकार ने मई 2014 में सत्तासीन होते ही ‘स्मार्ट सिटीज’  के माध्यम से डिजिटल पद्धति के तेज रफ्तार के शहरीकरण की ललक में यू.पी.ए. सरकार के दिखावे के आवरण को भी फैंक दिया। पृष्ठ भूमि में कार्यशील बड़े-बड़े कार्पोरेट समूह तो पहले ही तैयार बैठे थे। 
 
कुछ ही सप्ताह में सी.आई.एस.सी.ओ. (सिस्को) ने सैंसर्ज (टोही यंत्र) एवं इंटरनैट की सहायता से स्मार्ट सिटीज की अपनी परिकल्पना का खाका पेश कर दिया। इस परिकल्पना में वायु प्रदूषण, ट्रैफिक जाम, वाहन पार्किंग, कचरे की समस्या इत्यादि का निदान किया गया था। इस योजना के अंतर्गत स्मार्ट सिटी की प्रत्येक इमारत, स्ट्रीट लाइट, पार्किंग स्थल, कूड़े के गड्ढे, वाटर पाइप इत्यादि की मानीटरिंग और नियंत्रण करने के लिए इन पर सैंसर फिट किए जाने थे। 
 
ऐसी योजना से माइक्रोसाफ्ट जैसी कम्पनी भला कैसे दूर रह सकती थी? दिसम्बर 2014 में इस दिग्गज कम्पनी ने नागरिकों की बदलती जरूरतें पूरी करने के लिए तकनीकी आधारभूत ढांचे के अनुसार खुद को ढालने के म्यूनिसिपल प्रशासन के प्रयासों में सहायता करने के लिए सूरत शहर के नगर निगम के साथ भागीदारी की घोषणा की। जल्दी ही बाद मार्च 2015 में इंजीनियरिंग क्षेत्र की दिग्गज बहुराष्ट्रीय कम्पनी सीमैंस ने देशभर में स्मार्ट सिटीज की परिकल्पना एवं निष्पादन की दिशा में आगे बढऩे के लिए भारतीय उद्योग परिसंघ (सी.आई.आई.) के साथ सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए। सी.आई.आई. ने 2022 तक 100 स्मार्ट सिटी विकसित करने में भारत सरकार को सहायता उपलब्ध करवाने के मामले में कुंजीवत मार्गदर्शक एवं सहायक के रूप में काम करते हुए ‘नैशनल मिशन आन स्मार्ट सिटीज’ की शुरूआत की। सी.आई.आई. और सीमैंस के बीच सहमति पत्र को देश के स्मार्ट सिटी के कार्यक्रम को पूरा करने के अंग के रूप में देखा जा रहा है। 
 
इस प्रकार सभी जुगाड़बंदियां करके प्रधानमंत्री मोदी ने 25 जून 2015 को स्मार्ट सिटी मिशन (एस.सी.एम.) लांच कर दिया। इस मौके पर बोलते हुए उन्होंने कहा : ‘‘बहुत से लोग यह सोच कर हैरान हैं कि स्मार्ट सिटी पता नहीं किस बला का नाम है लेकिन स्मार्ट सिटी के बारे में दिमाग पर बोझ डालनेकी जरूरत नहीं। स्मार्ट सिटी एक ऐसा शहर होगा जोअपने नागरिकों को उनकी अपेक्षाओं से भी अधिक सुविधाएं उपलब्ध करवाएगा। बस किसी चीज की कामना करते ही इसका प्रावधान हो जाएगा...स्मार्ट सिटी बनाने का फैसला सरकारों द्वारा नहीं बल्कि शहर के लोगों और स्थानीय प्रशासन द्वारा लिया जाएगा। प्राइवेट प्रापर्टी डिवैल्पर यह फैसला न करें कि शहर का विकास किस प्रकार होना चाहिए। बल्कि यह फैसला शहर के वासियों और शहर के नेतृत्व द्वारा किया जाना चाहिए।’’
 
फिर भी निष्पादन के स्तर पर ही लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया को काफी हद तक खुड्डे लाइन लगा दिया जाता है और इसका स्थान निगमीकरण द्वारा लिया जाता है। यह काम स्वायत्तशासी  ‘स्पैशल पर्पज व्हीकल’ (एस.पी.वी.) के माध्यम से अंजाम दिया जाता है और इन्हीं के द्वारा नियोजन, अनुमान, स्वीकृति, फंड के जारीकरण, निष्पादन, प्रबंधन, परिचालन इत्यादि का काम किया जाता है। प्रत्येक स्मार्ट सिटी का अपना-अपना एस.पी.वी. होगा। जिसका प्रमुख पूर्णकालिक सी.ई.ओ. होगा तथा केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय शहरी निकाय में कार्पोरेट समूहों के निदेशक प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित होंगे। 
 
रोजमर्रा के कामकाज में एस.पी.वी. की निर्बाध स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार और स्थानीय निकाय नगर परिषद के अधिकार व कत्र्तव्य उनको सौंप देंगे। यह स्पष्ट रूप में लोकतंत्र को पटरी से उताने और निगमीकरण का ध्वज फहराने के तुल्य है। यदि किसी परियोजना में निगमीकरण घुस जाता है तो निजीकरण भी दूर की बात नहीं रह जाती। जल्दी ही वह दिन आ जाएगा जब बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और दिग्गज विदेशी परामर्श फर्में एस.सी.एम. की छाती पर सवार हो जाएंगी। 
 
यह अपेक्षा करना स्वाभाविक ही है कि एस.सी.एम. प्रमुख तौर पर अधिकारियों के रूप में विदेशी विशेषज्ञों को प्राथमिकता देंगे क्योंकि वर्तमान मेें निर्माणाधीन 88 स्मार्ट सिटीज में से अधिकतर ने अंतर्राष्ट्रीय परामर्श फर्मों के साथ इस उम्मीद से हाथ मिलाने की इच्छा व्यक्त की है कि वे बहुत दमदार विकास योजना तैयार करके केन्द्र सरकार से निवेश हासिल कर सकेंगे। जहां तक नागरिकों की हिस्सेदारी का सवाल है वह चुनिंदा लोगों की कभी-कभार होने वाली बैठकों और ऊबाऊ भाषणों तक ही सीमित है। जिस स्मार्ट सिटी में बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कारोबारी स्वार्थ हावी होंगे वहां पर आम शहरियों के समावेश की कोई खास गुंजाइश नहीं रह जाएगी। वास्तव में स्मार्ट सिटी केवल दैत्याकार ग्लोबल कम्पनियों के व्यावसायिक हितों का ही साकार रूप है। 
 
बेशक बहुत बातें की जा रही हैं तो भी स्मार्ट सिटी की अवधारणा में कोई नई बात नहीं है। यह अवधारणा सर्वप्रथम 1922 में अमरीका के टैक्सास प्रांत की राजधानी ह्यूस्टन में लागू की गई थी। तब आटोमैटिक ट्रैफिक लाइटें ही इसकी मुख्य प्रेरक शक्ति थी। लेकिन गत दशक दौरान इंटरनैट कनैक्टिविटी के आंधी की तरह बढऩे और इलैक्ट्रानिक के बढ़ते सूक्ष्मीकरण ने स्मार्ट सिटी की अवधारणा के प्रत्येक पहलू को रोबो तथा बिजली जैसी तेज गति के साथ जोड़ दिया है। ऐसी टैक्नोलाजी के चलते केवल आई.बी.एम., सिस्को, माइक्रोसाफ्ट, साफ्टवेयर ए.जी. इत्यादि जैसी बड़ी-बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियां ही म्यूनिसिपल ठेके हासिल करके अंधे मुनाफे कमाएंगी। 
 
बेशक सरकार स्मार्ट सिटी की अवधारणा को व्यावसायिक शक्ति बनाम जनशक्ति के रूप में प्रस्तुत कर रही है। लेकिन जब सभी सरकारें कारोबारी समूहों के आगे नतमस्तक हो रही हैं तो निश्चय ही जनशक्ति को ही नुक्सान होगा। वास्तव में बड़े-बड़े रियल एस्टेट डिवैल्पर का ही कारोबार फले-फूलेगा और उन्हीं की तूती बोलेगी। 
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