कश्मीर में स्थिति पहले से बदत्तर नहीं लेकिन मीडिया को कौन समझाए

Monday, Jun 19, 2017 - 01:38 AM (IST)

क्या भारतीय और पाकिस्तानी एक-दूसरे के विरुद्ध क्रिकेट मैच का आनंद लेते हैं? मेरी यह दृढ़ राय है कि अब हम ऐसे अनुभव के शौकीन नहीं रह गए। कभी शायद ऐसा रहा हो लेकिन गत लगभग 25 वर्षों से स्थिति ऐसी नहीं रह गई। घृणा और नापसंदी के स्वर दोनों ओर बहुत ऊंचे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि घटनाक्रमों को मीडिया द्वारा लगातार उबाल की स्थिति में रखा जाता है। 

फुटबाल मैचों के विपरीत क्रिकेट के मैच पूरा दिन भर या 5 दिन तक चलते हैं और इस तरह विजय या पराजय की भावना लंबी ङ्क्षखच जाती है। ऐसे में यह अच्छा ही हुआ है कि हमने एक-दूसरे के विरुद्ध टैस्ट मैच खेलने किसी हद तक बंद कर दिए हैं और असुखद भावना केवल टी.-20 मैचों या वन-डे इंटरनैशनल मैचों तक ही सीमित रह गई है और ऐसे मैच किसी निष्पक्ष देश की धरती पर खेले जाते हैं। 

सबसे पहली समस्या यह है कि उपमहाद्वीपीय टीमों (भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बंगलादेश) द्वारा खेले जाने वाले अधिक क्रिकेट मैच राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य में ही देखे जाते हैं और इसी परिप्रेक्ष्य में इनका मूल्यांकन होता है। जब किसी देश की विरोधी टीम छक्के-चौके लगाती है या विकेट लेती है तो स्टेडियम में मौत जैसा सन्नाटा छा जाता है। वैसे तो यह सभी विरोधी टीमों के मामले में होता है लेकिन भारत-पाकिस्तान मैच द्वारा ‘दुश्मन’ टीम के विरुद्ध दर्शक के मन में पैदा होने वाला आक्रोश बहुत प्रचंड होता है। 

स्टेडियम में बैठकर मैच देखने को उल्लासपूर्ण बनाने वाली अन्य बातें हैं प्रतिस्पर्धा का दोस्ताना वातावरण और विद्वेष भावना से मुक्त होकर एक-दूसरे को चिढ़ाना। लेकिन यह दोनों ही बातें उपमहाद्वीपीय क्रिकेट प्रतिस्पर्धाओं में पूरी तरह गायब होती हैं। दोनों टीमें ऐसे खेलती हैं जैसे दो सेनाएं एक-दूसरे के विरुद्ध मोर्चा बनाकर लगातार गोलीबारी कर रही हों। हालांकि ऐसा करने का जमीनी स्तर पर कोई खास लाभ नहीं होता और न ही स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव आता है। लेकिन इन मैचों के दौरान वर्दीधारियों की बजाय सिविलियन लोग अपनी-अपनी टीम के प्रतीक धारण करके चीख-चीख कर गालियां देते हैं। 

गुजरातियों ने खेलों में एक नए तत्व का समावेश कर दिया है और वह है ‘बैट्टिंग’ (यानी दाव या शर्त लगाकर मैच देखना)। लेकिन इस मामले में भी राष्ट्रवाद की मजबूत जकड़ कायम रहती है। किसी जमाने में मैं स्वयं बहुत सक्रिय क्रिकेट खिलाड़ी हुआ करता था लेकिन वे दिन बहुत पीछे रह गए हैं। एक दोपहर मेरा ब्रदर इन ला संदीप घोष हमें मिलने आया। उस दिन भारत का श्रीलंका से मैच हो रहा था। वह लंका पर दाव लगाना चाहता था और मैंने अपनी बुक्की को फोन करके उसके दाव का पंजीकरण करने को कहा। जब मैं ऐसा कर चुका तो मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि कितने ही लोगों ने भारत के विरुद्ध दाव लगाया था। मेरा अनुमान था कि  गुजरातियों में से अधिकतर लोगों ने इसलिए ऐसा किया था कि वे अपनी भावनाओं को कारोबार से अलग रखते हैं। 

मैंने बुक्की को टैलीफोन किया तो उसने बताया कि लगभग 50 लोगों ने दाव लगाया था और उनमें से घोष पहले नम्बर पर था। यानी कि बहुत भारी दाव लगाने वाले गुजराती भी राष्ट्रवाद की धारा में बह रहे थे और अपनी नकदी के बल पर भारत का समर्थन कर रहे थे। इस मैच में श्रीलंका की जीत हुई लेकिन मेरा नुक्ता यह है कि यदि पाकिस्तान के साथ मैच हो तो लोग भारत के पक्ष में और भी बड़ा दाव लगाते हैं और भारी मात्रा में अपना पैसा डुबो लेते हैं। पूरी तरह युद्ध की तरह स्थिति बनी होती है। 

मुझे वे दिन याद हैं जब लगभग 4 दशक पूर्व मियांदाद और इमरान खान अपने करियर के शिखर पर थे और कपिल देव ने कुछ ही समय पूर्व गावस्कर की कप्तानी वाली भारतीय टीम की सदस्यता हासिल की थी। उन दिनों क्रिकेट के मैच देखने का अलग ही मजा होता था। अक्तूबर 1983 में जब श्रीनगर में वैस्ट इंडीज के विरुद्ध खेलना पड़ा था तो यह सुखद बातों की शुरूआत का उदाहरण बन गया था। दर्शकों की पूरी की पूरी टीम भारत के विरुद्ध दुश्मनी के भाव से इतनी भरी हुई थी कि खुद वैस्ट इंडीज की टीम इस बात से हैरान थी कि उन्हें दर्शकों से इतना समर्थन मिलने का क्या कारण है। इस समय के अनुभव को गावस्कर ने अपनी पुस्तक ‘रन्ज एंड रूइंज’ में उल्लेख किया है और वह लिखते हैं लोगों ने इमरान खान के पोस्टर उठाए हुए हैं। मेरे सहित बहुत से भारतीयों के लिए यह पहला मौका था जब हम इस तथ्य से अवगत हुए कि कश्मीर में स्थिति सामान्य नहीं थी। 

गावस्कर के इस अनुभव की व्याख्या मैं यूं करूंगा कि दर्शकों की यह भावना किसी भी अन्य प्रतिक्रिया की तुलना में अधिक भारत विरोधी थी। वैसे यह सिर्फ चिढ़ाने की खातिर किया था और गावस्कर ने भी इसे कोई दुर्भावनापूर्ण प्रतिक्रिया नहीं माना था। वह कहते हैं कि पहले उन्होंने अपनी ओर इशारा किया और फिर ग्राऊंड की ओर, फिर इमरान को पोस्टर की ओर और अंत में आकाश की ओर। वह लिखते हैं कि इस मुद्रा से उन्हें दर्शकों से अपार प्रशंसा हासिल हुई। मार्च 2004 में मैं मुल्तान के स्टेडियम में था जब वीरेन्द्र सहवाग ने शोएब अख्तर और मोहम्मद शमी के बोङ्क्षलग आक्रमण के समक्ष भी तिहरा सैंकड़ा जड़ा था। मैं एक पाकिस्तानी दोस्त के साथ था।

मैच के दौरान जैसे ही किसी को पता चला कि मैं भारतीय हूं तो आटोग्राफ लेने वालों का जमघट लग गया। यह मैच प्रसिद्ध मित्रता शृंखला के अंतर्गत हो रहा था जो अटल बिहारी वाजपेयी और परवेज मुशर्रफ की पहल का नतीजा थी। यह दोनों ऐसे नेता थे जिनके बीच कारगिल को लेकर भारी मुठभेड़ हुई थी और इसमें दोनों ओर से लगभग 500-500 जवान शहीद हो गए थे। तब वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे और मुशर्रफ पाकिस्तान सेना के प्रमुख थे। उन्होंने एक-दूसरे को लक्ष्य बनाकर अपने-अपने देशों को परमाणु शस्त्रों से लैस किया था। 

हमें यह भी अवश्य ही स्मरण रखना होगा कि वह समय कश्मीर में अधिकतम हिंसा का दौर था। 2001 में जम्मू-कश्मीर में 4507 लोगों की मौत हुई थी जोकि 2016 में मारे गए 267 लोगों की तुलना में 20 गुणा अधिक था। ऐसे में यदि हम यह कहें कि कश्मीर में जमीनी स्थितियां पहले से बदतर हैं तो वह सही नहीं होगा। लेकिन राजनीति और मीडिया को कौन समझाए? आज जबकि हिंसा में जमीनी स्तर पर काफी अधिक गिरावट आ चुकी है तो ऐसी शृंखला की परिकल्पना करना बहुत आश्चर्यजनक होगा। वैसे जनता के मनमस्तिष्क में अभी भी बहुत हिंसा मौजूद है।

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