बिखरते विपक्ष को ‘एस.आई.आर.’ का सहारा

punjabkesari.in Thursday, Nov 27, 2025 - 05:47 AM (IST)

महाराष्ट्र के बाद बिहार में भी एकतरफा हार से पस्त विपक्ष की एकता में उभरती दरारों को भरने में विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण (एस.आई.आर.) मददगार साबित हो सकता है। एस.आई.आर. पर विवाद बिहार से ही शुरू हो गया था। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा, जहां सुनवाई बिहार में विधानसभा चुनाव संपन्न हो जाने के बाद भी जारी है। इसी बीच 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में एस.आई.आर. प्रक्रिया से विपक्ष को एकजुटता और आक्रामकता के लिए बड़ा मुद्दा मिल गया है। चार नवम्बर से शुरू यह प्रक्रिया चार दिसम्बर तक पूरी होनी है 

इस बीच विपक्ष सड़कों पर है और अदालत भी पहुंच गया है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में सरकारें भी एस.आई.आर. का विरोध कर रही हैं। स्पष्ट है कि एस.आई.आर. का फैसला करने से पहले चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से तो दूर, संबंधित राज्य सरकारों से भी चर्चा नहीं की। आयोग तर्क दे सकता है कि वह संवैधानिक संस्था है तथा स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के लिए उसे एस.आई.आर. समेत हर जरूरी कदम उठाने का अधिकार है। तर्क गलत भी नहीं, पर इस व्यावहारिकता को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि एस.आई.आर. समेत पूरी चुनाव प्रक्रिया को संपन्न करवाने में राज्य सरकार के कर्मचारियों की अहम भूमिका रहती है, क्योंकि चुनाव आयोग के पास अपना ज्यादा स्टाफ नहीं होता। 

 जिस राज्य सरकार के कर्मचारियों से चुनाव आयोग को काम लेना है, उसी से उस बाबत चर्चा तक न करना सकारात्मक तस्वीर पेश नहीं करता। आदर्श स्थिति का तो तकाजा है कि चुनाव प्रक्रिया संबंधी फैसलों में सभी राजनीतिक दलों से भी चर्चा की जानी चाहिए, क्योंकि वे उसका बेहद महत्वपूर्ण अंग होते हैं। दोषरहित एस.आई.आर. कराने में राजनीतिक दलों के बी.एल.ए. महत्वपूर्ण मददगार साबित हो सकते हैं। राज्य सरकारों और राजनीतिक दलों से चर्चा न करने का कारण चुनाव आयोग ही जानता होगा, लेकिन परिणाम परस्पर बढ़ते अविश्वास के रूप में ही सामने आ रहा है, जो अब टकराव में बदलता दिख रहा है। मात्र 30 दिन में एस.आई.आर. संपन्न करने के कथित दबाव में कुछ बी.एल.ओ. की मृत्यु और आत्महत्या की घटनाओं ने हालात को और भी संवेदनशील बना दिया है। जाहिर है, चुनाव आयोग की भूमिका से शुरू सवाल अब उसकी विश्वसनीयता पर लगने लगे हैं, जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। चुनाव आयोग असहज सवालों के जवाब देने से कतरा रहा है, तो सत्तारूढ़ दल और गठबंधन उसके बचाव में बोल रहे हैं। वे एस.आई.आर. के विरोध को घुसपैठियों का समर्थन करार दे रहे हैं। इससे संदेह का वातावरण बन रहा है, जिससे विपक्ष के आरोपों को बल भी मिल रहा है।

बेशक बिहार का जनादेश बताता है कि एस.आई.आर. और वोट चोरी संबंधी आरोप चुनावी मुद्दा नहीं बन पाए, लेकिन विपक्षी एकता में उजागर होती दरारों को भरने में मददगार साबित होते दिख रहे हैं। पश्चिम बंगाल में अगले साल मार्च-अप्रैल में विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच कटुता किसी से छिपी नहीं है। ममता की तृणमूल कांग्रेस द्वारा भाव न दिए जाने के चलते वहां कांग्रेस, वाम दलों के साथ है। पश्चिम बंगाल में वे तृणमूल के साथ मंच शायद न भी सांझा करें, पर एस.आई.आर. का विरोध तो सड़क से संसद तक कर ही रहे हैं। केरल में तो वाम दल सत्ता में हैं और कांग्रेस विपक्ष में, पर एस.आई.आर. के विरोध में दोनों हैं। तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन सरकार और उनकी पार्टी द्रमुक भी एस.आई.आर. के विरोध में है, तो राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी फिल्म स्टार विजय का दल तमिलागा वेट्री कजगम (टी.वी.के.) भी विरोध में सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया है। द्रमुक, एम.डी.एम.के., तृणमूल कांग्रेस, माकपा, कांग्रेस (पश्चिम बंगाल) और इंडियन मुस्लिम लीग भी एस.आई.आर. के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर चुके हैं। 

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव तो 2027 में होने हैं, लेकिन एस.आई.आर. के चलते राजनीति अभी से गरमा गई है। लोकसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने मिल कर उत्तर प्रदेश में भाजपा को जोरदार झटका दिया था। उसके बाद दोनों में असहजता की खबरें आईं, लेकिन एस.आई.आर. विरोध उन समेत पूरे ‘इंडिया’ गठबंधन को ही एकजुट और आक्रामक कर सकता है। आखिर सभी विपक्ष दल इसे अपने भविष्य और अस्तित्व के लिए खतरे के रूप में देख रहे हैं। 

ऐसे में अब जबकि 1 दिसंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो रहा है, एस.आई.आर. के मुद्दे पर वहां भी राजनीति गरमाएगी। संसद के पिछले सत्र में भी बिहार में एस.आई.आर. पर हंगामा हुआ था, पर उससे प्रभावित हुए बिना सरकार ने मौके का फायदा उठाते हुए अपना विधायी कामकाज निपटा लिया। अब जबकि एक दर्जन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में एस.आई.आर. हो रहा है, जिनमें से कुछ राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें भी हैं, संसद में हंगामा होना तय है। अतीत का अनुभव बताता है कि चुनावी राजनीति में आपसी दलगत टकराव के बावजूद विपक्षी दल संसद में सरकार के विरुद्ध एकजुट रणनीति बनाने की कोशिश करते रहे हैं। कुछ मौकों पर उनमें रणनीतिगत भिन्नता भी दिखी है। बेशक अमरीका से ट्रेड डील, भारत-पाक में संघर्ष युद्ध विराम संबंधी ट्रम्प के अंतहीन दावे और दिल्ली में कार बम विस्फोट समेत कई अन्य मुद्दों पर भी विपक्ष मोदी सरकार को घेरना चाहेगा। 

ऐसे में किसी एक मुद्दे पर कितना जोर देना है और कितनी दूर तक जाना है, यह फैसला संसद सत्र से पहले होने वाली बैठक में विपक्ष को करना पड़ेगा। विपक्ष किसे मुख्य मुद्दा बनाता है और सरकार पर संसद में कितना दबाव बना पाता है, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि एस.आई.आर. के रूप में उसे एक ऐसा मुद्दा मिल गया है, जो उसके सांझा हितों से जुड़ा है। इसलिए एस.आई.आर. विपक्षी एकता में उजागर दरारों को भरने में मददगार भी साबित हो सकता है।-राजकुमार सिंह
    


सबसे ज्यादा पढ़े गए