सिख लीडरशिप : शिखर से पतन की राह पर

punjabkesari.in Friday, Sep 22, 2023 - 05:42 AM (IST)

भारत में सिखों की गिनती बेशक बेहद कम है मगर इन्होंने अपने आचरण और जज्बे के साथ देश में अपनी एक अलग पहचान बना रखी है। सिख धर्म की शुरूआत श्री गुरु नानकदेव जी ने की थी और 10वें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसको सम्पूर्ण किया। पहले 5 गुरु साहिबान ने सिख पंथ को सियासत से अलग रखा और केवल धार्मिकता और मानवता के भले की ओर ध्यान दिया। पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी को मुगल सम्राट जहांगीर की ओर से लाहौर में शहीद कर देने के बाद छठे गुरु श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब जी ने इस कार्रवाई से यह महसूस कर लिया कि मुगल साम्राज्य के जुल्म का मुकाबला करने के लिए सिख पंथ को खुद ताकतवर होना पड़ेगा। 

उन्होंने सिखों को यह संदेश देने के लिए ‘मीरी और पीरी’ की दो तलवारें पहनाईं। इस तरह सिख पंथ धर्म और शक्ति दोनों का प्रतीक बन गया। इसके बाद 9वें गुरु साहिब की कश्मीरी पंडितों पर मुगलों की ओर से किए जा रहे जुल्म के खिलाफ दी गई शहादत ने इस परम्परा को और भी बल दिया तथा श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक ताकतवर सेना तैयार कर मुगल साम्राज्य के साथ युद्ध लड़े और जीत हासिल की। गुरु साहिब ने अपने ज्योति ज्योत समाने से पहले सिखों को ‘राज करेगा खालसा’ का संदेश दिया और 3 सितम्बर 1708 के दिन बाबा बंदा सिंह बहादुर को इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पंजाब भेजा। बाबा बंदा सिंह बहादुर ने 14 मई 1710 को सरहंद फतेह कर गुरु जी के उद्देश्य को पूरा किया। 

बंदा सिंह बहादुर की शहादत के बाद नेतृत्व की कमी के कारण सिख छोटे-छोटे समूहों जिनको कि जत्था कहा जाता था, में बंट गए और एक लम्बे अर्से के बाद 1748 में नवाब कपूर सिंह के नेतृत्व में यह सारे समूह दल खालसा के निशान के नीचे एकत्रित हुए। दल खालसा की कमान जस्सा सिंह आहलूवालिया को सौंपी गई और अलग-अलग 12 मिसलें अस्तित्व में आईं। इन 12 मिसलों में सबसे प्रसिद्ध मिसल शुक्रचक्किया मिसल थी तथा इसके राजा का नाम चढ़त सिंह था। महाराजा रणजीत सिंह शुक्र चक्किया मिसल के राजा बने और उन्होंने 1799 में लाहौर पर कब्जा कर लिया। 

महाराजा रणजीत सिंह ने अपने राज्य को चार प्रांतों में बांटा हुआ था जिनके नाम थे लाहौर, पेशावर, कश्मीर और मुल्तान। महाराजा रणजीत सिंह ने जहां एक ओर अपने राज्य को आॢथक तौर पर सुदृढ़ किया, वहीं सभी क्षेत्रों में सद्भावना को मजबूत करने में भी सफलता हासिल की। महाराजा रणजीत सिंह की सैन्य ताकत से अंग्रेज भी डरते थे। इसी कारण उन्होंने अपने क्षेत्र को बचाने के लिए महाराजा के साथ 25 अप्रैल 1809 को अमृतसर की संधि की। 27 जून 1839 को महाराजा इस दुनिया से चल बसे और उसके बाद आपसी खींचातानी और डोगरा राजाओं की अंग्रेजों के साथ मिलीभगत के कारण महाराजा रणजीत सिंह की ओर से बनाए गए सिख साम्राज्य का अंत हो गया और अंग्रेजों ने यह सारा क्षेत्र अपने राज्य में मिला लिया। 

कुछ वर्षों के बाद सिखों में धर्म परिवर्तन की प्रवृत्ति शुरू हो गई। कई सिख ईसाई बन गए और इसके जवाब में उस समय के सिख नेताओं की ओर से 1870 में सिंह सभा लहर शुरू हुई जिसका नेतृत्व ठाकर सिंह संधावालिया, जवाहर सिंह कपूर और ज्ञानी दित्त सिंह इत्यादि ने की। इस लहर के बेहद सार्थक नतीजे मिले और सिखों की गिनती में बढ़ौतरी हुई। अंग्रेजों को यह पता चल चुका था कि सिखों को यह ताकत गुरुद्वारों से मिलती है और गुरुद्वारों के कारण हिंदू-सिख और मुस्लिम इकट्टे रहते हैं। इस एकता को तोडऩे के लिए अंग्रेजों ने भाषा का सहारा लिया और हिंदी को हिंदुओं के साथ, उर्दू को मुसलमानों के साथ तथा पंजाबी को सिखों के साथ जोड़ दिया। 

अंग्रेजों ने गुरुद्वारों में अपने खास महंतों को काबिज करवा कर रखा। इस कारण सिखों की ओर से 1920 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी नाम की संस्था बनाई गई और साथ ही एक राजनीतिक विंग शिरोमणि अकाली दल भी तैयार किया गया। अंग्रेजी हुकूमत ने सिख गुरुद्वारा एक्ट 1925 पास करवा दिया और गुरुद्वारों का प्रबंध सिखों के पास आ गया। आजादी मिलने के बाद सिखों की करीब 95 प्रतिशत से अधिक आबादी हिंदुस्तान में आ गई और सिखों ने जल्दी ही अपने हुए नुक्सान को भूल कर एक नई जिंदगी की शुरूआत की। सिख कामयाबी की राह पर चल पड़े। आजादी के बाद देश में कई चुनाव हुए और सिखों ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 

सिखों की बहुसंख्या अकाली दल के साथ जुड़ी रही और अकाली दल के लीडरों मास्टर तारा सिंह, स. हुकम सिंह, बलदेव सिंह, गुरनाम सिंह, संत फतेह सिंह, गुरचरण सिंह टोहरा और प्रकाश सिंह बादल को सिख नेताओं के तौर पर मान्यता मिलती रही। इसके अलावा कुछ कांग्रेसी सिख भी बतौर बड़े लीडर उभरते रहे परन्तु पिछले कुछ समय से अकाली दल अपनी ओर से लिए गए फैसलों से पीछे होने लगा है जिस कारण पिछले कई चुनावों के बाद पहली बार 2017 में अकाली दल को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। वर्तमान में कई अकाली दल अस्तित्व में आ चुके हैं। सिखों में अपने नेताओं के प्रति भरोसा खत्म हो गया है और सिख नौजवान नई पैदा होने वाली लीडरशिप की ओर देखने लग गए हैं। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा कि वह किसकी रहनुमाई को कबूल करें। 

इसी चिंता के कारण पंजाब का नौजवान कुछ सही फैसले लेने में समर्थ नहीं लग रहा। ऐसे हालातों में सिख नेताओं की जिम्मेदारी बनती है कि वे अच्छे आचरण वाले चेहरे आगे लेकर आएं और पंजाबियों के लिए कुछ ठोस कार्यक्रम बनाएं नहीं तो नवयुवक गलत रास्ते पर पड़ जाएंगे और सिख लीडरशिप भी आहिस्ता-आहिस्ता पतन की राह पर चल पड़ेगी।-इकबाल सिंह चन्नी
    


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