‘शिंजो आबे’ का इस्तीफा चीन के लिए अच्छी खबर और ‘भारत के लिए बुरी’

Sunday, Sep 06, 2020 - 04:11 AM (IST)

28 अगस्त को जापान के सबसे लम्बे समय तक प्रधानमंत्री रहे शिन्जो अबे ने स्वास्थ्य आधार पर अपने कार्यालय से त्यागपत्र दे दिया। 2007 में इसी तरह के आधार पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। जाहिर है कि बीमारी फिर से जागृत हो गई। उनके स्थान पर सत्तारूढ़ लिबरल डैमोक्रेटिक पार्टी से कौन स्थान लेगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत और जापान के रिश्ते नरेन्द्र मोदी और शिंजो अबे के जैसे फिर से सुदृढ़ होंगे? 

अबे के अचानक इस्तीफा देने के साथ साम्राज्यवादी चीन के लिए यह एक अच्छी खबर है और भारत के लिए बुरी खबर है। भारत और चीन के बीच सीमा संघर्ष के कारण शिंजो अबे नई दिल्ली के पीछे खुलकर खड़े हो गए थे। 2013 के बाद से भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच चार गतिरोध थे। अप्रैल 2013, सितम्बर 2014, जून-अगस्त 2017 और मई 2020 से लेकर वर्तमान तक। जापान ने इन गतिरोधों पर भारत का पक्ष लिया। डोकलाम तथा पूर्वी लद्दाख में चीन के खिलाफ उन्होंने बयान भी जारी किया। 

जापान, चीन के साथ आॢथक प्रतिस्पर्धा के अलावा सेनकाकू द्वीप में उसके संभावित प्रवेश को लेकर चिंतित है। पेइचिंग की विस्तारवादी प्रवृत्ति जापान और भारत को द्विपक्षीय रूप से एक साथ रखेगी। शिंजो अबे राजनीतिक वंश से आए थे। उनके दादा और चाचा प्रधानमंत्री थे और पिता उनसे पहले कैबिनेट मंत्री थे। शिंजो ने जापान की सैन्य स्थिति को पुनर्जीवित किया और चीन के विरोध में खड़े रहे। वह संयुक्त राज्य अमरीका और यूरोपीय संघों के साथ संबंधों को सामान्य बनाने और भारत प्रशांत क्षेत्र में प्रभावशाली पहल करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय रूप से लगे हुए थे। 

जापान-भारत के संबंधों को गहरा करने के लिए अबे अकेले जिम्मेदार थे। 2014 में गणतंत्र दिवस समारोह में वह भारत के मुख्यातिथि होने वाले पहले जापानी पी.एम. थे। इस विशेष भव्य अवसर पर उन्होंने भारत के साथ संबंधों के मद्देनजर एक महत्वपूर्ण राजनयिक कार्य किया। अबे को अपने प्रधानमंत्री रहने के दौरान भारत में रिकार्ड संख्या में दौरे करने के लिए भी जाना जाता है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि शिंजो अबे के यू.पी.ए. तथा एन.डी.ए. सरकारों के साथ गर्म और सौहार्दपूर्ण संबंध थे। 

जाहिर तौर पर नरेन्द्र मोदी और शिंजो अबे के बीच एक उल्लेखनीय पारस्परिक समीकरण था। पी.एम. मोदी ने गुजरात के सी.एम. के रूप में जापान का दौरा किया था और 2014 में प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहली यात्रा की थी। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में निजी मेल-मिलाप ने एक बड़ी योगदानकत्र्ता की भूमिका निभाई है। मोदी ने कई सरकारों के प्रमुखों को अपने साथ जोडऩे में उत्कृष्टता हासिल की है। इनमें बेंजामिन नेतन्याहू, डोनाल्ड ट्रम्प और शिंजो अबे प्रमुख हैं। दुर्भाग्यवश असम में निर्धारित अबे और मोदी के बीच आखिरी शिखर बैठक एन.आर.सी. आंदोलन के बाद राज्य में उथल-पुथल के चलते नहीं हो सकी। 

हम अबे द्वारा भारत-जापान द्विपक्षीय योगदान को याद करें। 2017 में टोक्यो में हस्ताक्षरित परमाणु समझौता अबे की पहल के कारण था क्योंकि पोखरण में 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद जापान की भारत के प्रति कड़वाहट थी। परमाणु बमों के एकमात्र शिकार के रूप में, जापान के किसी भी देश के साथ अपने संबंधों में एक गैर-परमाणु रुख था। फिर भी अबे के तहत, जापान ने भारत को यह रियायत दी। परमाणु समझौते ने शांतिपूर्ण उपयोग के लिए परमाणु प्रोद्यौगिकी के हस्तांतरण की भारी संभावनाएं खोलीं। दो देशों के बीच शिंजो अबे के नेतृत्व में द्विपक्षीय व्यापार ने रिकार्ड ऊंचाई को छू लिया। यह 2005 में 7.023 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़ कर 2018 में 172.8 बिलियन अमरीकी डालर हो गया। इसमें 146 प्रतिशत की तेजी देखी गई। 

इसी तरह भारत में जापानी निवेश 2005 में 2.8 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़ कर 2018 में 35.8 बिलियन अमरीकी डालर हो गया। भारत ने जापानी निवेश को गति देने के लिए अपने द्वार खोले थे। उल्लेखनीय है कि शिंजो अबे चीन से दूर कुछ कम्पनियों को स्थानांतरित करने पर विचार कर रहे थे। अबे के बाद यह संभावना नहीं है कि दोनों ओर से रणनीति में कोई परिवर्तन होगा क्योंकि उन्हें दोनों देशों के दुश्मन पीपुल्ज रिपब्लिक ऑफ चाइना के साथ संघर्ष करना होगा।  यह भी निश्चित है कि चीनी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी रुख तब नहीं बदलेगा जब तक शी जिनपिंग चीनी राजनीति को बढ़ावा नहीं देंगे। चीन को नंबर एक सुपर पावर बनाने की इच्छा शी रखते हैं। व्यक्तित्व उतना ही मायने रखता है जितनी नीतियां।(लेखक जे.एम.आई. के इंटरनैशनल पाॉलिटिक्स के प्रो. हैं।)- डा. डी.के. गिरी

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