‘शास्त्री और इंदिरा हरित क्रांति लाए’

Tuesday, Dec 15, 2020 - 04:42 AM (IST)

पिछले 20 दिनों से कृषि समुदाय द्वारा चल रहे निरंतर प्रदर्शन मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गए हैं। हालांकि सरकार ने मुद्दों को जब्त कर रखा है मगर दोनों पक्षों में भिड़ंत अभी जारी है। शायद यह ऐसा समय है कि हमें पीछे की ओर देखना होगा कि 60 के दशक के अंतिम दौर तथा 70 के दशक की शुरूआत के दौरान भारत कैसे खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बन गया। देश में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा इंदिरा गांधी हरित क्रांति लाए। 

नेहरू युग के अंतिम वर्ष में खाद्यान्न संकट की शुरूआत हुई क्योंकि पहली दो 5 वर्षीय योजनाओं ने कृषि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। खाद्यान्न की कमी झेल रहे राज्यों में दंगे शुरू हो गए। अमरीकी ‘फूड फॉर पीस’ नीति के हिस्से के तौर पर उस समय भारत ने पी.एल. 480 अनाज का सहारा लिया। जल्द ही भारत ने अमरीका से अनाज की आपूर्ति का संकट झेला। अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन की खाद्य नीतियों ने उनके ही अधिकारियों को गुमराह कर दिया। हालांकि इसका अंत खुशी-खुशी हुआ क्योंकि उस समय जॉनसन सत्ता छोड़ गए और भारत ने हरित क्रांति का अनुभव किया। प्रधानमंत्री शास्त्री ने 1964 में अपने पहले माह में भारी उद्योग से बदल कर मध्यम उद्योग तथा उपभोक्ता वस्तुओं और कृषि पर जोर देने का संकेत दिया। 

उन्होंने अपने कृषि मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम को उत्पादन बढ़ाने के लिए नई रणनीति बनाने का निर्देश दिया। ‘जय जवान-जय किसान’ के नारे से शास्त्री ने किसानों के साथ-साथ कृषि विज्ञानियों को भी प्रेरित किया ताकि हरित क्रांति के बीज बोए जा सकें। इस दौरान अपने कार्यकाल के कुछ महीनों के भीतर जॉनसन ने भारत तथा पाकिस्तान के प्रति खाद्यान्न सप्लाई को लेकर कड़ा रुख अपनाने का निर्णय लिया। ऐसे समय में जॉनसन ने अपने गुमराह हुए अधिकारियों को बताया कि ‘‘मैं समस्या की ओर ध्यान दूंगा।’’  उन्होंने अंतिम मिनट तक इंतजार किया जब तक कि उन्होंने निजी तौर पर लदान की देखरेख न कर ली। भारत में अमरीकी राजदूत चैस्टर बाऊल्ज ने इस सप्लाई को ‘शिप टू माऊथ’ कार्यक्रम का नाम दिया क्योंकि यह कभी भी गोदामों के माध्यम से नहीं पहुंचा। 

1966 में इंदिरा गांधी ने  प्रधानमंत्री पद को संभालने के बाद निरंतर कृषि पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखा। 1966 के मार्च महीने में बतौर प्रधानमंत्री वाशिंगटन की अपनी पहली यात्रा के दौरान इंदिरा ने सबसे पहली बार जॉनसन से जो प्राप्त की वह खाद्यान्न मदद थी। इंदिरा गांधी के करिशमाई व्यक्तित्व के आगे झुकते हुए जॉनसन ने यह स्पष्ट कर दिया कि अमरीकी सहायता के लिए दो प्रमुख शर्तें कृषि पर ध्यान केन्द्रित करने की हैं जो अति आवश्यक थीं। जैसे ही कृषि क्षेत्र में विस्तार का युग प्रारंभ हुआ भारत में चीजें बदलने लगीं। 1960 के अंतिम दौर में गेहूं की ज्यादा उत्पादकता बढ़ाने वाली किस्में प्रचलन में आ गईं। अग्रणी वैज्ञानिक डा. एम.एस. स्वामीनाथन के प्रयासों के चलते भारतीय कृषि सैक्टर और कुशल होने लगा तथा देश की खाद्यान्न की कमी को पूरा करने के निकट होता चला गया। 

इंदिरा गांधी ने हरित क्रांति को सरकार की एक प्राथमिकता बना डाला। इसके अलावा उन्होंने नए हाईब्रिड बीजों, राज्य सबसिडियों को बढ़ाने, इलैक्ट्रिकल पावर के प्रावधानों, जल, खाद्य तथा किसानों को श्रेय देना शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि भारत अनाज में आत्मनिर्भर हो गया। एक बार तो जॉनसन के साथ अपनी कड़ी वार्ता के दौरान इंदिरा ने गुस्से में यहां तक कह दिया कि, ‘‘मैं अमरीका के आगे अनाज के लिए भीख नहीं मांगूंगी।’’ उन्होंने जॉनसन पर प्रहार किए और वियतनामी लोगों के खिलाफ साम्राज्यवादी आक्रामक रुख को खत्म करने के लिए एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए। लिंडन जॉनसन की प्रतिक्रिया तीव्र हो गई और भारत की ओर लदान धीमा पड़ गया। 

जब बाद में जॉनसन हरित क्रांति जोकि प्रभावशाली हो रही थी, से संतुष्ट हो गए तो वह उदारवादी रुख अपनाने लगे और अमरीका के बोझ को अन्य देशों के साथ बांटने के लिए उन्होंने समर्थन जुटाना शुरू कर दिया। विश्व बैंक ने भी फूड सप्लाई के लिए सहायता संघ शुरू किया। आज हम आत्मनिर्भरता को पा चुके हैं क्योंकि खाद्य उत्पादन 1947 से जो उस समय 50 मिलियन टन से भी कम था, आज 250 मिलियन टन हो चुका है। विश्व में भारत सबसे ज्यादा सिंचाई वाली भूमि भी बन चुका है। 80 के दशक तक भारत न केवल आत्मनिर्भर हो गया बल्कि अनाज का निर्यात भी करने लगा। अनाज की कमी झेल रहे देशों को भारत कर्ज भी देने लग पड़ा। कई वर्षों से आने वाली सरकारों ने किसानों को राहतें दीं जिसमें बिजली तथा ईंधन पर बड़ी सबसिडियां शामिल हैं। मगर कुछ क्षेत्रों में अभी भी रणनीति बनाना बाकी है। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अनेकों स्कीमों को लेकर किसानों के समक्ष आए और अब वे सदाबहार हरित क्रांति की बात कर रहे हैं, एक ऐसा कृषि क्षेत्र जो सभी मौसमों में गुणकारी हो। एवरग्रीन पौधे जो सभी मौसमों में अपने पत्ते हरे रख सकें। हालांकि तीन नए कृषि कानूनों ने किसानों के बीच शंकाएं उत्पन्न कर दी हैं, यहां पर विचार-विमर्श और भरोसे की कमी है इसीलिए विपक्षी पार्टियों ने सरकार पर हमला करने के लिए ऐसे मौकों का फायदा उठाया। सरकार तथा किसान लेने और देने का व्यवहार अपनाएं और लम्बे चल रहे इस आंदोलन को सुलझाने का प्रयास करें।-कल्याणी शंकर
 

Advertising