शाह फैसल के ‘हसीन सपने’

punjabkesari.in Friday, Jan 18, 2019 - 04:23 AM (IST)

सन् 2010 के यू.पी.एस.सी. टापर, जम्मू-कश्मीर के आई.ए.एस. शाह फैसल ने इस्तीफा दे दिया। आजकल वह मीडिया में छाए हुए हैं। उनका कहना है कि उनका इस्तीफा केन्द्र सरकार के लिए चुनौती है। इस्तीफा देने का कारण उन्होंने बताया कि वह कश्मीरी लोगों की आए दिन होने वाली हत्याओं से परेशान हैं। युवकों को पढऩे-लिखने के बाद बंदूक उठानी पड़ रही है। वह इनके लिए कुछ करना चाहते हैं। 

बताते चलें कि शाह फैसल के पिता को आतंकवादियों ने मार दिया था। अपने बयानों में वह कश्मीरी पंडितों की वापसी की बात तो करते हैं मगर आतंकवादी बन जाने वाले युवकों के प्रति सहानुभूति भी रखते नजर आते हैं। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि अगर कोई सैनिक भी मारा जाता है तो उन्हें अफसोस होता है। उन्होंने यह भी कहा कि फुलब्राइट स्कॉलरशिप पर जब वह हार्वर्ड, अमरीका में पढऩे गए तब उन्हें कश्मीर के लोगों के दुखों का ज्यादा एहसास हुआ। इससे यह भी पता चलता है कि कश्मीर के बारे में अमरीकन यूनिवर्सिटीज की राय भारत सरकार से कितनी अलग है। राग हम बेशक अपनी मित्रता का गाते रहें। 

सच तो यह है कि कश्मीर में अब किसी राजनीतिक दल में यह हिम्मत नहीं कि वह आतंकवादियों का विरोध कर सके। शाह फैसल सपना देख रहे हैं तो जरूर देखें। याद करने की बात है कि महबूबा मुफ्ती की बहन रूबिया सईद को आतंकवादी अपहरण करके ले गए थे और उन्हें वापस करने के बदले में भारत सरकार को कई आतंकवादी छोडऩे पड़े थे, जिनमें पाकिस्तान का खूंखार आतंकवादी हाफिज सईद भी शामिल था, वही हाफिज जो आज तक भारत के लिए सिरदर्द बना हुआ है। उस समय रूबिया और महबूबा के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद केन्द्र सरकार के गृहमंत्री थे लेकिन महबूबा को भी आतंकवादियों से अक्सर सहानुभूति रहती है।

जम्मू-कश्मीर के पूर्व गवर्नर जगमोहन ने अपनी पुस्तक में पी.डी.पी. को आतंकवादियों और अलगाववादियों की सबसे समर्थक पार्टी कहा था। जगमोहन खुद एक बड़े नौकरशाह थे। शाह फैसल कौन सी नई लकीर खींचेंगे, यह तो वही जानें। याद रहे कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी यू.पी.एस.सी. करने के बाद आई.आर.एस. अफसर रहे हैं। वह भी अपने पद से इस्तीफा देकर राजनीति में आए, लेकिन राजनीति में उन्हें जितनी सफलता मिली, वह अक्सर इन बड़े अधिकारियों को नहीं मिलती है। 

कालिख से नहीं बच सकते
शाह फैसल ने जैसे ही इस्तीफा दिया, पार्टियां उन्हें लपकने के लिए दौड़ पड़ीं लेकिन शाह ने कहा कि वह अभी विचार कर रहे हैं। वह चुनाव तो लडऩा चाहते हैं लेकिन किस पार्टी से, अभी इसका फैसला नहीं किया है। अभी वह राजनीति में नए हैं, इसलिए उनके बयानों में सादगी और ईमानदारी नजर आती है, मगर जल्दी ही वह भी अन्य नेताओं की तरह खुर्राट हो जाएंगे क्योंकि काजल की कोठरी में आप कालिख से बच नहीं सकते। इसके अलावा शाह फैसल कश्मीर में बेहद लोकप्रिय हैं। जब उन्होंने यू.पी.एस.सी. टाप किया था तो उन्हें कश्मीर की बदलती धारा और युवाओं के रोल मॉडल की तरह पेश किया गया था। उनके पोस्टर लगाए गए थे। वह वहां बड़े पदों पर रहे हैं और अब सोच रहे हैं कि राजनीति में भी उन्हें उतनी ही सफलता मिलेगी। उनकी लोकप्रियता वोटों में तबदील हो जाए, यह कोई जरूरी नहीं। 

हाल ही में छत्तीसगढ़ में ठीक चुनाव से पहले रायपुर के कलैक्टर ओ.पी. चौधरी ने आई.ए.एस. की नौकरी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी ज्वाइन की थी। ओ.पी. चौधरी बहुत लोकप्रिय अफसर भी थे। उनकी लोकप्रियता को देखकर ही भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें चुनाव में उतारा। एक चुनावी सभा के दौरान चौधरी वोटर्स से बोले कि या तो मेरा साथ देना वरना मैं कहर बनकर टूटूंगा। सोचिए कि जिन वोटर्स को चुनाव के दौरान बड़े-बड़े नेता लुभाने, हाथ जोडऩे, माई-बाप मानने में कोई कसर नहीं छोड़ते, उन्हें इस तरह से धमकाना कि या तो वोट देना वरना देख लूंगा,  नतीजा, चौधरी चुनाव हार गए। न कलैक्टर रहे और न ही नेता बन पाए। ‘आधी छोड़ साझी को धावे, आधी मिले न साझी पावे’ वाली कहावत को उन्होंने पूरी तरह साबित किया। 

अफसरों की गलतफहमी
दरअसल आज भी हमारे देश में आई.ए.एस. अफसर के पास बेशुमार अधिकार हैं। एक कलैक्टर और डी.एम. को तो जिले का मालिक कहा जाता है। इसलिए इन अफसरों को गलतफहमी हो जाती है कि वे जो चाहें सो कर सकते हैं। ये कामयाब अफसर हैं तो कामयाब राजनेता भी बन सकते हैं। जिस दौरान ये आई.ए.एस. होते हैं तो बड़े-बड़े नेता भी अपना काम निकलवाने के लिए इन्हें सलाम बजाते हैं। जहां से गुजरते हैं, लोग हाथ जोड़े दिखते हैं। इस ताकत को ये अपनी असली ताकत ही नहीं, हमेशा और हर क्षेत्र की ताकत समझ लेते हैं। भूल जाते हैं कि ताकत मात्र इनके पद की होती है। 

बहुत कम आई.ए.एस. ऐसे होंगे जो राजनीति में सफल हो पाए। इन दिनों एक रिवाज यह भी चल पड़ा है कि आई.पी.एस., आई.ए.एस., जज, सेना के बड़े अफसर अवकाश प्राप्त करते ही राजनीति की तरफ  दौड़ते हैं या चैनल्स पर आकर अपनी वीरता प्रदर्शित  करते रहते हैं। वे सब अपने को संसार का सबसे बड़ा ईमानदार साबित करते रहते हैं। उनमें से कई तो सारी सफलता का श्रेय अपने कार्यकाल और असफलता का सेहरा आज के अफसरों  की कार्यशैली के सिर बांधते हैं। 

ऐसा ही हाल पत्रकारों का होता है। एक बार मशहूर पत्रकार अजय चौधरी ने इस लेखिका को बताया था कि जब उदयन शर्मा पत्रकारिता में थे तो उस समय के बड़े-बड़े राजनेता जिनमें अर्जुन सिंह भी शामिल थे, उनकी कार का दरवाजा खोलते थे। लेकिन जब उदयन शर्मा राजनीति में आए तो भूमिका बदल गई। वह अर्जुन सिंह की कार का दरवाजा खोलने लगे। कहीं शाह फैसल का हाल भी तो यही नहीं होगा? उनके बारे में ब्रज प्रदेश में अक्सर कही जाने वाली उस कहावत की याद आती है  कि ‘चौबे जी छब्बे जी बनने चले थे, दूबे जी बनकर लौटे’।-क्षमा शर्मा


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