धार्मिक एकता से ही ईश्वर के दर्शन संभव

punjabkesari.in Saturday, Feb 18, 2023 - 04:26 AM (IST)

हमारा देश आध्यात्मिक संतों, महात्माओं, गुरुओं और वेदों को सभ्यताओं का पोषक मानने वाली विभूतियों, दार्शनिकों तथा महापुरुषों की जननी रहा है। कह सकते हैं कि अध्यात्म जीवन की नींव है। कैसी भी परिस्थिति हो, मनुष्य को उसे समझने, समाधान खोजने और उससे बाहर निकलने के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। लक्ष्य सिद्ध होने के बाद प्राप्त होने वाले आनंद की चरमावस्था यही है।

18वीं सदी भारत के इतिहास में बहुत उथल-पुथल भरी रही। अंग्रेजी शासन अपनी जड़ें जमा रहा था और भारतीय जनमानस उसे सफल न होने देने के लिए क्रांतिकारी विचारधारा पर चल रहा था। फिरंगी हमारी कमजोरियों को खोजकर हमें अपना गुलाम बनाने की हरसंभव कोशिश कर रहे थे। यहां तक कि धर्म के आधार पर हमें आपस में लड़ाने और बांटने का खेल रच रहे थे। 

रामकृष्ण परमहंस : ऐसे में बंगाल की धरती पर एक साधारण और गरीबी झेल रहे परिवार में 18 फरवरी को एक बालक का जन्म होता है जिसका नाम गजाधर रखा जाता है जो बड़ा होकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के रूप में प्रसिद्धि पाता है। आज हम उनका स्मरण और उनके द्वारा किए गए अनेक प्रयोगों की बात इसलिए करना चाहते हैं क्योंकि आज सभी धर्मों के अनुयायियों में अपने धर्म को दूसरे से बेहतर बताने की होड़ लगी हुई है। इसके लिए वे आपस में लड़ाई-झगड़ा और संघर्ष तक करने पर आमादा हैं। इस बात का महत्व इसलिए भी है क्योंकि जहां एक ओर यह कहा जाता है कि कोई भी धर्म आपस में बैर करना नहीं सिखाता लेकिन कुछ लोग इसे लेकर ईष्र्या, द्वेष और नफरत फैलाने का कोई भी मौका नहीं छोडऩा चाहते ताकि अस्थिरता बढ़े और उनके निहित स्वार्थ सिद्ध हो सकें। 

स्वामी रामकृष्ण को एेसे ही परमहंस नहीं कहा गया। उसका कारण था कि वह एक शिक्षक की भांति अपने शिष्यों से कुछ कहने से पहले स्वयं उस बात को अपने पर लागू कर के देखते थे और जब पूरी तरह संतुष्ट हो जाते तब ही उस पर चलने के लिए कहते थे। उनका जन्म ङ्क्षहदू धर्म में हुआ था और वह दूसरे प्रमुख धर्मों विशेषकर इस्लाम और ईसाइयत को समझना चाहते थे। इसे जानने के लिए उन्होंने स्वयं को इन दोनों धर्मों के प्रवर्तकों को अपने अंदर अर्थात अपनी आत्मा के साथ मिला कर देखने का प्रयोग किया। उन्होंने पाया कि वह जितने हिंदू हैं, उतने ही मुस्लिम और ईसाई हैं। कुछ अंतर नहीं है। 

कहते हैं कि जब नरेंद्र यानी स्वामी विवेकानंद उनसे अपनी गुरु की खोज के दौरान पहली बार मिलने गए तो रामकृष्ण के नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई और उन्होंने इस युवक को नर अर्थात नारायण का अवतार कहा। नरेंद्र कुछ समझ नहीं पाए लेकिन जैसे-जैसे वह समीप आते गए, दोनों एक-दूसरे में समाहित और एकाकार होते गए। गुरु और शिष्य की इससे सुंदर व्याख्या और क्या होगी? यह प्रयोग ऐसा नहीं था कि केवल नरेंद्र के साथ होता था बल्कि प्रत्येक उस साधक अर्थात विद्यार्थी के साथ होता था जो उनसे शिक्षा ग्रहण करने अर्थात उनका शिष्य बनने की इच्छा से उनके पास आता था। 

नरेंद्र जब तीसरी बार मिलने पहुंचे तो केवल रामकृष्ण द्वारा उन्हें छूने भर से उनका पूरा शरीर रोमांचित हो उठा। नरेंद्र के दृढ़ मन को एक झटका-सा लगा और उन्हें आभास हुआ कि यह व्यक्ति साधारण नहीं है। एक गुरु की भांति उनकी प्रत्येक शंका का समाधान कर सकता है। उसके बाद 5 वर्ष तक नरेंद्र उनकी प्रत्येक कथनी और करनी को तर्क की कसौटी पर कसते रहे। 

अपने अस्तित्व की पहचान : जहां तक अध्यात्म और धर्म की शिक्षा का संबंध है तो यह दोनों ही अपने को जानने और समझने के लिए जरूरी हैं क्योंकि यह पता होना ही चाहिए कि मैं क्या हूं, मेरा अस्तित्व क्या है और संसार में आने का मेरा अर्थ क्या है ? यदि हम आज की बात करें तो धर्म का अर्थ हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई आदि होकर रह गया है जबकि ये सब केवल जिंदगी जीने का एक तरीका या सिद्धांत हैं और परम सत्य अर्थात ईश्वर की आराधना करने और उसकी खोज करने तथा उस तक पहुंचने का साधन हैं। उसे चाहे जिस नाम से भी पुकारो, लक्ष्य वही सत्य है। 

आज के दौर में जब धर्म के अनुसार राष्ट्र बनाने की बात सुनाई देती है तो वह बचकानी लगती है। इसे लेकर घोषणा करने वालों के अपने स्वार्थ हैं, सामान्य व्यक्ति के मन को विचलित करने का प्रयास हैं, इसका न केवल विरोध होना चाहिए बल्कि ऐसे लोगों के प्रति कठोर कार्रवाई भी हो क्योंकि यह समाज को बांटने की कोशिश के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धर्म की शिक्षा तब कट्टरपन बन जाती है जब ईश्वर या सर्वशक्तिमान की सत्ता को नकारने के प्रयास शुरू हो जाते हैं और तब धर्म हमें बेकाबू कर देता है, परिणामस्वरूप दंगे होते हैं और जीवन बिखरने लगता है।

धर्म का लक्ष्य : धर्म मन की शांति के लिए है, उससे समाज में खुशहाली की उम्मीद की जा सकती है। धर्म मानवता की सेवा के लिए है, उसका इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए किया जा सकता है। धार्मिक संस्थाओं द्वारा गरीबी दूर की जा सकती है, जरूरतमंद विद्यार्थियों की मदद की जा सकती है, नौकरी या कारोबार करने के लिए सहायता दी जा सकती है, शिक्षा के प्रसार के लिए प्रबंध किए जा सकते हैं, स्वास्थ्य सेवाओं की पूर्ति की जा सकती है।-पूरन चंद सरीन 
 


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