विद्यालयों में "जातिगत भेदभाव" देश व समाज के लिए घातक

Sunday, Feb 12, 2017 - 04:03 PM (IST)

देश विश्व की महाशक्ति बनने के ख्वाब देख रहा है लेकिन समाज अभी भी अपनी सोच और नजरिए को नहीं बदल पा रहा। जिन सामजिक बुराईयों को जड़ से मिटाने के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों व समाज सुधारकों ने लंबी लड़ाई लड़ कर बलिदान दिया आज समाज में कुछेक लोगों ने उनका संघर्ष व्यर्थ गंवा रहे हैं यह बेहद दुखद है । देश व प्रदेश में आज भी व्याप्त आछूत जैसी सामाजिक बुराइयों ने अपनी जड़े जमा रखी हैं। वैसे तो छुआछूत कई प्रकार से फैला हुआ है लेकिन मेरा विषय स्कूलों में फैले छुआछूत को लेकर है। आए दिन देश के विभिन्न राज्यों से खबरें आती है कि फलां-2 जगह स्कूली बच्चों से दोपहर के भोजन में भेदभाव किया गया कभी अलग-2 बैठा कर भोजन परोसने की बात तो कभी अलग-2 चूल्हे पर भोजन बनाने की बात आदि।

मैं बात करुं अपने हिमाचल प्रदेश की तो यहां भी रुक -2 के एक के बाद एक ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं। आधुनिकता के इस दौर में भी लोग छुआछूत की दीवारों को नहीं मिटा पा रहे । सरकारी विद्यालयों में हर वर्ग हर जाति से संबंधित बच्चा समानता के आधार पर शिक्षा ग्रहण करता है लेकिन समानता तो शायद कुछेक लोगों के लिए संविधान के पृष्ठ पर लिखी एक बात बन कर रह गई है। पिछले वर्ष सिरमौर जिले के एक राजकीय प्राथमिक पाठशाला में ऐसा ही मामला सामने आया है। इसी तरह शिमला जिला के प्राइमरी स्कूल मूलकोटी में मिड-डे-मील भोजन वितरण के दौरान आरक्षित व अनारिक्षत बच्चों के साथ छुआछूत व भेदभाव का बर्ताव देखने सुनने को मिला।

कुछ वर्ष पहले सिराज क्षेत्र के विद्यालयों में ऐसी कई घटनाएं घटित हुई राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला थाची में दलित मिड-डे मील वर्कर के कारण स्वर्ण जाति के बच्चों द्वारा मिड-डे मील खाना बंद करना हो या फिर क्षेत्र के स्कूलों में जातिगत आधार पर मिड-डे मील में अनुसूचित जाति के बच्चों को अलग-अलग पंक्तियों में जातिगत आधार पर बिठाने का मामला हो। इसी तरह कई जगह समाज के एक वर्ग द्वारा विद्यार्थियों व अभिभावकों को इस के संदर्भ में गांव से निकालने तडीपार करने की घटनाएं हमें आज भी मानसिक गुलामी का अहसास करवाती हैं। कभी दलित या अनुसूचित जाति के लोगों के हाथ से कुछ नहीं खाना तो कभी कुछ और आम बात हो गई है।

इसी कड़ी में साक्षरता दर में सबसे अग्रणी जिले हमीरपुर के भोटा क्षेत्र में सरकारी स्कूल में भी एक ऐसा ही मामला सामने आया है। क्षेत्र की राजकीय प्राथमिक पाठशाला जिन्दवी में तैनात मिड डे मील वर्कर के हाथ से अभिभावक बच्चों को इसलिए खाना नहीं खिलवा रहे क्योंकि वह दलित है। अभिभावक अपने बच्चों को घर से ही टिफिन दे रहे हैं। इन सब घटनाओं के पीछे कोई शिक्षकों को दोषी मानता है तो कोई व्यवस्था को। कुल मिलाकर देखा जाए तो इसमें दोषी व्यवस्था या अकेले शिक्षक नहीं मुख्य दोषी है हमारे समाज के वह लोग जो अभी भी छुआछूत की गुलामी से घिरे हुए हैं।

ऐसी घटनाएं बच्चों में जात-पात की भावना को समाप्त करने की बजाए और बढावा दे रही है। वहीं शिक्षा के मंदिर में ऐसी घटनाएं सभ्य समाज के लिए घातक ही नहीं, बल्कि दुर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक है। ऐसी घटनाएं समाज को कलंकित करने का काम करती हैं। बडा़ दुख होता है जब ऐसी घटनाओं के बारे में देखने सुनने को मिलता है तब एक ही प्रश्न मन में उठता है कि आखिर हमारा समाज किस और जा रहा है। छोटे से प्रदेश में इस तरह की घटनाएं बडी शर्मनाक है। हैरानी तो तब है जब इन्हीं विद्या मंदिरों में हम बच्चों को समानता का पाठ पढाते है लेकिन इस तरह के वाक्य को नहीं रोक पा रहे। क्या बीतती होगी उन बच्चों पर जिनको इस तरह के वाक्यों से गुजरना पड़ता है। मुझे याद आता है संविधान के शिल्पी डॉ. बीआर अंबेडकर 20वी सदी के महानायक के साथ घटित वह वाक्य जब उन्हें बचपन से ही ऐसे भेदभाव का शिकार होना पड़ा। शायद इसी ने उनके जीवन की दिशा भी तय की। उनका संबंध हिंदू महार जाति से था और इस जाति को अछूत समझा जाता था।

पिता ब्रिटिश सेना में सूबेदार थे फिर भी आर्मी स्कूल में भी इनको छुआछूत का शिकार होना पड़ा। दलित बच्चों को कक्षा से बाहर बिठाना, स्कूल के नल से पानी नहीं पीने देना और अपमान करना आदि बातों ने अंबेडकर को बहुत परेशान किया लेकिन वह ख़ुद को इन सब चीजों से मज़बूत करते रहे। एक बार तो शोषित वर्गों के लिए अंबेडकर की पृथक निर्वाचन व्यवस्था की मांग से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी से उनका टकराव भी हुआ। यह उन्हीं की देन थी जो अनुच्छेद 17 को संविधान में जोड़ा गया, जिसमें “अस्पृश्यता” उन्मूलन व किसी भी तरह से इसे व्यवहार में लाने की अनुमति ना देने का प्रावधान किया गया “अस्पृश्यता” के नाम पर किसी भी तरह का भेदभाव को अपराध मानते हुये कानून के अन्तर्गत दंडित करना भी सम्मलित है।

प्रदेश में आए दिन घटित हो रही इन घटनाओं को रोकने के लिए प्रदेश के महामहिम राज्यपाल आचार्य श्री देवव्रत जी ने स्वयं संज्ञान लेकर कोटला गांव में दलित व स्वर्ण वर्ग के बच्चों के एक साथ खाना खाने को लेकर उपजे विवाद को खत्म करने के लिए गांव में सामूहिक भोजन का कार्यक्रम रखा। इससे पहले वहां के एक-2 व्यक्ति से बातचीत की, जातपात के भेदभाव को मिटाने की बात समझाई गई। जब खाना खाने की बारी आई गांववासी भी उस समय राज्यपाल की बात को मानते नजर आए, लेकिन राज्यपाल की गांव से रवानगी होते ही गांव में एकसाथ खाना खाने को लेकर फिर विवाद पैदा हो गया।

राज्यपाल ने सभी ग्रामीणों से सामूहिक भोजन करने का आह्वान किया था, लेकिन जब राज्यपाल भोजन करने बैठे तो उनके साथ सिर्फ दलित लोगों को ही बैठा दिया गया और स्वर्ण जाति से सिर्फ एक ही व्यक्ति खाना खाने बैठा। दलित समुदाय के लोगों का कहना था कि हमारे बच्चों को स्वर्ण वर्ग के लोगों ने रोका था। आखिर विवाद को रोकने के लिए अलग-2 पंक्तियों में बैठा कर भोजन करवाया गया। कुल मिलाकर जो लोग प्रदेश के राज्यपाल द्वारा की पहल का अनुसरण नहीं कर सके उनसे और क्या उम्मीद की जा सकती है।

प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी ऐसी घटनाओं से क्षुब्ध होकर विभाग व अधिकारियों को आदेश दिए कि ऐसी घटनाओं पर तुरंत लगाम लगाई जाए तथा जातिवाद का बीज फैलाने वाले तत्वों पर कार्रवाई की जाए। प्रदेश सरकार व शिक्षा विभाग ने जातिगत आधारित भेदभाव खत्म करने के लिए सभी स्‍कूलों में स्‍टूडेंट्स को उनके रोल नंबर से मिड डे मील बांटने का फैसला भी लागू किया। बावजूद ऐसी घटनाएं बंद नहीं हुई बस उनका तरीका बदल गया। आप किसी भी चीज को तब तक जड़ से नहीं मिटा सकते जब तक समाज उसे अपने अंतर्मन से नहीं अपनाता।

आज जरूरत है समाज को जागरूक करने कि और उसके लिए शिक्षा के विभिन्न तत्वों की जिम्मेदारी बनती है जिनमें समाज,शिक्षक, व व्यवस्था अहम भूमिका अदा कर सकती है। समाज के वे लोग अपनी सोच के लिए दोषी हैं जो इसको बढ़ावा देते हैं वहीं वह शिक्षक भी दोषी हैं जो ऐसी घटनाओं को रोकने की बजाए पर्दे के पीछे बढ़ाते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कुछेक विद्यालयों में कार्यरत शिक्षक खुद भी जातिगत व अस्पृश्यता का भेदभाव करते हैं। यह बात अलग है कि हकीकत सामने नहीं आती बस दबी रहती है। वहीं व्यवस्था व प्रशासन इसलिए जबावदेह है क्योंकि वह ऐसा कृत्य करने वालों पर कानून होने के बावजूद कठोर कार्रवाई नहीं कर पाता।

मैं खुद सरकारी स्कूल में शिक्षक हूं मेरे विद्यालय व कक्षाओं में भी भिन्न-2 जाति वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं मैंने देखा है कि ज्यादातर लोग संवेदनशील मुद्दों पर चर्चा करने से हिचकिचाते हैं कोई भी कुरीति तब तक खत्म नहीं हो सकती जब तक उस पर खुल कर बात न हो मैं खुद बच्चों से इस विषय पर खुल कर बात करता हूँ लेकिन मैंने किसी भी बच्चे से आज दिन तक यह नहीं सुना कि जातिवाद या अस्पृश्यता होनी चाहिए। सभी एक स्वर में कहते हैं कि हम तो एक जैसे हैं। बच्चे तो कोरे कागज की तरह होते हैं यह शिक्षक, अभिभावकों व समाज पर है वह उसके मन में कुछ मर्जी उकेर दें।

हमारा प्रदेश देश के लिए कई समाजिक कार्यों में उदाहरण बन कर पेश हुआ है लेकिन ऐसी कुरीतियों के कारण शर्मसार भी होना पड़ता है। जातिवाद व अस्पृश्यता जैसी चीजें एक सभ्य समाज के लिए ही खतरनाक नहीं बल्कि यह देश - प्रदेश की अखंडता व एकता के लिए भी खतरा है। हम तब तक एक शक्तिशाली व विकसित राष्ट्र का सपना नहीं देख सकते जब तक समाज ऐसी कुरीतियों व सोच में बंटा रहेगा।

 


                                                                                                                          राजेश वर्मा

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