सरदार पटेल की ‘कार्यशैली’ की आज भी जरूरत

Saturday, Nov 02, 2019 - 02:47 AM (IST)

स्वतंत्रता के बाद यदि देश 550 से ज्यादा रियासतों में बंटा हुआ रह जाता और उनके राजा, महाराजा और नवाब आजाद भारत के शासक बन जाते तो क्या होता, यह सोचकर ही भय लगता है। अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह से सबक लेते हुए इन सबको खुश रखने में ही अपनी भलाई समझी।

उनके शौक मौज-मस्ती को हवा देने और निरंकुश होने तक को अपनी सरपरस्ती में ले लिया, जुल्म और अत्याचार से लेकर उनकी सनक और अजीब हरकतों को बढ़ावा दिया और इस तरह जो राज्य अपनी न्यायप्रियता के लिए जाने जाते थे, वे भी प्रजा को लूटने लगे। अगर कहीं सरदार पटेल इस काम को अपने हाथ में न लेते और इन सब को लगभग हांकने तक की नीति न अपनाते तो आज हम जिस प्रजातांत्रिक ढांचे में रहकर खुलकर सांस ले पा रहे हैं, विश्व में नाम कमा रहे हैं, वह कदापि न होता। 

विलासिता में डूबे शासक 
इतिहासकारों और हमारे नेताओं की जीवनी लिखने वाले लेखकों ने उस समय का जो वर्णन किया है उसे पढ़कर यकीन नहीं होता कि हम किस हालत में थे। अंग्रेजों ने इन शासकों के लिए सभी रास्ते बंद कर रखे थे और वे अपना वक्त पोलो खेलकर या शिकार करते हुए व्यतीत करते थे। ये अंग्रेजों की चापलूसी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। एक उदाहरण है। जब पिं्रस ऑफ वेल्स, बाद में 7वें एडवर्ड, भारत आए तो एक महाराजा ने हुक्म दिया कि उनकी चाय के लिए जो पानी उबाला जाए वह बैंक नोटों की गड्डियां जलाकर किया जाए। समझ सकते हैं कि उसके पास कितना पैसा होगा और फिर नाच-गाने, महफिल सजाने और अंग्रेजों को शिकार पर ले जाने से लेकर उनके मनोरंजन के लिए सभी तरह का प्रबंध करने पर कितना भी खर्च करना पड़े, कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जाती थी। 

इस तरह के विचित्र हालात थे कि स्वार्थ, अय्याशी का बोलबाला था और प्रजा का पालन करना और उनके सुख-दु:ख का ध्यान रखना दूर की बात थी जो अंग्रेजों के लिए भारत पर शासन करते रहने के लिए बहुत उपयुक्त थी। हालांकि कुछेक रियासतों जैसे कि मैसूर, बड़ौदा, त्रावणकोर, कोचीन जहां शिक्षा का प्रसार भी था और चुनी हुई विधान सभाएं थीं, में प्रजा का ध्यान रखा जाता था, उन्हें छोड़कर बाकी सब जगह हिटलरशाही और पिछड़ेपन का साम्राज्य था। ज्यादातर रियासतों की अपनी सेना नहीं थी, पुलिस रख सकते थे और वे किसी भी स्थिति के लिए अंग्रेज सरकार के मोहताज थे। 

भारत और पाकिस्तान का बंटवारा तय हो चुका था और अंग्रेजों की चाल के मुताबिक कोई भी रियासत दोनों में से किसी एक के साथ जाने या स्वतंत्र रहने की घोषणा कर सकती थी। इन्हें जितनी फिक्र अपने रुतबे, विलासिता और तोपों की सलामी मिलने की थी, उससे कहीं अधिक आजाद भारत में अपनी हुकूमत और वर्चस्व बनाए रखने की थी। सर कोरफील्ड जैसे अंग्रेज इन रियासतों के शासकों को भड़काने में लगे हुए थे कि वे आजाद भारत में अपनी हिस्सेदारी की ज्यादा से ज्यादा मांग करें और बराबर धमकी देते रहें कि उनकी नाजायज मांगें न मानने का नतीजा कितना खतरनाक हो सकता है? 

कैसे-कैसे शासक 
इन विकट परिस्थितियों में सरदार पटेल के सामने जबरदस्त चुनौती थी कि देश को खंड-खंड होने से कैसे रोका जाए और इसके साथ ही जिन्ना की चाल को कैसे विफल किया जाए जो रियासतों को पाकिस्तान के साथ विलय करने के लिए सभी तरह के हथकंडे अपना रहा था। विडम्बना यह कि केवल 40 दिनों में 15 अगस्त से पहले सब कुछ किया जाना था। बीकानेर, पटियाला, ग्वालियर और बड़ौदा जैसी कुछ महत्वपूर्ण रियासतों ने भारत में विलय की सहमति दे दी थी लेकिन हैदराबाद के निजाम और कश्मीर के महाराजा जैसे लोग अपनी खिचड़ी अलग पकाने का ख्वाब देख रहे थे। 

जोधपुर के महाराजा को तो जिन्ना ने खाली कागज पर दस्तखत करके भी दे दिया था कि वह विलय की जो भी शर्तें चाहें इस पर लिख लें। उनके साथ जैसलमेर के महाराज कुमार थे जिन्हें दाल में कुछ काला लगा और जिन्होंने समझाया कि जिन्ना के जाल में फंसने के बाद जाले में फंसी मकड़ी जैसी उनकी हैसियत हो जाएगी। अब इस कोरे कागज पर जिन्ना के दस्तख्त के बल पर भारत के साथ विलय करने के लिए अपनी मांगें मनवाने की कोशिश हुई जो पटेल के सहयोगी वी.पी. मैनन की सूझबूझ से सफल नहीं हो  पाई। 

इसी तरह भोपाल के नवाब और इंदौर के महाराजा ने अपनी अकड़ दिखाई। नवाब ने हस्ताक्षर कर दिए लेकिन 15 अगस्त से पहले घोषणा न करने को कहा। इंदौर के महाराजा ने दस्तखत न करने का मन बनाया और ट्रेन से दिल्ली पहुंचे तथा अपने डिब्बे को साइङ्क्षडग में खड़ा कर सरदार पटेल को वहां आकर मिलने का संदेश भिजवाया। पटेल ने राजकुमारी अमृत कौर को मिलने के लिए भेज दिया जिन्हें देखकर महाराजा अपनी चाल भूल गए और उन्हें उनकी औकात समझ में आ गई। वह उनके साथ सरदार पटेल से मिलने गए और उनसे कहा कि क्योंकि भोपाल के नवाब ने दस्तखत नहीं किए हैं तो वे भी नहीं करेंगे। जब नवाब के दस्तखत दिखाए गए तो उन्हें यकीन नहीं हुआ क्योंकि दोनों ने विलय न करने का तय किया था। उन्होंने दस्तावेज देखकर चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए और लौट गए।

जूनागढ़ के नवाब को जिन्ना ने पाकिस्तान के साथ विलय करने के लिए प्रोत्साहित किया जबकि भौगोलिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं था। जहां सरदार पटेल ने कुछ छोटी-छोटी मुस्लिम बहुल रियासतों को पाकिस्तान के साथ विलय करने की सलाह देकर ईमानदारी दिखाई, वहीं जिन्ना ने भारत को खंडित करने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी। जूनागढ़ इसका उदाहरण है। 

उसने अपने प्रधानमंत्री नवाज भुट्टो को शासन की बागडोर सौंप रखी थी जिसने जूनागढ़ के पाकिस्तान के साथ विलय की घोषणा कर दी जिसने रियासत में खलबली मचा दी क्योंकि अस्सी प्रतिशत आबादी गैर मुस्लिम थी और पाकिस्तान से तीन सौ मील की दूरी को केवल समुद्र के रास्ते तय किया जा सकता था। यह निश्चित तौर पर जिन्ना का कुचक्र था जिसे तोडऩे में सरदार पटेल सफल हुए और जनता के भारी विरोध के कारण नवाब अपने कुत्तोंं की फौज, साढ़े सात लाख पौंड से भी अधिक रकम लेकर पाकिस्तान भाग गया और उसका प्रधानमंत्री भी जिन्ना द्वारा कोई मदद न करने के कारण भारत को प्रशासन सौंपकर चला गया। 

इस तरह 15 अगस्त तक हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर भारत में सभी रियासतों का विलय हो गया। जहां तक कश्मीर की जिम्मेदारी सरदार पटेल की थी लेकिन पंडित नेहरू ने अपने भावनात्मक संबंधों की दुहाई देकर इसे अपने हाथ में ले लिया। नेहरू को शेख अब्दुल्ला की दोस्ती पर भरोसा था जबकि सरदार पटेल का अब्दुल्ला पर कतई विश्वास नहीं था। शासन मित्रता पर नहीं चलाया जा सकता और इसी भूल की भारी कीमत अब तक चुकाने को देश मजबूर था। 

हैदराबाद के निजाम को सही रास्ते पर लाए पटेल
हैदराबाद के निजाम को सही रास्ते पर लाने के लिए सरदार पटेल ने नेहरू को दूर रखते हुए वे सब कदम उठाए जो एक घमंडी, कंजूस, बेशुमार दौलत के बल पर दुनिया को अपने कदमों पर झुका सकने का सपना पालने वाले बेवकूफ  इंसान की अक्ल ठिकाने पर लाने के लिए उठाए जा सकते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि निजाम को भारत के साथ विलय करने के लिए हामी भरनी पड़ी। 

सरदार पटेल ने अपनी हृदय की गम्भीर बीमारी की अवस्था में भी सभी रियासतों को एक झंडे के नीचे खड़ा करने के काम में कोई कसर नहीं छोड़ी और राजपूताना, पंजाब, हिमाचल से लेकर सौराष्ट्र तक अपनी ध्वजा पताका फहराई। इसी तरह उड़ीसा, मध्य प्रदेश तथा अन्य स्थानों पर एकता की ऐसी लहर बनाई कि सब उसमें शामिल होते गए। सरदार पटेल को अपनी अंतिम सांस तक यह पीड़ा चुभती रही कि भारत की आजादी के लिए पाकिस्तान के रूप में बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी, हिंसा का तांडव देखना पड़ा और सब से बड़ी बात यह कि कश्मीर की समस्या न सुलझने के कारण पाकिस्तान के साथ हमेशा की दुश्मनी हो गई। 

वह इतने दूरदर्शी थे कि चीन की असलियत समझ चुके थे और इस बारे में नेहरू की आंखें खोलने के लिए 7 नवम्बर, 1950 को उन्होंने जो पत्र उन्हें लिखा वह एक ऐतिहासिक दस्तावेज तो है ही, साथ में आज भी चीन की नीयत समझने के लिए काफी है। सरदार पटेल एक साधारण परिवार में जन्मे एक ऐसे राष्ट्रीय योद्धा थे जो परिस्थितियों को अपने अनुकूल करना जानते थे और निर्भय होकर अपने लक्ष्य को साधने के लिए सभी अस्त्र-शस्त्र साथ लेकर चलने वाले महापुरुष थे।-पूरन चंद सरीन 
 

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