समीर वानखेड़े तथा आरक्षण व धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे

Monday, Nov 01, 2021 - 03:20 AM (IST)

समीर वानखेड़े के अनुसूचित जाति के सर्टीफिकेट बारे विभाग ने हमें 2 मुद्दों की समीक्षा करने का अवसर प्रदान किया है। पहला है आरक्षण तथा दूसरा धार्मिक स्वतंत्रता का है। आरक्षण के मामले में भारत हिंदू, सिख तथा बौद्ध दलितों को सुप्रीमकोर्ट तक पहुंच की इजाजत देता है लेकिन ईसाई तथा मुसलमान दलितों को नहीं। पूर्ववर्ती सरकार द्वारा गठित तथा पूर्व न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता वाली एक समिति ने सुझाव दिया था कि आरक्षण का दायरा मुसलमानों सहित सभी दलितों तक बढ़ाया जाना चाहिए मगर उनके सुझावों को लागू नहीं किया गया। निश्चित तौर पर आज मुसलमानों की भारत में कोई राजनीतिक एजैंसी नहीं है और वे ऐसे आरक्षणों के लिए मांग नहीं कर सकते, वे जेल से बाहर रहने तथा सड़कों पर यातनाएं देने से बचने में व्यस्त हैं। 

भारत मुसलमानों तथा ईसाइयों सहित अनुसूचित जनजाति के सभी लोगों को अनुसूचित जाति श्रेणी के अंतर्गत आरक्षण देता है और निश्चित तौर पर मुसलमानों तथा ईसाइयों के लिए अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण भी उपलब्ध हैं। यह केवल अनुसूचित जाति श्रेणी है जिसमें समीर वानखेड़े ने आवेदन किया है जिससे उन्हें इंकार कर दिया गया।  वानखेड़े के पिता दलित थे तथा मां एक मुसलमान। ऐसा आरोप है कि वह खुद एक मुसलमान है और इसलिए अनुसूचित जाति श्रेणी के अंतर्गत उनका आवेदन अवैध है। दलित तथा आदिवासी, जिन्होंने धर्म परिवर्तन किया है संवेदनशील हैं क्योंकि  देश सर्टीफिकेट पर उन्हें ‘ईसाई आदिवासी के तौर पर पंजीकृत करने को कहता है जिससे उन्हें आरक्षण सहित अन्य अधिकारों तक पहुंच करने में कठिनाई आती है। 

भाजपा सरकार बातचीत अवरुद्ध करने के एक तरीके के तौर पर आरक्षण के मुद्दे पर गुजरात के दलितों तथा आदिवासी ईसाइयों का सक्रिय रूप से अनुसरण करती है। 7 मार्च 2011 को गुजरात हाईकोर्ट ने सरकार द्वारा जारी एक सर्टीफिकेट होने के बावजूद, लाभों तक एक दलित की पहुंच को खारिज कर दिया जो वह सरकार द्वारा यह दावा करने से पहले प्राप्त कर रहा था कि उसने धर्म परिवर्तन किया है। लोगों को संभवत: नहीं पता होगा कि अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों (महिलाएं भी) के धर्म परिवर्तन के लिए अन्य व्यक्तियों के धर्म परिवर्तन के मुकाबले कहीं अधिक कड़ी सजा है। 

2018 के बाद भाजपा शासित राज्यों ने कड़े कानून पारित करना शुरू कर दिया जो धर्म परिवर्तन को रोकते हैं, विशेषकर जो विवाह से जुड़े हैं। भारत एक रूढि़वादी सांस्कृतिक समाज है। अधिकांश परिवार घर पर धार्मिक रिवाजों तथा परम्पराओं का पालन करते हैं और एक ही परिवार में अलग धर्म के दो लोगों का होना असामान्य है। सैद्धांतिक तौर पर अलग मतों के 2 लोगों का स्पैशल मैरिज एक्ट नामक कानून के अंतर्गत विवाह करना संभव है लेकिन इसकी अपनी समस्याएं हैं जिनकी हमें यहां बात करने की जरूरत नहीं।

नए ‘लव जेहाद’ कानूनों में से पहला था उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता कानून, 2018। इसमें असामान्य बात यह है कि  इसमें कहा गया है कि जो लोग हिंदू धर्म (जिसे ‘पूर्वजों का धर्म’ कहा गया है) में धर्मांतरण करते हैं उन्हें छूट है। अर्थात एक हिंदू विवाह करने के लिए इस्लाम में धर्म परिवर्तन नहीं कर सकता लेकिन एक मुस्लिम उसी कारण के लिए हिंदू बन सकता या सकती है। उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म समपरिवर्तन  प्रतिषेध अध्यादेश 2020 में सबूतों का बोझ है। किसी वयस्क महिला द्वारा यह कहना कि उसने अपनी मर्जी से धर्मांतरण किया है, एक अपर्याप्त सबूत है और जिस परिवार में उसका विवाह होता है उसे आवश्यक तौर पर पुलिस को संतुष्ट करना होता है कि उन्होंने उसे मजबूर नहीं किया है। 

मध्यप्रदेश धर्म स्वातंत्र्य अध्यादेश 2020 में विवाह के माध्यम से धर्म परिवर्तन के लिए 10 साल जेल की सजा का प्रावधान है। यह दम्पत्ति के बच्चे होने के बावजूद ऐसे विवाह को निरस्त भी करता है। गुजरात धर्म की स्वतंत्रता (संशोधन कानून 2021) में भी 10 वर्ष जेल की सजा है। कर्नाटक तथा हरियाणा सहित अन्य भाजपा राज्यों में भी शीघ्र ऐसे ही कानूनों का वायदा किया गया है। ऐसे लोकतांत्रिक देशों में विकासपरक की बजाय ऐसे पीछे ले जाने वाले कानून बनाना असामान्य है जिन्हें 21वीं शताब्दी में दाखिल हुए 2 दशक बीत चुके हैं। मगर स्पष्ट तौर पर भारत में आज ऐसा ही हो रहा है तथा अभी आगे और होने वाला है। भारतीयों के पास ‘मुक्त रूप से धर्म को अपनाने, उसे इस्तेमाल करने तथा उसका प्रचार करने’ का मूलभूत अधिकार है।

निर्वाचन सभा में ईसाइयों की ओर से उनके धर्म परिवर्तन के अधिकार के एक हिस्से के तौर पर जबरदस्त बहस हुई। अम्बेडकर द्वारा निर्वाचन सभा की समितियों में दाखिल किए गए मूल मसौदे  में ये शब्द थे : ‘स्वीकार करने, प्रचार तथा धर्मांतरण करने का अधिकार, जन व्यवस्था तथा नैतिकता की सीमाओं के भीतर’। आज भारत में प्रचार अथवा धर्मांतरण का कोई अधिकार नहीं है। ऐसा करने के लिए किसी को एक फार्म भरना होता है और यह राज्य पर निर्भर करता है कि वह अपना धर्म बदल सकता है अथवा नहीं। यह हमारे धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र से संबंधित कई अजीब चीजों में से एक बनाता है।-आकार पटेल

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