मोदी-शाह की राजनीतिक ‘इच्छाशक्ति’ को सलाम

Friday, Aug 09, 2019 - 12:55 AM (IST)

स्वतंत्र भारत में जिसके बारे में कभी सोचा नहीं था, वह आखिरकार विगत 5-6 अगस्त को हो गया। अनुच्छेद 370 रूपी विकृत शृंखला को अब तोड़ दिया गया है, जिसके लिए भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने प्राणों की आहुति तक दे दी थी। वास्तव में, उनका ‘एक विधान, एक प्रधान’ का संकल्प मोदी सरकार ने पूरा किया है। इस साहसिक कदम को उठाने के लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता थी, जिसकी कमी पिछले 7 दशकों से देखी जा रही थी। सच तो यह है कि उस 7 दशक पुराने मिथक को भी जमींदोज कर दिया गया है, जिसमें देश के एक वर्ग द्वारा दावा किया जा रहा था कि इसे निरस्त करना असंभव है। 

वर्ष 1947 को स्वतंत्रता के बाद में जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देश में 560 रियासतों (हैदराबाद और जूनागढ़ सहित) का एकीकरण किया था, उसका पं. नेहरू में भारी अभाव था। उनके अदूरदर्शी दृष्टिकोण और आत्ममुग्धता ने कश्मीर मामले को उलझाए रखा। परिणामस्वरूप 1962 में चीन के हाथों भारत को शर्मनाक पराजय भी झेलनी पड़ी। 

क्या यह इंदिरा गांधी की राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिणाम नहीं था कि उनके नेतृत्व ने 1971 में पाकिस्तान को 2 टुकड़ों में बांट दिया, जिसमें एक नए राष्ट्र बंगलादेश का जन्म हुआ? मई 1998 में पोखरण स्थित परमाणु परीक्षण भी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और साहसिक व्यक्तित्व का फल था? यह परीक्षण तो पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव भी करना चाहते थे किंतु उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और अमरीकी दबाव के समक्ष घुटने टेक दिए। पिछले 5 वर्षों में देश की अखंडता और सुरक्षा की खातिर सीमापार भारतीय सेना का 2015 में म्यांमार, 2016 में गुलाम कश्मीर, 2019 में बालाकोट और फिर म्यांमार में सर्जिकल स्ट्राइक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक इच्छाशक्ति का ही जीवंत प्रमाण है। अब उस कड़ी में अनुच्छेद 370 का क्षरण भी जुड़ गया है। 

कांग्रेस की प्रतिक्रिया सर्वाधिक विचित्र
कश्मीर संबंधित घटनाक्रम पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया और स्थिति सर्वाधिक विचित्र दिख रही है। पार्टी का एक पक्ष इस विवादित धारा को हटाए जाने को राष्ट्रहित में बता रहा है, जबकि दूसरा वर्ग इसका पुरजोर विरोध कर रहा है। पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने तो एक कदम आगे बढ़ाते हुए कश्मीर पर देश की घोषित राष्ट्रीय नीति पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। उन्होंने लोकसभा में कह दिया, ‘कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में है और वह इसका निरीक्षण कर रहा है, तो इस पर सरकार कैसे बिल ला सकती है।’ यही नहीं, उन्होंने कहा, ‘जब कश्मीर भारत और पाकिस्तान का द्विपक्षीय मुद्दा है, तो केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह इसे आंतरिक मामला कैसे बता रहे हैं?’ 

गांधी परिवार के ‘परोक्ष’ नेतृत्व में कांग्रेस की उपरोक्त स्थिति तब है, जब स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू लोकसभा में अनुच्छेद 370 को ‘अस्थायी’ प्रबंध बताते हुए इसे खत्म करने की बात कह चुके थे। 27 नवम्बर 1963 को लोकसभा में चर्चा करते हुए बतौर प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने कहा था, ‘अनुच्छेद 370 के क्रमिक क्षरण की प्रक्रिया चल रही है और अगले एक या दो महीने में उसे पूरा कर लिया जाएगा।’ 

स्पष्ट है कि यदि पं. नेहरू कुछ समय और जीवित रहते, तो वह इसे अपने शासनकाल में ही हटा चुके होते। यही नहीं, पं. नेहरू के निधन उपरांत कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने गुलजारी लाल नंदा ने भी 4 दिसम्बर 1964 को लोकसभा में भाषण देते हुए कहा था, ‘धारा 370 को चाहे आप रखें या न रखें, इसकी सामग्री को पूरी तरह से खाली कर दिया गया है। इसमें कुछ भी नहीं छोड़ा गया है। हम इसे एक दिन, 10 दिनों या 10 महीने में विनियमित कर सकते हैं और इस पर विचार हम सभी ही करेंगे।’ संविधान निर्माता और भारत के पहले कानून मंत्री भीमराव अम्बेदकर भी अनुच्छेद 370 के धुर विरोधी थे। उन्होंने तो इसका प्रारूप तैयार करने से भी इंकार कर दिया था। 

अनुच्छेद 370 को लेकर भ्रम
भ्रम फैलाया जा रहा है कि अनुच्छेद 370 ही कश्मीर को भारत से जोड़ता है अर्थात इस धारा के क्षरण से कश्मीर का भारत से संबंध विच्छेद हो जाएगा। क्या इससे बड़ा कोई झूठ और हो सकता है? स्वतंत्रता के समय तत्कालीन भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के बीच 26-27 अक्तूबर 1947 को ‘इंस्ट्रूमैंट ऑफ  एक्सेशन’ अनुबंधित हुआ था। इस संधिपत्र का प्रारूप (फुल स्टाप, कोमा आदि सहित) हू-ब-हू वही था, जिसके माध्यम से उस समय 560 शासकों ने भारत में अपनी रियासतों का औपचारिक विलय किया था। जबकि 17 अक्तूबर 1949 के दिन अनुच्छेद 370 को संविधान में पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के दबाव में आकर और बाबा साहेब अम्बेदकर, सरदार पटेल और तत्कालीन कांग्रेस कार्य समिति के विचारों की अवहेलना करते हुए रखवा दिया था। इसी तरह, 14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा पारित एक आदेश के माध्यम से धारा 35ए को संविधान में शामिल करा दिया, जिसकी चर्चा संविधान सभा में कभी नहीं हुई थी।

महाराजा हरि सिंह के पुत्र, कांग्रेसी नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री डा. कर्ण सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 9 मार्च 1931 को जब उनका जन्म हुआ, तब श्रीनगर में उत्सवमयी वातावरण था। यह सूचक है कि उस समय सद्भाव से भरा माहौल था। स्थिति तब बिगड़ी, जब उसी वर्ष अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की विषाक्त और जेहादी भ_ी में तपकर, घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला कश्मीर वापस लौटे थे। कहने को तो शेख का आंदोलन राजशाही के खिलाफ था, किंतु बाद के घटनाक्रम ने स्पष्ट कर दिया कि उनका अभियान काफिर-कुफ्रों के खिलाफ जेहाद का एक हिस्सा था। पिछले 7 दशकों में उसी रुग्ण चिंतन के कारण ही शेष भारत से कश्मीर निरंतर दूर होता चला गया। 

सच यह भी है कि अनुच्छेद 370 की आड़ में ही शासन-व्यवस्था द्वारा कश्मीर के बाद जम्मू और लद्दाख क्षेत्र की जनसांख्यकीय संरचना को प्रभावित किया गया। उसका मूल बहुलतावादी चरित्र बदल चुका है। 2011 की जनगणना के अनुसार, वहां की कुल जनसंख्या 2.75 लाख है, जिसमें मुस्लिम बढ़कर 46 प्रतिशत, तो बौद्ध घटकर 39 प्रतिशत हो गए हैं। कश्मीर, जो पहले वैदिक संस्कृति, फिर बौद्ध और शैव मत के केन्द्र के रूप में विकसित हुआ, उसमें 13वीं-14वीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के बाद निरंतर बदलाव आना शुरू हो गया और कालांतर में कश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए बाध्य करने के उपरांत घाटी की लगभग शत-प्रतिशत आबादी मुस्लिम हो गई। 

क्या परिवर्तन आएगा 
अनुच्छेद 370 हटने के बाद प्रदेश में तिरंगा एकमात्र ध्वज होगा, दोहरी नागरिकता खत्म होगी, महिला अधिकारों को पूर्ण संरक्षण मिलेगा, शेष भारत की भांति जम्मू-कश्मीर में भी भारतीय दंड संहिता व आरक्षण व्यवस्था मान्य होगी और देश का प्रत्येक नागरिक कश्मीर में सम्पत्ति भी खरीद सकेगा। इसके अतिरिक्त, दशकों से भारी-भरकम वित्तीय अनुदान भारत सरकार द्वारा कश्मीर में भेजा जा रहा था, जिसके एक बड़े हिस्से से चंद परिवारों ने सत्तासीन होने पर अपनी जेबें भरीं, देश-विदेश में अकूत सम्पत्तियां अर्जित कीं और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया, तो शेष राशि से उन्होंने घाटी में जेहादी जमीन को उर्वर करते हुए जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के इस्लामीकरण की कोशिश को भी गति प्रदान की। आशा है कि जम्मू-कश्मीर के संबंध में हुए संवैधानिक परिवर्तन के बाद वहां की रुग्ण व्यवस्था में भी आमूलचूल परिवर्तन आएगा। साथ ही शेष भारत की भांति घाटी भी बहुलतावादी संस्कृति और परम्पराओं को अंगीकार करेगी।-बलबीर पुंज

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