स्वतंत्रता आंदोलन में आर.एस.एस. की भागीदारी

punjabkesari.in Sunday, Aug 07, 2022 - 05:25 AM (IST)

अक्सर यह प्रश्न उठाया जाता है कि स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) की भागीदारी क्या थी? 1925 में संघ की स्थापना से पूर्व,संघ संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने 1921 और 1930 के बाद के सत्याग्रह में सक्रिय हिस्सा लिया था और उन्हें कारावास भी झेलना पड़ा था। 

दरअसल, एक योजनाबद्ध तरीके से आधुनिक भारत का आधा इतिहास विद्वतजनों द्वारा अबतक बताने का प्रयास चल रहा है। एक विशेष रणनीति के तहत भारत के लोगों को ऐसा मानने के लिए बाध्य किया जाता रहा है कि देश को स्वतंत्रता केवल कांग्रेस और 1942 के सत्याग्रह के कारण मिली, शेष और किसी ने कुछ भी नहीं किया। यह बात पूर्ण सत्य नहीं है।

गांधी जी ने सत्याग्रह के माध्यम से, चरखा और खादी के माध्यम से सर्व सामान्य जनता को स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी होने का एक सरल एवं सहज तरीका, साधन उपलब्ध कराया और लाखों की संख्या में लोग स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े भी, यह बात सत्य है। परन्तु सारा श्रेय एक ही आंदोलन या पार्टी को देना इतिहास के साथ अन्याय और अन्य सभी स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों का अपमान है। 

संघ पर पहला प्रतिबन्ध मध्यप्रांत की ब्रिटिश सरकार ने एक नोटिस जारी करके सरकारी कर्मचारियों के संघ में प्रवेश पर लगा दिया। इस परिपत्रक में संघ को साम्प्रदायिक कहा गया और राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने के आरोप लगाए गए। यह परिपत्रक 15 दिसंबर, 1932 को जारी किया गया। परिपत्र के अनुसार, ‘‘सरकार ने यह निर्णय लिया है कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य बनने अथवा उसके कार्यक्रमों में भाग लेने की अनुमति नहीं रहेगी।’’ डॉक्टर साहब ने स्पष्ट कहा सरकार को यह जान लेना चाहिए कि संघ जो कार्य देश की आजादी के लिए कर रहा है उसे दबाया नहीं जा सकता। मध्यप्रांत की विधानसभा में 7 मार्च, 1934 को जब इस परिपत्रक से संबंधित प्रस्ताव पर चर्चा हुई तो अधिकतर सदस्यों ने प्रस्ताव का विरोध किया। आखिरकार संघ पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। 

डा. हेडगेवार का जीवन बाल्यकाल से आखिरी सांस तक केवल और केवल अपने देश और उसकी स्वतंत्रता के लिए ही था। इस हेतु उन्होंने समाज को दोषमुक्त, गुणवान और राष्ट्रीय विचारों से जाग्रत कर उसे संगठित करने का मार्ग चुना था। संघ की प्रतिज्ञा में भी 1947 तक संघ कार्य का उद्देश्य ‘हिन्दू राष्ट्र को स्वतन्त्र करने के लिए’ ही था। संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय समाज कांग्रेस-क्रांतिकारी, तिलक-गांधी, हिंसा-अहिंसा, हिंदू महासभा-कांग्रेस ऐसे द्वंद्वों में उलझा हुआ था। एक-दूसरे को मात करने का वातावरण बना हुआ था। कई बार तो आपसी भेद के चलते ऐसा बेसिर का विरोध करने लगते थे कि साम्राज्यवाद के विरोध में अंग्रेजों से लडऩे के बदले आपस में ही भिड़ते दिखते थे। 

1921 में जब प्रांतीय कांग्रेस की बैठक में क्रांतिकारियों की निंदा करने वाला प्रस्ताव रखा गया तो डा. हेडगेवार ने इसका जबरदस्त विरोध किया, परिणामस्वरूप प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। बैठक की अध्यक्षता लोकमान्य अणे ने की थी। उन्होंने लिखा, ‘‘डा. हेडगेवार क्रांतिकारियों की निंदा एकदम पसंद नहीं करते थे। वह उन्हें ईमानदार देशभक्त मानते थे। उनका मानना था कि कोई उनके तरीकों से मतभिन्नता रख सकता है, परंतु उनकी देशभक्ति पर उंगली उठाना अपराध है।’’ 

व्यक्ति अथवा विशिष्ट मार्ग से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्वातंत्र्र्य प्राप्ति का मूल ध्येय था। भारत को केवल राजनीतिक इकाई मानने वाला एक वर्ग हर प्रकार के श्रेय को अपने ही पल्ले में डालने पर उतारु दिखता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए दूसरों ने कुछ नहीं किया, सारा का सारा श्रेय हमारा ही है, ऐसा प्रोपेगंडा करने पर वह आमादा दिखता है, जो उचित नहीं। 7 अक्तूबर 1949 को कांग्रेस कार्यसमिति में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसके तहत आर.एस.एस. सदस्यों को कांग्रेस में शामिल होने की अनुमति दी गई। 

सरदार पटेल के समर्थकों ने जहां इस प्रस्ताव का समर्थन किया वहीं पंडित नेहरू के अनुयायियों ने इसका विरोध किया; कांग्रेस के संगठनात्मक विंग ने इस कदम का समर्थन किया तो इसके संसदीय विंग ने इसका विरोध किया। डा. भीमराव अंबेडकर ने 1939 में पुणे में आर.एस.एस. के शिविर का दौरा करते हुए देखा कि स्वयंसेवक दूसरों की जाति को जाने बिना भी पूर्ण समानता और भाईचारे के साथ एक साथ रह रहे थे। 

गांधीवादी नेता और सर्वोदय आंदोलन के नेता, जयप्रकाश नारायण, जो पहले आर.एस.एस. के मुखर विरोधी थे, ने 1977 में  कहा था ‘‘आर.एस.एस. एक क्रांतिकारी संगठन है। देश में कोई अन्य संगठन इसकी बराबरी नहीं कर सकता है। यह अकेले ही समाज को बदलने, जातिवाद को खत्म करने और गरीबों की आंखों से आंसू पोंछने की क्षमता रखता है।’’ आर.एस.एस. को 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा आमंत्रित किया गया था। इस घटना ने आर.एस.एस. को अपनी लोकप्रियता और देशभक्ति की छवि को बढ़ाने में मदद की। बाद में 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों में भी, आर.एस.एस. के स्वयंसेवकों ने देश की कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए अपनी सेवाएं दीं और घायल सैनिकों को रक्तदान देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 

आर.एस.एस. के स्वयंसेवकों ने गांधीवादी नेता विनोबा भावे द्वारा आयोजित भूदान आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। भावे ने नवंबर 1951 में मेरठ में आर.एस.एस. नेता गोलवलकर से मुलाकात की थी।  मैं खुद विगत 45 वर्षों से संघ की शाखा में जा रहा हूं, जहां हर वर्ष 26 जनवरी और 15 अगस्त को राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है।-आर.पी. सिंह (राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा)


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