परिवार को संयुक्त रखने में गृह-स्वामिनी की भूमिका

punjabkesari.in Tuesday, Sep 21, 2021 - 04:53 AM (IST)

परिवार एक स्थायी एवं सार्वभौमिक संस्था है, परन्तु प्रत्येक स्थान पर इसके स्वरूप में भिन्नता पाई जाती है। निश्चित तौर पर परिवार के बिना हम समाज की कल्पना नहीं कर सकते। एकल परिवारों का सिद्धांत कुछ दशक पहले ही तीव्रता के साथ मुखर हुआ है। अगर आजादी से पहले और आजादी के कुछ दशक बाद के समय पर नजर डाली जाए तो पता चलेगा कि भारतीय परिवारों की संरचना एक आदर्श रूप में थी, जैसे-जैसे औद्योगिकीकरण बढ़ता गया, वैसे-वैसे एकल परिवारों की संख्या भी दिनों-दिन बढ़ती चली गई। संयुक्त परिवार में प्राय: सभी सदस्य मिलकर रहते हैं, समस्त घरेलू कार्यों में सम्मिलित रूप से सहयोग, उत्पादन और उपभोग भी करते हैं। यही एक आदर्श परिवार की अवधारणा भी है। 

प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों एकल परिवारों की संख्या लगातार तीव्र गति से बढ़ती जा रही है? संयुक्त परिवारों के टूटने के पीछे बड़ा कारण यह है कि पुरुष प्रधान समाज आज भी अपनी पारंपरिक मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सका है और महिलाओं को दोयम दर्जे का इंसान ही मानता है। सीमोन दबोबा ने अपनी पुस्तक ‘द सैकेंड सैक्स’ में ठीक ही कहा है कि महिला पैदा नहीं होती बल्कि समाज में उसका निर्माण होता है। अर्थात सामाजिक मानसिकता ही उसे महिला बनाती है। पुरुष समाज आज भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्रदान नहीं कर पा रहा है। स्त्री और पुरुष के बीच स्पेस का न होना और बच्चों का समाजीकरण से दूर जाना ही एकल परिवार का कारण बनता है। 

लिहाजा महिला सशक्तिकरण के दौर ने जब से गति पकड़ी है, एकल परिवारों में भरपूर वृद्धि हुई है। सशक्तिकरण का अर्थ आज प्राय: खुलापन तथा अपनी मर्यादाओं को ताक पर रख कर पुरुषों की बराबरी करना माना जाता है लेकिन वास्तविकता यह है कि सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं को आॢथक मजबूती प्रदान करने के साथ उनको शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना और एक गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करना है, जिससे वे अपने निर्णय स्वयं ले सकें तथा अपने परिवार को सुगठित कर सदैव स्थायी बनाए रख सकें। 

सशक्तिकरण का अर्थ स्त्री की तुलना पुरुष और पुरुष की तुलना स्त्री से कदापि नहीं है क्योंकि दोनों की अपनी अलग-अलग सीमाएं निर्धारित की गई हैं। इस उत्तर-आधुनिक युग में त्याग की भावना विलुप्त-सी हो गई है। इसी कारण से भाई-भाई तथा पिता-पुत्र और सास-बहू, पति-पत्नी के बीच क्लेश का भाव रहता है, जिसमें पारिवारिक सदस्य संयुक्त रूप से नहीं रह पाते और अपनी अलग-अलग व्यवस्था बना कर रहना उचित समझते हैं। आज उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति परिवार के लिए जरा भी समय नहीं निकाल पाता। इस कारण पारिवारिक एकता प्रभावित होती रहती है। 

समाज में एक बहुत ही रहस्यमयी रिश्ता सास-बहू का है। आज भी सास अपनी बहू को बेटी का स्थान नहीं दे सकी है और बहू भी अपनी सास को मां मानने में असमर्थ है। सास को चाहिए कि वह अपनी बहू को बेटी जैसा स्नेह प्रदान करे, वहीं बेटी को चाहिए कि अपने सास और ससुर को मां-बाप की तरह ही अपना ले। इस प्रकार  एक सुंदर संयुक्त परिवार बन जाएगा।  जब तक स्त्री की भूमिका में सुधार नहीं होगा, तब तक संयुक्त परिवार बंटता ही रहेगा। स्त्री सम्मान से ही संयुक्त परिवारों में आपसी उदासीनता और महिलाओं के कार्यों को तरजीह न देना तथा पुरुषों का अपने कार्य को ही सर्वोत्तम और सर्वोत्कृष्ट बताना महिलाओं की उपेक्षा को दर्शाता है। पुरुष और महिलाओं के कार्यों की तुलना नहीं की जा सकती। 

महिलाओं को गृह-स्वामिनी इसीलिए कहा जाता है क्योंकि वे अपने परिवार और घर को बड़ी सरलता से चलाती रही हैं। वहीं दूसरी ओर जहां महिलाएं कामकाजी होती हैं वहां तो उसको प्राय: दो कार्यों को निपटाना होता है, एक तो बाहर कार्यस्थल पर, दूसरा, घर का कार्यभार। अगर घर में पारिवारिक सहयोग नहीं मिलेगा तो संयुक्त परिवार का खंडन होना तो तय है। इसलिए, आवश्यकता है कि पुरुष को प्रधानता वाली मानसिकता को तिलांजलि देकर महिलाओं के कार्यों का सम्मान और उनमें सहयोग करना चाहिए। परंपराओं की बेडिय़ों में जकड़े रहना उचित नहीं है,  आधुनिकीकरण अत्यावश्यक है, तभी वास्तव में एकल परिवारों की संख्या बढऩे पर रोक लगाई जा सकेगी।-लालजी जायसवाल
 


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