दिल्ली में दंगे-अदालतें भी ‘जवाबदेह’

punjabkesari.in Thursday, Feb 27, 2020 - 01:07 AM (IST)

कई साल की अदालती लड़ाई के बाद अयोध्या विवाद खत्म होने के बाद भव्य राम मंदिर के निर्माण की तैयारी शुरू हो गई, परन्तु अब नागरिकता के सवाल पर वस्तुस्थिति समझने और समझाने के लिए सरकार और विपक्ष दोनों तैयार नहीं हैं और इसकी मार आम जनता को झेलनी पड़ रही है। नागरिकता के मुद्दे पर हो रहे ध्रुवीकरण से सभी दलों को अपना चुनावी नफा-नुक्सान दिख रहा है। इस वजह से राज्य या केंद्र सरकार द्वारा ठोस कार्रवाई करने की बजाय, अदालतों के कंधे पर बंदूक रख दी गई है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ सरकार, विधानसभा और अदालतों से उपजे असमंजस और अराजकता का फायदा दोयम दर्जे के नेताओं ने उठाना शुरू कर दिया, जिसकी परिणति भारी हिंसा और दंगों से हुई। अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प की यात्रा से भारत की अर्थव्यवस्था को जितना लाभ होगा, उससे ज्यादा नुक्सान तो नागरिकता विरोधी आंदोलनों और दंगों से देश को हो गया है। 

संविधान के अनुसार कानून-व्यवस्था और दिल्ली पुलिस पर केंद्र सरकार का अधिकार है। धरना और विरोध प्रदर्शनों से निपटने के लिए आई.पी.सी. और सी.आर.पी.सी. के प्रावधानों की घुट्टी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को ट्रेनिंग के शुरूआती दौर में ही मिल जाती है फिर भी शाहीन बाग और अन्य धरना-प्रदर्शनों को खत्म करने में दिल्ली पुलिस के साथ खुफिया विभाग भी पूरी तरह से विफल रहे। सी.आर.पी.सी. के तहत एग्जीक्यूटिव मैजिस्ट्रेट को भी सेना बुलाने समेत अनेक अधिकार दिए गए हैं, जिन पर केजरीवाल सरकार का नियंत्रण है। सवाल यह है कि दिल्ली में विशाल बहुमत से सरकार बनाने वाले केजरीवाल इस मामले पर साहसपूर्ण पत्र लिखकर गांधी के आदेशों का सच्चे अर्थों में पालन क्यों नहीं करते? 

गवर्नैंस के नाम पर ‘आप’ को तथा राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा को बहुमत मिला
दिल्ली में गवर्नैंस के नाम पर ‘आप’ पार्टी को, केंद्र में राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा को विशाल बहुमत मिला है। भाजपा के घोषणापत्र में एन.आर.सी. और सी.ए.ए. का विवरण दिया गया था। तदनुसार संसद में लोकतांत्रिक तरीके से इस बारे में कानून पारित करने को गलत तो नहीं माना जा सकता। संसद द्वारा बनाए गए कानून का पालन करना राज्यों की संवैधानिक जिम्मेदारी है। इसके बावजूद अनेक राज्यों ने विधानसभाओं में विरोध प्रस्ताव पारित करके संवैधानिक अराजकता की स्थिति बना दी है। अराजकता की इस होड़ में शामिल होकर सत्तारूढ़ दल भाजपा ने भी गुजरात विधानसभा में नागरिकता कानून के पक्ष में प्रस्ताव पारित करवा दिया। नागरिकता कानून के विपक्ष में प्रस्ताव पारित करना यदि गलत है तो समर्थन में प्रस्ताव पारित करना भी उतना ही गलत है। 

नागरिकता कानून पारित होने के बाद से अदालतों में मुकद्दमेबाजी की बाढ़ आई
दो महीने पहले संसद द्वारा नागरिकता कानून पारित होने के बाद से अदालतों में मुकद्दमेबाजी की बाढ़ आ गई है। सी.ए.ए. मामले की सुनवाई फिलहाल सुप्रीम कोर्ट की चीफ जस्टिस बैंच द्वारा हो रही है। अंततोगत्वा इस मामले की सुनवाई संविधान पीठ या बड़ी बैंच द्वारा ही होगी। परन्तु ऐसी किसी बैंच का अभी तक गठन नहीं हुआ। निर्भया और राम मंदिर मामले में भी बड़ी बैंच गठित करने में कई वर्ष लग गए, जिसकी वजह से मामलों के निपटारे में बेवजह विलम्ब हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की तत्काल सुनवाई से इन्कार कर दिया और फिर बाद में एक बच्ची के पत्र पर स्वत: संज्ञान ले लिया। धरने को खत्म करने के लिए न्यायिक आदेश देने की बजाय वार्ताकारों की नियुक्ति करने से एक गलत परम्परा की शुरूआत हुई है। अधिकांश वार्ताकार नागरिकता कानून के विरोधी हैं। उनमें से कुछ लोगों ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की है। स्वस्थ कानूनी प्रक्रिया के अनुसार किसी भी पक्ष से जुड़े लोगों को निष्पक्ष वार्ताकार कैसे बनाया जा सकता है। धरने को खत्म करने की बजाय अब वार्ताकारों द्वारा प्रदर्शनकारियों को सुरक्षा देने की मांग से देश में संगठित अराजकता की स्थिति बनना दुखद है। 

लब्बोलुआब यह है कि शाहीन बाग में 2 महीनों से चल रहा धरना प्रदर्शन निर्विवाद तौर पर गैरकानूनी है, जिसके खिलाफ कार्रवाई करने में राज्य और केंद्र सरकार के साथ सुप्रीम कोर्ट भी विफल रही। सर्वोच्च अदालत द्वारा स्पष्ट और प्रभावी आदेश पारित करने की बजाय मामले को गोलमोल घुमाने से पूरी न्यायिक व्यवस्था का रसूख कम हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के पल्ला झाडऩे के बाद जिला अदालतों और हाईकोर्ट में इससे संबंधित अनेक मामलों की समानांतर सुनवाई शुरू हो गई। विरोधाभासी आदेशों से यह समझ में नहीं आ रहा कि अदालतों की कार्रवाई कानूनी व्यवस्था से चल रही है या फिर राजनीतिक रुझानों से? अनेक महीनों की न्यायिक चुप्पी के बाद अब जब हिंसा और दंगा बढ़ गया तो रातोंरात दिल्ली हाईकोर्ट के जज के घर में सुनवाई में अनेक आदेश भी पारित हो गए। 

इस आपाधापी में कई अन्य हाईकोर्टों ने भी विरोधाभासी आदेश पारित किए हैं। धारा 144 के उल्लंघन पर उत्तर प्रदेश सरकार उपद्रवियों को दंडित करने के साथ उनसे वसूली की कार्रवाई कर रही है। दूसरी ओर कर्नाटक हाईकोर्ट ने धारा 144 के दुरुपयोग की आलोचना कर डाली। सत्तारूढ़ दल के नेता विरोध प्रदर्शनों को देशद्रोह बता रहे हैं तो बाम्बे और तेलंगाना हाईकोर्ट ने प्रदर्शनों को जायज करार दिया है। त्रिपुरा हाईकोर्ट ने तो एक कदम आगे जाकर सरकारी कर्मचारियों को भी राजनीतिक विरोध प्रदर्शन में भाग लेने की अनुमति दे डाली। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया मामलों में पुलिस से पीड़ित छात्रों द्वारा मुआवजे की मांग भी शुरू हो गई। नागरिकता मामले पर निर्णायक फैसला नहीं करने के परिणामस्वरूप अनेक मुकद्दमों की बाढ़ से पुलिस और अदालतों पर बोझ बढऩा समाज के लिए अच्छा नहीं है। विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था को नहीं मानने वाले अधिकारियों को दंडित करने की बजाय हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा खुद दारोगा बनने से समस्या और भी जटिल हो रही है।

कानून की व्याख्या की जिम्मेदारी अदालतों पर तो कानून का शासन लागू करने की जिम्मेदारी पुलिस और सरकारी अधिकारियों की होती है। भाजपा या विपक्ष शासित कोई भी राज्य सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार पुलिस सुधार करने के लिए राजी नहीं है जिस वजह से कानून का शासन राजनेताओं की मनमर्जी पर निर्भर होता है। सरकारों द्वारा टुकड़े-टुकड़े गैंग के कथित सदस्यों के खिलाफ दर्ज मामलों पर अदालतों ने लंबे-चौड़े आदेश से जमानत दे दी। हकीकत यह है कि आर.टी.आई. में सरकार ने भी माना है कि टुकड़े-टुकड़े गैंग नाम का कोई संगठन नहीं है। भारतीय संविधान में सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट की सीमाएं परिभाषित हैं। इसके बावजूद एक-दूसरे के कार्यक्षेत्रों में हस्तक्षेप से अराजकता बढ़ती है। भारत में कानूनी व्यवस्था को न्यायसंगत  तरीके से लागू करने की बजाय हर मामले में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का फैशन यदि बढ़ गया तो न्यायिक ढांचे के ध्वस्त होने का खतरा बढ़ जाएगा। पुलिस और अदालतों की व्यवस्था कमजोर होने का खामियाजा हिंसा और दंगे के शिकार गरीब और कमजोर वर्ग वर्गों पर ही सबसे ज्यादा पड़ेगा।-विराग गुप्ता
              


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