रेवड़ियां : चुनाव आयोग नहीं सुन रहा तो कोई और सुने

punjabkesari.in Monday, Jun 17, 2024 - 05:34 AM (IST)

लोकतंत्र में निर्वाचन आयोग एक संप्रभु संस्था होती है। इसका मुख्य कार्य बिना किसी दबाव के निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराना है। बीते लोकसभा चुनावों में सभी दलों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त-मुफ्त के खटाखट वायदे किए। सत्तारूढ़ दल भाजपा को लगा कि उसका काम तो राम मंदिर, अनुच्छेद 370, किसानों को 6 हजार रुपए की सम्मान राशि, 80 करोड़ लाभार्थियों और देश प्रेम, विकास और विदेशों में बढ़ती छवि के परसैप्शन की राजनीति से चल जाएगा इसलिए उसने कोई बहुत बड़ी बातें नहीं कीं, लेकिन कांग्रेस ने तो महिलाओं को एक लाख रुपए प्रति वर्ष देने की घोषणा समेत ऐसी कई घोषणाएं कर दीं। इन घोषणाओं के नतीजे क्या हुए इस पर हम अभी बात नहीं कर रहे। 

कुछ समाजविज्ञानी ऐसी घोषणाओं को रेवड़ी कहते हैं और कुछ समाज के निचले वर्ग को ऊपर लाने की जरूरत बताते हैं। सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया। वहां निर्वाचन आयोग ने स्पष्ट किया कि हम पाॢटयों के मुफ्त उपहार के वादे पर रोक नहीं लगा सकते। अदालत चाहे तो पार्टियों के लिए गाइडलाइन तैयार कर सकती है। चुनाव आयोग इसे लागू नहीं कर सकता। फ्रीबीज के विपरीत प्रभाव और वित्तीय व्यवहार्यता (फाइनांशियल इम्प्लीकेशन्स) पर मतदाता स्वयं विचार करे। दरअसल अनुच्छेद 324 के तहत घोषणा पत्र आता नहीं।अब जब इस चुनाव में कांग्रेस के घोषणा पत्र में गरीब महिलाओं को हर साल 1 लाख रुपए देने की बात कही गई और राहुल गांधी ने अपनी सभाओं में कहा कि हर महीने 8500 रुपए महिलाओं के खाते में आएंगे तो इसकी व्यवहारिकता पर सवाल उठे कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा। 

(देश में वयस्क महिलाएं 70 करोड़ के आसपास हैं और मान लें कि कम से कम ‘गरीब’ 30 करोड़ महिलाओं को पैसा दिया जाएगा तो यह आंकड़ा सालाना 30 लाख करोड़ रुपए का होगा। वैसे अंतरिम बजट के अनुसार देश में खर्च के मद में 47 लाख करोड़ रुपए खर्च किए जाने हैं।) इसके जवाब में राहुल गांधी ने कहा था कि मोदी सरकार ने जितना पैसा अपने 10-12 पूंजीपति मित्रों का माफ किया है, उतने में इन योजनाओं को अमल में लाया जा सकता है। इससे फटाफट गरीबी दूर होगी। (वैसे पाठकों को बताना जरूरी है कि एन.डी.ए. सरकार के अलावा यू.पी.ए. की सरकारें भी एन.पी.ए., (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) का निपटारा करती रही हैं।

मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल यानी 5 साल में 3.5 लाख करोड़ के नान प्रफॉॄमग एसेट को खाते से बाहर किया था।) यह चुनावों का ही खेल था कि राहुल गांधी ने गरीब महिलाओं को लखपति बनाने की घोषणा की तो भाजपा भी 3 करोड़ महिलाओं के लिए लखपति दीदी के नाम से मोदी की गारंटी ले आई। लेकिन लखपति दीदी योजना देश भर में महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह से जुड़ी है। यह एक कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम है। योजना पात्र महिलाओं को ब्याज मुक्त 1 से 5 लाख रुपए का ऋण देती है, जिससे वे स्वरोजगार शुरू कर सकें।

यह ऋण है। भाजपा का घोषणापत्र मोदी की गारंटी-2024 के नाम से गत 14 अप्रैल को जारी हुआ था। इसमें 80 करोड़ से ज्यादा गरीब नागरिकों को अगले 5 साल तक मुफ्त अनाज देने की योजना को जारी रखने की बात कही गई। गरीबों को पी.एम. सूर्या घर मुफ्त बिजली योजना के तहत मुफ्त बिजली देने की बात कही गई (इस मद में 75 हजार करोड़ आबंटित करने की योजना है)। गरीब की थाली में सब्जियों और दालों को सुनिश्चित करने के लिए एक कीमत स्थिरता फंड बनाने की घोषणा भी की गई थी। पी.एम. आवास योजना के तहत 4 करोड़ गरीब परिवारों को आवास देने का वादा किया गया। किसानों को 6000 रुपए सम्मान निधि जारी रखने जैसे वायदे पहले से हैं ही। 

इसी तरह कांग्रेस ने 54 पेज का जो घोषणापत्र जारी किया, उसमें आर्थिक बोझ वाली घोषणाओं की भरमार थी। वरिष्ठ नागरिकों, विधवाओं और दिव्यांगों की पैंशन 1000 रुपए प्रति माह करने के अलावा डिप्लोमा धारक या कॉलेज स्नातक प्रशिक्षु को एक लाख रुपए प्रति वर्ष मानदेय देने, केंद्र सरकार में रिक्त 30 लाख पद भरने, युवाओं को अपना रोजगार शुरू करने के लिए 50 हजार करोड़ का फंड बनाने, देश के प्रत्येक गरीब परिवार को महालक्ष्मी योजना के तहत हर वर्ष 1 लाख रुपए देने,  मनरेगा मजदूरी 400 रुपए प्रतिदिन करने जैसे वायदे किए गए। इसके अलावा अग्निपथ योजना को खत्म कर फिर से सामान्य भर्ती प्रक्रिया शुरू करने जैसे वायदे किए गए। 

अब सवाल यह है कि इतने बड़े पैमाने पर राजनीतिक दल मुफ्त उपहारों के नाम पर चुनाव लड़ते रहे लेकिन निर्वाचन आयोग मूकदर्शक बना रहा। उसने उनकी व्यवहार्यता संबंधी कोई स्पष्टीकरण भी पार्टियों से मांगने की जरूरत नहीं समझी। किसी को भी लाख रुपए प्रति वर्ष देने, मुफ्त  बिजली-पानी जैसे वायदों को तो सीधे प्रलोभन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था। समाज में असमानता दूर कर देश को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए जरूरी है कि सभी को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर राजनीतिक दल और सरकारें अपना ध्यान फोकस करें। सिर्फ मुफ्त से काम नहीं चलने वाला। चुनाव आयोग नहीं सुन रहा है तो देश का सुप्रीम कोर्ट ही सुन ले। कम से कम पब्लिक को साफ पता तो हो कि जो वायदा किया जा रहा है वह हो भी सकता है या नहीं।-अकु श्रीवास्तव
     


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