अनपढ़ का सम्मान और पढ़े-लिखे का अपमान
punjabkesari.in Saturday, Sep 07, 2024 - 06:32 AM (IST)
कटु सत्य यह है कि स्वतंत्रता प्राप्त करने से लेकर अब तक जितने भी दलों की सरकारें आई हैं और प्रधानमंत्री बने हैं, किसी की भी पूरे मन से इस बात में रुचि नहीं रही कि भारत संपूर्ण साक्षरता का लक्ष्य हासिल कर सके। यही नहीं चाहे कोई भी विपक्षी पार्टी हो, किसी ने भी इस बात की न तो गंभीरता समझी और न ही इसके लिए ईमानदारी से प्रयास किया कि देश विश्व में अपनी वास्तविक पहचान तब ही बना सकता है जब पूरा देश शिक्षित हो। यही विडंबना है आज इसे जानना आवश्यक है।
सच से सामना : हमारे देश की लगभग एक चौथाई से अधिक आबादी को पढऩा-लिखना नहीं आता। महिलाओं की स्थिति तो यह है कि आधी से अधिक आज भी निरक्षर हैं। यह बात गांव, देहात और दूर-दराज के क्षेत्रों में ही नहीं नगर और महानगरों में भी सच है कि बहुत बड़ी आबादी के लिए काला अक्षर भैंस बराबर है, वे मामूली हिसाब-किताब के लिए दूसरों का मुंह ताकते हैं, अपने शोषण को कृपा मानते हैं और फटकार से लेकर अपने साथ मारपीट होने तक को नसीहत समझते हैं। बिना अपनी गलती जाने अमानवीय व्यवहार झेलते हैं और अगर कहीं जुबान से चूं भी निकल गई तो कहर का सामना करते हैं। कुछ नहीं कर सकते क्योंकि कोई चाहता ही नहीं कि वे निरक्षरता की दलदल से बाहर निकलें। इसके अतिरिक्त जब स्थिति यह हो कि नेतागिरी शुरू करने से लेकर विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री तक बिना किसी प्रकार की शैक्षणिक योग्यताओं के बना जा सकता है तो फिर कौन पढऩे-लिखने में अपना वक्त बर्बाद करे।
तुर्रा यह कि उच्च शिक्षित अधिकारी से लेकर पुलिस बल तक इनके सामने सिर झुकाए खड़े रहते हैं और इनकी हर उस आज्ञा का पालन करते नजर आते हैं जिसका न तो तर्क होता है और न ही सिर-पैर, बस हुक्म बजाना होता है। अब कोई भी नेता, चाहे किसी भी दल का हो, कभी नहीं चाहता कि उन लोगों की गरीबी दूर हो जो उनका वोट बैंक हैं, उन्हें नासमझ बनाए रखने में ही उसकी भलाई है क्योंकि उनका इस्तेमाल तोड़-फोड़, दंगा-फसाद, नारेबाजी, बेमतलब आंदोलन और अफरा-तफरी फैलाने में जो करना होता है। रैलियों में जुटाई गई भीड़ में किसी से भी पूछ लीजिए कि वे किस बात पर धरना प्रदर्शन, पोस्टरबाजी या ऐसी ही ऊल-जलूल हरकत कर रहे हैं तो अधिकांश यही कहते मिलेंगे कि नेताजी की खातिर आए हैं, पैसे भी मिलेंगे, आना-जाना, खाना-पीना सब मुफ्त और सैर-सपाटा अलग से और क्या पता कल को वे खुद इस धंधे में आ जाएं क्योंकि हींग लगे न फटकरी, रंग चोखा होने की पूरी गारंटी।
पक्ष/विपक्ष की चालबाजी : चलिए एक और वास्तविकता से परिचित कराते हैं। देश के विपक्ष में बैठे नेता कहते हैं कि जिस जाति की जितनी संख्या होगी, उसकी देश के संसाधनों पर उतनी ही भागीदारी होगी। वे जानते हैं कि जिस तबके की बात कर रहे हैं वह तो अधिकतर निरक्षर है या मामूली पढ़ा-लिखा है, निर्धन और साधनहीन है, परंतु यदि उनकी चाल कामयाब हो गई तो विभिन्न जातियों के नाम पर मिले संसाधनों को स्वयं और अपने दल द्वारा भोगे जाने की पूरी छूट मिल जाएगी। वे कभी नहीं कहते कि जातियों की संख्या के आधार पर शिक्षा सुविधाओं का बंटवारा हो, स्वास्थ्य सेवाओं का मिलना सुनिश्चित हो, व्यापार और रोजगार की नीतियां उनकी जाति की विशेषताओं और कार्यकुशलता को ध्यान में रखकर बनें और अमल में लाई जाएं।
वे यह भी नहीं कहते कि इन जातियों की गरीबी और साधनों के न होने के कारण उपजी समस्याओं को समाप्त करने के लिए उनकी गणना होनी चाहिए। हंसी आती है जब कोई यह कहता है कि सरकारी पदों पर बैठे लोगों में कौन-सी जाति के कितने लोग हैं। उनकी नजर में योग्यता नहीं बल्कि अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जातपात महत्वपूर्ण है।उदाहरण से समझिए कि जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी, बहुजन समाज या भारतीय जनता पार्टी की सरकारें बनती रही हैं तो सबसे पहला काम यह होता है कि अपने परिवारों और दलों से उन लोगों को नियुक्त किया जाए जो उनके इशारों पर काम करें, पैसा जुटाएं और सरकारी खजाने में सेंध लगाने में माहिर हों।
इसी तरह दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में भी कमोबेश यही स्थिति है और ये ही राज्य क्यों, सभी प्रदेशों में अलग-अलग रूपों में भाई भतीजावाद अपने चरम पर है। इसका सबसे बड़ा कारण विशाल जनसंख्या को निरक्षर बनाए रखने की नीतियों का पालन करना है। शिक्षा सुविधाओं को इतना सीमित कर देना है कि अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की भांति केवल सरकारी बाबू बनते रहें, उनकी बौद्धिक क्षमता, मानसिक कार्य कुशलता और शारीरिक शक्ति का उपयोग जी हुजूरी तक सीमित रहे।
बालिकाओं को आज भी पढऩे से रोका जाता है क्योंकि उन्हें तो सिर्फ चूल्हा-चौका करना तथा बच्चे पैदा कर और उसमें भी लड़के की परवरिश करनी है। लड़कों के मामले में बस इतना कि वे छोटी-मोटी नौकरी के लायक हो जाएं, खेतीबाड़ी या घर का काम-धंधा करने लगें, मोबाइल चला लें और इंटरनैट का इस्तेमाल कर सकें। एक तो महंगे शिक्षा संस्थान जो किसी सजी दुकान की तरह होते हैं, उनमें प्रवेश की हिम्मत जुटा पाना आसान नहीं होता। प्रतियोगी परीक्षाओं का कारोबार करने वालों की असलियत कौन नहीं जानता। नकल और रिश्वत का बोलबाला इसीलिए है कि संपूर्ण साक्षरता की कोई व्यावहारिक नीति ही नहीं है। हम जिस डैमोग्राफिक डिविडैंड की चर्चा करते हैं, क्या कभी उसकी आकांक्षाओं और सपनों को पूरा करने के बारे में देशव्यापी सार्थक बहस छेड़ी है, कभी नहीं! -पूरन चंद सरीन