सवर्ण गरीबों के लिए आरक्षण ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ नहीं, खाली कारतूस

Wednesday, Jan 09, 2019 - 04:08 AM (IST)

‘‘देरी से ही सही, जाते-जाते मोदी जी एक सर्जिकल स्ट्राइक कर गए। एक बेरोजगार युवक अखबार की सुर्खियां पढ़कर प्रतिक्रिया दे रहा था। मुख्य पृष्ठ पर सवर्ण गरीबों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की खबर थी और उसे चुनाव से पहले एक सर्जिकल स्ट्राइक बताया गया था। मुझसे रहा नहीं गया, ‘‘भाई, यह सर्जिकल स्ट्राइक नहीं, यह तो खाली कारतूस चलाया है। सिर्फ देरी से ही नहीं, गलत निशाने पर भी चलाया है। सबको पता है कि लागू नहीं हो सकता और लागू हो गया तो एक भी गरीब सवर्ण को इससे नौकरी मिलने वाली नहीं है।’’ 

मेरी बात सुनकर वह चौंका ‘‘अंकल, बाकी बात बाद में, पहले यह बताइए कि इस देश में सवर्ण भी गरीब हैं अथवा नहीं हैं या कि शिक्षा और नौकरी के सारे अवसर सिर्फ  एस.सी., एस.टी. और ओ.बी.सी. के लिए ही होंगे।’’ अब मेरी बारी थी:‘‘बेटा, इसमें कोई शक नहीं कि देश की अधिकांश सवर्ण जातियों के अधिकांश परिवार तंगी में गुजारा करते हैं। दिल्ली में रिक्शा चलाने या मजदूरी का काम करने जो लोग बिहार से आते हैं, उनमें बड़ी संख्या सवर्ण जातियों की होती है जो अपने गांव में छोटा काम कर नहीं सकते। सारे देश में रोजगार का संकट है, सवर्ण समाज को भी रोजगार का संकट है। इसके लिए आरक्षण चाहिए या नहीं, इसकी चर्चा बाद में कर लेंगे लेकिन उन्हें काम चाहिए, रोजगार चाहिए, नौकरी चाहिए और अभी चाहिए। अगर कोई सरकार उनके लिए कुछ भी करे तो उसका स्वागत होना चाहिए।’’ 

केवल सवर्ण समाज के लिए नहीं
उसे जैसे ढांढस बंधा: ‘‘तो आपको सरकार की घोषणा का स्वागत करना चाहिए। देश में पहली बार किसी को सवर्ण गरीब की याद तो आई!’’ मैंने उसे याद दिलाया कि यह घोषणा सिर्फ सवर्ण समाज के लिए नहीं है। मुसलमान, ईसाई और सिख, जो भी आरक्षण के तहत नहीं आते उन सब सामान्य वर्गों के गरीब इसके दायरे में आएंगे और न ही यह पहली बार हुआ है। आज से 27 साल पहले सितम्बर 1991 में नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े हुए सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का आदेश जारी किया था। उस आदेश का वही हुआ था जो इस आदेश का होगा। 

उस सरकारी आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सन् 1992 के अपने ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संवैधानिक बैंच ने सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए किए गए इस आरक्षण को दो आधार पर अवैध और असंवैधानिक घोषित किया। पहला तो इसलिए कि हमारे संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण करना हमारे संविधान के प्रावधानों और आरक्षण की भावना के खिलाफ  है। दूसरा इस आधार पर कि आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने से कुल आरक्षण 59 प्रतिशत हो जाएगा जोकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई 50 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा है। जो आपत्ति तब थी वह आपत्ति आज भी मान्य होगी। ‘‘लेकिन इस बार तो सरकार संविधान में संशोधन करने जा रही है। फिर तो सुप्रीम कोर्ट को मानना ही होगा’’। उसने काफी उम्मीद के साथ कहा। मैंने उसे समझाया कि संविधान संशोधन पेचीदा और लंबा मामला है। पहले लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत चाहिए, फिर राज्यों में विधानसभा से पास करवाना होगा। और संशोधन हो भी गया तो भी सुप्रीम कोर्ट उसे खारिज कर सकती है। शायद करेगी भी। 

गरीब की अजीब परिभाषा 
लेकिन असली दिक्कत यह नहीं है। मान लीजिए संशोधन हो जाए, मान लीजिए सुप्रीम कोर्ट स्वीकार भी कर ले, तो भी इस आरक्षण से सामान्य वर्ग के सचमुच गरीबों को कोई फायदा नहीं मिलेगा। सरकार ने इस आरक्षण के लिए गरीब की परिभाषा अजीब बना दी है। जो इन्कम टैक्स में 8 लाख तक की आमदनी दिखाए या जिसके पास 5 एकड़ तक जमीन हो या बड़ा मकान न हो, उन सबको गरीब माना जाएगा। मतलब यह कि हर महीने एक लाख से अधिक तनख्वाह पाने वाले या बहुत बड़े किसानों और व्यापारियों को छोड़कर लगभग सभी सामान्य वर्ग के लोग इस आरक्षण के हकदार हो जाएंगे। मजदूर या रिक्शावाले के बेटे को वकील और अध्यापक के बच्चे के साथ इस 10 प्रतिशत आरक्षण के लिए मुकाबला करना होगा। यूं भी अगर ये गरीब हैं तो सामान्य वर्ग के लिए जो 51 प्रतिशत सीटें खुली हैं, उनमें से एक बड़ा हिस्सा तो इस ‘गरीब सामान्य वर्ग’ को मिल रहा होगा, जिसे बिना आरक्षण के आज भी 20 या 30 प्रतिशत नौकरियां मिल रही हैं, उसे 10 प्रतिशत आरक्षण देने से क्या मिलेगा? कागज पर आरक्षण रहेगा लेकिन पहले से भर जाएगा और एक भी व्यक्ति को नौकरी देने की जरूरत नहीं होगी। 

वही पुरानी तिकड़म
अब उसके चेहरे पर निराशा थी ‘‘ये सब तो सरकार को भी पता होगा। तो फिर वह यह घोषणा क्यों कर रही है?’’ जवाब उसे भी पता था, मुझे भी। मोदी सरकार आज वही तिकड़म खेल रही है जो 5 साल पहले मनमोहन सिंह सरकार ने जाट आरक्षण को लेकर खेला था। उसे पता था कि कानूनी तरीके से जाटों को आरक्षण देना सम्भव नहीं था, फिर भी उसने चुनाव से कुछ महीने पहले आरक्षण की घोषणा कर दी। भाजपा ने भी समर्थन कर दिया। दोनों को पता था कि सुप्रीम कोर्ट तो खारिज करेगा लेकिन वह तो चुनाव के बाद देखा जाएगा। वही हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव के बाद जाट आरक्षण को खारिज कर दिया और जनता ने कांग्रेस को भी खारिज कर दिया। इस बार भी वही खेल हो रहा है। भाजपा को चुनावी हार दिख रही है। अब जानबूझ कर वह ऐसे प्रस्ताव ला रही है जिनसे किसी को कुछ मिलना नहीं है, बस चुनाव के वक्त ध्यान बंट जाएगा। कांग्रेस भी खेल खेल रही है कि हम विरोध करके बुरे क्यों बनें इसलिए समर्थन कर रही है। ‘‘यानी कि सरकार हमें सिर्फ लॉलीपॉप दे रही है?’’ नहीं, मैंने कहा। सरकार लॉलीपॉप भी नहीं दे रही। वह हमारी जेब में पड़े दो लॉलीपॉप में से एक निकाल कर हमें पकड़ा रही है और कह रही है ताली बजाओ! 

समस्या आरक्षण नहीं बल्कि रोजगार
‘‘तो फिर करना क्या चाहिए अंकल?’’ अब उसकी निराशा खीझ में बदल रही थी। मैंने बात को समेटा: ‘‘समस्या आरक्षण की नहीं? रोजगार की है, अगर नौकरी ही नहीं होगी तो आरक्षण देने या न देने से क्या फर्क पड़ेगा। असली समाधान है रोजगार के अवसर बनाना। आज केन्द्र सरकार के पास 4 लाख से अधिक पद रिक्त पड़े हैं। राज्य सरकारों के पास 20 लाख रिक्त पद पड़े हैं। सरकार पैसा बचाने के चक्कर में इन नौकरियों को भर नहीं रही। प्राइवेट सैक्टर में नौकरियां कम हो रही हैं, पिछले साल में एक करोड़ से ज्यादा नौकरियां घटी हैं। अगर भाजपा सरकार गंभीर है तो इन नौकरियों को भरने का आदेश जारी क्यों नहीं करती? अगर कांग्रेस गंभीर है तो अपनी सरकारों से रोजगार क्यों नहीं दिलवाती?’’ दोनों के मुंह से एक साथ निकला ‘यानी जुमला नहीं, जॉब चाहिए!’-योगेन्द्र यादव

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