हमारी स्वतंत्रतावादी विरासत का पुनर्जागरण

punjabkesari.in Sunday, Mar 17, 2024 - 05:44 AM (IST)

7 मार्च को प्रो. जी.एन. साईंबाबा ने 10 वर्ष तक जेल में अंधेरी रातें काट कर, आजादी के उजाले में पुन: कदम रखा। सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के नागपुर बैंच के उस निर्णय पर रोक लगाने से इंकार कर दिया है जिसके कारण साईंबाबा और अन्य अभियुक्तों को 10 साल की लम्बी कैद से रिहाई मिली। 

सरकारी केस को खारिज करते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि ‘व्हीलचेयर’ तक सीमित एक दिव्यांग प्रोफैसर पर यू.ए.पी.ए. के तहत लगाए गए गंभीर आरोप, कानून की नजर में साबित नहीं होते हैं। कोर्ट का यह विलंबित फैसला कानूनी मापदंडों और प्रमाणों पर आधारित है, जिसका स्वागत है। इस ऐतिहासिक न्यायिक निर्णय में यह बताया गया है कि कानून की नजर में राजनीतिक सिद्धांतों और विचारधाराओं का अध्ययन या किसी विचारधारा से सहानुभूति, अपने आप में अपराध की बुनियाद नहीं हो सकते, क्योंकि सभी को विचारों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार है। 

नागरिकों की अवैध हिरासत से देश की प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्थाओं की निष्पक्षता पर सवाल उठता है। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट का 2022 का आदेश, जिसमें प्रोफैसर साईंबाबा को हाईकोर्ट द्वारा दी गई रिहाई को छुट्टी के दिन खास सुनवाई करके रद्द कर दिया गया था, गंभीर चिंता का विषय है। इस केस के अनेक मोड़ों पर राज्य की कार्यकारी शक्ति एवं कानून की प्रक्रियात्मक मर्यादाओं की परख भी हुई है। महाराष्ट्र सरकार की अपील को खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने माना कि ‘नक्सल फिलॉसफी’ पढऩे वाले और नक्सल सोच से सहानुभूति रखने वाले किसी व्यक्ति पर सिर्फ इस आधार पर यू.ए.पी.ए. के तहत आपराधिक कार्रवाई नहीं की जा सकती, कि उसके पास डाऊनलोड किया गया नक्सल साहित्य है। 

साथ ही कोर्ट ने अभियोजन पक्ष द्वारा लगाए गए ‘अस्पष्ट आरोपों’ को अपराध का आधार मानने से इंकार किया, जोकि आपराधिक कानून के बुनियादी दर्शन, कि बिना ठोस सबूत किसी को अपराधी नहीं माना जा सकता, की पुष्टि करता है। ऐसा दिव्यांग जो बिना सहायता के अपनी अति निजी दिनचर्या भी नहीं कर सकता उसके साथ करुणा रहित व्यवहार और 10 वर्षों की कैद, भारत की न्यायिक प्रक्रिया और संवैधानिक नैतिकता से जुड़े अनेक प्रश्न खड़ा करते हैं। 

शारीरिक, आर्थिक और भावनात्मक रूप से कमजोर व्यक्ति की असहनीय प्रताडऩा, हमारी न्याय प्रणाली की कमियों को दर्शाते हैं और यह प्रमाणित करते हैं कि देश की आपराधिक प्रक्रिया अपने आप में एक बड़ी सजा है। केस में अभियोजन पक्ष की यह दलील कि विकलांग साईंबाबा अपने विचारों की अभिव्यक्ति से देश और सरकार की सुरक्षा के लिए खतरा हो सकते हैं, हालांकि हास्यप्रद है, को फिर भी साईंबाबा अत: अन्य अभियुक्तों को बहुत लम्बे समय तक कारावास में रखने का आधार माना गया। 

1. क्या यह फैसला हमारे देश की लोकतांत्रिक आस्थाओं और संवैधानिक न्याय के मूलभूत आदर्शों के अनुकूल है? 2. क्या देशवासियों को ऐसी कानूनी प्रक्रियाओं को झेलना जरूरी है जो अन्याय को जन्म देती है और जिसकी कोई भरपाई नहीं है? 3. क्या कानून एवं न्याय के पहरेदार ही नाइंसाफी के पैरोकार बन सकते हैं? 4. क्या निर्दोष लोगों को, उनके परिवारजनों के स्नेह और संगति से वंचित करने का कोई मुआवजा हो सकता है? 5. क्या न्याय के संरक्षक देश के रहबर निर्दोष और असहाय व्यक्तियों के दर्द के प्रति असंवेदनशील हैं? 6. क्या कठोर आपराधिक कानूनों के तहत बिना उचित जांच और पर्याप्त प्रमाणों के नागरिकों को लम्बे समय तक जेल की चारदीवारी में कैद करके रखना और उनके मानवीय अधिकारों का हनन होना हमारे लोकतंत्र की पहचान हो सकती है? इन गंभीर सवालों से अब मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। 

दोषियों को सजा देने वाली न्याय प्रणाली के तहत जिस तरह से एक शारीरिक तौर पर अपंग को 10 साल जेल की सलाखों के पीछे रखा गया, देश की आत्मा को झकझोर रहा है। इसी कारण देश और विदेश में जनता का ध्यान साईंबाबा मामले पर केंद्रित है। नागरिकों की प्रतिष्ठा और गरिमा का हनन, उनके भविष्य पर प्रश्नचिन्ह और घोर अन्याय के सामने बेबसी, भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली एवं लोकतंत्र की डरावनी तस्वीर है। इस तस्वीर को बदलने के लिए जनता को न्याय, जो संवैधानिक संस्थाओं की पहली जिम्मेदारी है, के लिए सदैव संघर्षशील रहना होगा। घोर अन्याय के खिलाफ कब और कौन आवाज उठाए और क्या कोई असहाय व्यक्ति के प्रति न्याय की पुकार सुनेगा, यह सवाल आज के दौर में उपयुक्त है। मशहूर दिवंगत शायरा प्रवीण शाकिर की इन पंक्तियों में कमजोर और जुल्म के शिकार व्यक्तियों की भावनाओं का उल्लेख है :
‘‘पा-ब-गिल (मजबूर) सब हैं,
रिहाई की करें तदबीर (समाधान) कौन, 
दस्त-बस्ता (बंधे हाथ) शहर में खोले मेरी जंजीर कौन,
मेरा सर हाजिर है,
लेकिन मेरा मुंसिफ (जज) जान ले, 
कर रहा है मेरी फर्द-ए-जुर्म (इल्जाम) की तहरीर (लिखाई) कौन’’ 

देश की सर्वोच्च न्यायालय से यह उम्मीद है कि वह मानवाधिकारों के संरक्षक का उत्तरदायित्व प्रभावी ढंग से निभाएं, जो उनकी कार्यशैली में स्पष्ट रूप से दिखाई दे। साईंबाबा केस में हाई कोर्ट के निर्णय का यह संदेश है कि भारत, जो अपने नागरिकों की आजादी और गरिमा के लिए सदैव समर्पित होने का दावा करता है, ऐसी न्यायिक प्रक्रिया को अनदेखा नहीं कर सकता है, जिसके तहत न्याय की हार हो और मानवीय अधिकारों का हनन। क्या इस फैसले के सबक को हमारी यादों के हाशिए पर धकेल दिया जाएगा ताकि वह समय के साथ भुला दिए जाएं, या फिर एक अंतहीन न्याय की यात्रा में परिवर्तनकारी क्षण का काम करेगा, एक महत्वपूर्ण सवाल है। राष्ट्रों के इतिहास समय-समय पर होनी वाली महत्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े होते हैं। इसलिए यह फैसला कमजोरों के प्रति सहानूभुति पर आधारित न्याय की हमारी सांस्कृतिक विरासत के पुनर्जागरण की ओर एक प्रभावी कदम होना चाहिए। 

हम जानते हैं कि स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों का संरक्षण सभी के एकजुट होने पर निर्भर करता है। संविधान में स्वतंत्रता के अधिकार को मूलभूत मानवीय अधिकार की पहचान दी गई है। कहीं ऐसा न हो कि हम इस अधिकार को सशक्त करने में चूक कर जाएं। इतिहास का स्थायी सबक यही है कि स्वतंत्रता का एहसास जुल्म की पीड़ा से ऊपर उठकर, कायम रहता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हाईकोर्ट के अभियुक्तों के बरी करने के आदेश पर रोक लगाने से इंकार किया है। इससे यह आशा जागृत हुई है कि देश की सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक मर्यादाओं अत: मूलभूत मानवीय अधिकारों की सुरक्षा का बीड़ा उठाने के लिए सक्षम है। मूलभूत मूल्यों से परिगत लोकतांत्रिक संस्थाओं से आपराधिक मामलों में ऐसे न्याय की आशा है जो संवैधानिक आस्थाओं और मानवाधिकारों की कसौटी पर खरा उतरे और जिसको लोग भी न्याय संगत समझें। इस लेख को मैं साहिर लुधियानवी की इन पंक्तियों से समाप्त करता हूं। 

‘‘मुजरिम हूं मैं अगर,
तो गुनेहगार तुम भी हो,
ऐ रहबरान-ऐ-कौम,
खताकार तुम भी हो।’’-अश्वनी कुमार


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