धार्मिक उन्माद यानी राजनीतिक कीचड़
punjabkesari.in Wednesday, Apr 05, 2023 - 04:43 AM (IST)

हम भारतीयों को क्या हो गया है? हम हिंसा की ओर से आंखें मूंदे क्यों रहते हैं? जहां तक हमारे राजनेताओं का संबंध है, वे इस बारे में केवल खोखली बातें या खोखला दुख प्रकट करते हैं। जब हम हिन्दू-मुस्लिम हिंसा की बात करते हैं तो ऐसे अनेक प्रश्नों की बौछारों का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही हमारी राजनीति खूनी धार्मिक असहिष्णुता के रसातल की ओर तेजी से क्यों बढ़ रही है?
इस सप्ताह पुन: देश में सांप्रदायिकता का बोलबाला रहा और इस कड़ी में पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, तेलंगाना, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश, 7 राज्य जुड़े हैं, जहां राम नवमी के उत्सव के दौरान हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच झड़पों के बाद हिंसा देखने को मिली। इस हिंसा में खूब खून-खराबा हुआ, 60 से अधिक लोग मारे गए, 80 से अधिक घायल हुए, 150 से अधिक गिरफ्तार किए गए, अनेक वाहन और दुकानें जलाई गईं, धारा 144 लागू की गई।
पश्चिम बंगाल की तेज तर्रार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सोमवार को आरोप लगाया ‘‘हिन्दू नहीं अपितु भाजपा जानबूझकर रैलियां निकाल रही है, लाऊडस्पीकरों पर गाने बजा रही है और हुगली जिले के अल्पसंख्यक क्षेत्रों में बिना अनुमति के ऐसी रैलियां निकाली गईं तथा हथियार लहराते हुए लोग देखे गए। पांच दिन तक राम नवमी की शोभा यात्रा क्यों निकाली जाए? जिस दिन राम नवमी मनाई जाती है, उस दिन अनेक रैलियां निकाली जा सकती हैं। इस पर हमें कोई आपत्ति नहीं।’’
इसका प्रत्युत्तर भाजपा ने यह कहकर दिया कि पुलिस का रवैया ढुलमुल रहा। उसने कार्रवाई करने से इंकार किया, प्रशासन ने कोई परवाह नहीं की और तब तक प्रतीक्षा करता रहा, जब तक स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं हुई क्योंकि तृणमूल कांग्रेस पर गुंडों का नियंत्रण है। भाजपा ने केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्वयं कहा कि यदि हम बिहार और बंगाल में सत्ता में आए तो दंगाइयों को उलटा लटकाया जाएगा।
स्पष्टत: हमारे नेताओं ने सांप्रदायिकता को भारतीय राजनीति का मुख्य कारक बना दिया है, जहां पर चुनावी लाभ के लिए धर्म का इस्तेमाल करना एक प्रमुख कारक बन गया है क्योंकि यह लोगों को लुभाता है। शोभा यात्राओं, जुलूसों और जहरीले भाषणों से मतदाताओं के धु्रवीकरण के आसार बढ़ते हैं तथा विभिन्न समुदायों के बीच विद्वेष और घृणा बढ़ती है तो फिर विकास के वायदों को भुला दिया जाता है।
उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय की 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने 2017 में अपने एक उल्लेखनीय निर्णय में कहा था, ‘‘कोई भी राजनेता धर्म या जाति के नाम पर वोट नहीं मांग सकता। यदि किसी उम्मीदवार के एजैंट आदि धर्म के नाम पर वोट मांगते पाए गए तो इसे लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (3) के अंतर्गत एक भ्रष्ट तरीका माना जाएगा और यदि वे इस बात के दोषी पाए जाते हैं तो उम्मीदवार को चुनाव लडऩे के अयोग्य घोषित किया जाएगा।’’
नि:संदेह इन दिशा-निर्देशों का अक्सर उल्लंघन होता है और राजनीति में धर्म की भूमिका यदि और नहीं बढ़ी है, यथावत बनी हुई है। पिछले वर्ष राम नवमी उत्सव के दौरान भी अनेक राज्यों में हिन्दू-मुसलमानों के बीच ङ्क्षहसा और झड़प की घटनाएं हुई थीं। हिन्दुओं और मुसलमानों पर बार-बार उंगली उठाने से स्पष्ट होता है कि सभी पार्टियां अपने राजनीतिक आतंकवादियों को बढ़ावा देती हैं। सत्ता के लिए वे सांप्रदायिक मतभेद पैदा करने हेतु दानवी युक्तियां अपनाते हैं।
विभिन्न धर्मों को समान आदर देने की उनमें कोई इच्छा नहीं होती, अपितु वे मतदाताओं में अपनी तथाकथित लोकप्रियता बढ़ाने के लिए धर्म का खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल करते हैं और चाहते हैं कि यह तमाशा जारी रहे। वे यह भूल जाते हैं कि राज्य न तो ईश्वर विरोधी और न ईश्वर का समर्थक है। चाहे वह अल्लाह हो, राम हो या यीशु, राज्य से अपेक्षा की जाती है कि वह सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करे। किंतु हमारे सभी राजनेता अलगाववाद के माध्यम से राजनीतिक निर्वाण प्राप्त करने की लालसा में इतने खोए हुए हैं कि वे स्वयं को, लोगों को और इतिहास को भी भ्रमित कर देते हैं और धार्मिक उन्माद को राजनीतिक लाभ में बदल देते हैं।
फिर इस समस्या का समाधान क्या है? क्या हम इन उग्र सांप्रदायिक लोगों, वोट बैंक की राजनीति के सामने झुक जाएं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या सरकार ‘वाद’ के बोझ से मुक्त होना चाहती है। उन लोगों को कोई स्थान नहीं दिया जाना चाहिए जो लोगों और विभिन्न समुदायों में घृणा फैलाते हैं। चाहे वे हिन्दू कट्टरवादी हों या मुस्लिम अतिवादी। सभी राज्य को नष्ट करते हैं जिसका कोई धार्मिक स्वरूप नहीं है।
हिंसा और कानून का सीधा उल्लंघन करते हुए हिंसा का आह्वान किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि हिन्दुओं को अपने मुस्लिम भाइयों के विरुद्ध कोई आक्रोश है या मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध, तो उन्हें कानूनी मार्ग अपनाना चाहिए। नेहरू ने कहा था, ‘‘राजनीति और धर्म के मिश्रण से सांप्रदायिक राजनीति पैदा होती है, जो सर्वाधिक खतरनाक मिश्रण है और इसे समाप्त किया जाना चाहिए।’’ किंतु राजनीतिक दल और प्रत्येक सरकार राजनीति और धर्म के बीच लक्ष्मण रेखा खींचने में विफल रही है।
समय आ गया है कि भारत धार्मिक पूर्वाग्रहों से मुक्त हो और धर्म को राज्य से अलग करे अन्यथा हम भी ईरान और सऊदी अरब जैसे बन जाएंगे। सभी राजनीतिक दलों के बीच यह सहमति बननी चाहिए कि वोट बैंक की राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा क्योंकि इससे सांप्रदायिक हिंसा पैदा होती है और इस संबंध में कानूनी प्रावधानों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। किंतु दुर्भाग्यवश भारत की वर्तमान खंडित राजनीतिक स्थिति में इस बात की संभावनाएं नहीं हैं।
कुल मिलाकर हर कीमत पर सत्ता प्राप्त करने की लालसा रखने वाले हमारे राजनेताओं को वोट बैंक की राजनीति से परे सोचना चाहिए और वोट बैंक के लिए सांप्रदायिकता से बचना चाहिए तथा अपने उन निर्णयों से परे देखना चाहिए, जिनके चलते देश में सांप्रदायिकता बढ़ रही है। साथ ही धर्म को राजनीति से अलग करना चाहिए। अंत में जब हमारे राजनेता इसके नफा-नुक्सान का विश्लेषण करेंगे तो उन्हें एक सरल से प्रश्न का उत्तर देना होगा कि क्या सांप्रदायिक वोट बैंक की राजनीति वास्तव में उस लायक है, जो कीमत देश इसके लिए अदा कर रहा है।-पूनम आई. कौशिश