‘गौहत्या’ निवारण अध्यादेश 2020 की प्रासंगिकता

punjabkesari.in Saturday, Jul 11, 2020 - 04:12 AM (IST)

गौरक्षा आंदोलन भारतवर्ष में सबसे लम्बा चलने वाला आंदोलन रहा जिसको सामाजिक, राजनीतिक तथा कानूनी तीनों स्तरों पर बराबर लड़ा गया और अंतत: जीत गौ-सेवकों व गौ-रक्षकों की हुई। माननीय उच्चतम न्यायालय ने 5 सदस्यीय संवैधानिक पीठ द्वारा निर्णीत मोहम्मद हनीफ कुरैशी बनाम बिहार, 1958 एस.सी.सी. 731 को संशोधित करते हुए, 7 सदस्यीय संवैधानिक पीठ का निर्णय गुजरात राज्य बनाम मिर्जापुर मोती कुरैशी कसाब (2005) 8 एस.सी.सी. 534, 26 अक्तूबर 2005 में यह कहा कि हर तरह और हर उम्र का गौवंश समाज एवं किसान के लिए उपयोगी तथा आर्थिक और व्यापारिक रूप से लाभप्रद है। गौवंश नैर्सिंगक रूप से वर्तमान परिस्थितियों में उपयोगी ही नहीं बल्कि आवश्यक भी है। संवैधानिक पीठ ने यह भी कहा कि गौवंश की उपयोगिता वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध है और इनका मल और मूत्र उर्वरा शक्ति से भरपूर और दुर्लभ तत्वों से युक्त है जोकि मानव जाति तथा पर्यावरण के लिए बहुत ही लाभप्रद है। 

उक्त निर्णय को लिखते हुए संवैधानिक पीठ के माननीय सदस्यों ने गौवंश के धार्मिक एवं वैज्ञानिक रीति-रिवाजों, आस्था आदि सभी पहलुओं की बड़े ही विस्तृत और गहनता से चर्चा करते हुए इसकी पुष्टि की है कि किसी धर्म में गौवंश के वध से संबंधित कोई संदर्भ नहीं है। यहां तक कि कुरान के किसी सूरे में गौवंश की कुर्बानी की कोई चर्चा नहीं है। स्टेट ऑफ वैस्ट बंगाल वर्सेस आशुतोष लाहिरी 1995 एस.सी.सी. 189 में वैज्ञानिक आधार की चर्चा करते हुए यह भी कहा गया कि 16 वर्ष की अवधि के बाद भी गौवंश की उपयोगिता समाप्त नहीं हो जाती बल्कि एक बूढ़ा गौवंश 5 टन उपले और 343 पौंड यूरिन एक साल में देता है जोकि 20 बैलगाड़ी उर्वरक खादके समतुल्य है और 4 एकड़ भूमि में होने वाली उपज के लिए पर्याप्त है (नैशनल कमीशन ऑफ कैटल-वॉल्यूम 113, पेज 1063-1064, इस बात की पुष्टि करता है)।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को खारिज किया कि 16 वर्ष की उम्र से ज्यादा वाले गौवंश, नैर्सिंगक चारा व संपदा पर बोझ होते हैं और इसकी उपयोगिता इनके भोजन के मुकाबले व्यापारिक/ वाणिज्यिक रूप से सुसंगत नहीं है। नैशनल कमीशन ऑफ कैटल की रिपोर्ट में यह बतलाया गया है कि गौवंश के मांस से कुछ दिन, व कुछ समय के लिए रोजगार प्राप्त होता है, परन्तु गौसेवा से 5000-6000 उपले बनाए जा सकते हैं जिसे बेचकर एक व्यक्ति अपने न्यूनतम जीवन-यापन का प्रबंध कर सकता है। कुल मिलाकर, वाणिज्यिक और व्यापारिक आधार को तर्कसंगत ढंग से परीक्षित किया गया है और अंतत: माननीय उच्चतम न्यायालय ने गौवंश के वध व उनके मांस के व्यापार या अन्य संबंधित चीजों को माननीय गुजरात हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को मान्य रखते हुए इस पर सदा के लिए प्रतिबंध लगा दिया। वर्तमान में गौवंश की उपयोगिता बढ़ी है। 

आज जबकि उर्वरक और कीटनाशक आम जीवन में दखल देते हुए कर्क रोग जैसे असाध्य रोगों का कारण बन गए हैं, जैविक खाद और जैविक खेती वैज्ञानिक रूप से एकमात्र विकल्प देखे जा रहे हैं। ऐसे में गौ-वंश संवर्धन एवं संरक्षण देश और समाज के लिए पूर्ण मार्ग है और अगर यह कहा जाए कि भविष्य का मानव जीवन गौवंश और गौवंश और गौ-संवर्धन बिना संभव नहीं है, तो यह बात अतिशयोक्ति नहीं होगी। केवल धर्म व आस्था से जुडऩा व वैज्ञानिक आधार को नजरअंदाज करना भविष्य के मानव जीवन को खतरे में डालने के बराबर है। आज भी हमारा देश कृषि प्रधान देश है। 72 प्रतिशत आबादी परोक्ष व अपरोक्ष रूप में खेती पर निर्भर है। रसायन व दवाओं का प्रयोग जहां एक तरफ मिट्टी की उर्वरा शक्ति को क्षीण कर रहा है वहीं असाध्य रोगों को तीव्र गति से बढ़ा रहा है। कर्क (कैंसर) जैसी असाध्य बीमारी को मूल कारणों में यह एक कारण समझा जा रहा है। आज बेरोजगारी तथा गरीबी उन्मूलन में गौ संवर्धन, रक्षण, पालन एक प्रमुख आधार के रूप में सोचा जा रहा है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने दिनांक 9.6.2020, उत्तर प्रदेश गौ रक्षा अधिनियम (उत्तरप्रदेश गौ हत्या निवारण संशोधन अधिनियम 2020) को पारित कर दिया है जिसके तहत गौवध की अधिकतम सजा बढ़ाकर सश्रम 10 वर्ष कारावास कर दी है और साथ में 10 लाख जुर्माने का प्रावधान रखा है। इसी तरह कुछ नए संशोधन जोकि आवश्यक समझ कर सरकार ने किए जैसे कि गौवंश परिवहन करते हुए पाए जाने पर बरामद गौवंश के भरण-पोषण पर व्यय की वसूली इत्यादि। किसी भी गौवंश को चारा न देना व मरने के लिए छोड़ देना, परोक्ष व अपरोक्ष रूप से अपराध की परिधि में आएगा।(लेखक उच्चतम न्यायालय में उत्तराखंड सरकार के उप महाधिवक्ता हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)-बी.पी. सिंह


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