परम्परा के नाम पर ‘सुधार’ को रोका नहीं जा सकता

Monday, Jan 07, 2019 - 04:27 AM (IST)

वर्ष 2016 में केरल ने वाम मोर्चे को सत्ता के लिए चुना। कांग्रेस को पराजय मिली और उसने अपनी 7 प्रतिशत मत हिस्सेदारी खो दी मगर वाम मोर्चे ने भी अपनी लगभग 2 प्रतिशत वोटें गंवा दीं। वोटों में वृद्धि केवल एक पार्टी द्वारा हासिल की गई और वह थी भाजपा। इसकी मत हिस्सेदारी में 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई और मलयाली वोटों के इसके पहले के हिस्से में दोगुनी से अधिक वृद्धि करते हुए यह कुल 15 प्रतिशत तक पहुंच गई। 

यह एक बड़ी छलांग थी जो बहुत उत्साहजनक थी। लेकिन भाजपा यह कई दशकों से देश भर में कर रही है। गुजरात में जनसंघ (जो भाजपा का पहले का नाम था) को 1970 के दशक के मध्य तक केवल 2 से 3 प्रतिशत तक वोट मिलते थे। मगर पार्टी नेतृत्व ने प्रयास तथा कार्य जारी रखा और निजी हितों की आशा के बिना एक संगठन का निर्माण किया। पहले आपातकाल और फिर अयोध्या आंदोलन ने जनसंघ तथा भाजपा को इसे गतिशील करने तथा लपकने का अवसर दिया। कोई पार्टी पर राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए धार्मिक मुद्दों तथा विभाजनकारी नीतियों का सही आरोप लगा सकता है लेकिन कोई भी उस पर उन्हें प्राप्त करने में असफल रहने का आरोप नहीं लगा सकता।

केरल में संघ व भाजपा की रणनीति
पाठकों को जानकारी होगी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) तथा भाजपा ने केरल में कुछ ऐसा ही किया, हालांकि इस घटना में विकास के साथ काफी हिंसा भी आई। आर.एस.एस., भाजपा तथा वामदलों के बहुत से लोग मारे गए क्योंकि प्रभुत्व के लिए लड़ाई का स्तर अत्यंत गंदा बन गया था। भाजपा ने 2016 में केवल एक सीट जीती थी लेकिन आगामी चुनाव में यह उस राज्य में अंतत: एक प्रमुख दल के रूप में स्थापित हो जाएगी। पार्टी द्वारा आक्रामक रूप से सबरीमाला मुद्दे के इस्तेमाल ने निश्चित तौर पर उच्च जाति वोटों के बड़े भाग को आकॢषत करने में मदद की है, जो सभी भारतीयों को मंदिर में जाने देने की आज्ञा के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से गुस्से में हैं। 

अंतत: यहां विजय यद्यपि महिलाओं तथा उन लोगों की होगी जो परम्परा के अधिकारों की बजाय व्यक्ति के अधिकारों का समर्थन करते हैं। ऐसी रिपोर्ट है कि गत कुछ दिनों में तीन महिलाएं मंदिर के भीतर पहुंचने में सफल रही हैं। यह स्थिति को सुधारवादियों के पक्ष में ला देगा। जब तक वहां किसी महिला को प्रार्थना करने की इजाजत नहीं दी गई थी, भावनाओं की शक्ति ने मुद्दे को उबाले रखा। जैसे-जैसे अधिक से अधिक महिलाएं ऐसा करेंगी, वैसे-वैसे मामला धूमिल होता जाएगा। 

दलितों के मंदिरों में प्रवेश का मामला 
हम पहले भी भारत में इसी मुद्दे पर ऐसी ही स्थिति देख चुके हैं। 1930 के दशक में मुद्दा यह था कि दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने दिया जाए अथवा नहीं। महात्मा गांधी का विरोध हिंदू दक्षिण पंथी समूहों ने किया, जिन्होंने दलितों के प्रवेश का समर्थन करने के लिए गांधी जी के खिलाफ धरने दिए। अहमदाबाद में स्वामी नारायण सम्प्रदाय जिसका संचालन मुख्य रूप से मेरे समुदाय के पटेलों द्वारा किया जाता है, ने दलितों को बाहर रखने के लिए खुद को गैर- हिंदू घोषित कर दिया। उन्होंने ऐसा यह दावा करने के लिए किया कि बाम्बे हरिजन मंदिर प्रवेश कानून उन पर लागू नहीं होता। 

लेकिन निश्चित तौर पर हम जानते हैं कि ऐसी चीजें काम नहीं करतीं। आखिरकार हम परम्परा के नाम पर भेदभाव नहीं कर सकते तथा समय के साथ हमेशा सही चीजें प्रभावी होती हैं। पटेल दलितों के प्रवेश के विरुद्ध लड़ते रहे लेकिन सुप्रीम कोर्ट में हार गए। जजों ने यह व्यवस्था दी कि हरिजनों के मंदिरों में प्रवेश का अधिकार उनके सभी सामाजिक सुविधाओं तथा अधिकारों को भोगने के अधिकार का प्रतीक है। जिसके लिए सामाजिक न्याय जीवन के लोकतांत्रिक तरीके का मुख्य आधार है, जिसे भारतीय संविधान की धाराओं में स्थापित किया गया है। आज यह अवधारणा सामान्य दिखाई देती है और कोई भी इसका अपवाद नहीं है। 

कुछ ऐसा ही केरल में होगा। कुछ महीनों अथवा कुछ वर्षों में मंदिर में महिलाओं को देखना सामान्य बन जाएगा। जो लोग वर्तमान में परम्परा की पराजय को लेकर गुस्से में हैं, समय के साथ उनका गुस्सा भी समाप्त हो जाएगा। जो लोग दलितों को बाहर रखना चाहते थे आज वे कहीं नहीं मिलते। वे समाप्त नहीं हुए लेकिन उनके विचार बदल गए हैं तथा हमारा समाज बदल गया है। आज कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि दलितों को मंदिरों से दूर रखने के लिए व्यक्ति के अधिकारों पर परम्परा को अहमियत दी जानी चाहिए। 

भविष्य में हमें हैरानी होगी
किसी समय हमें हैरानी होगी कि हम 2019 में मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश जैसे मुद्दे को लेकर लड़ रहे थे। समाज के रूढि़वादी तत्व निरंतर सुधार को रोकना चाहते हैं क्योंकि यह परम्परा को नुक्सान पहुंचाते हैं। जब इसने एक लड़ाई हार दी, दलितों को लेकर, तो इन रूढि़वादी तत्वों ने अगला मुद्दा पकड़ लिया, महिलाएं। भविष्य में कुछ और होगा लेकिन वहां भी यह गुस्सा दिखाएगा लेकिन फिर अपरिहार्य को स्वीकार कर लेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि परम्परा की पराजय अल्पावधि में राजनीतिक तौर पर भाजपा की मदद करेगी। लेकिन दीर्घावधि में यह कानून को मानने वाले तथा अधिकारों का सम्मान करने वाले समाज के नाते हमारी सहायता करेगी।-आकार पटेल 

Pardeep

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