दिमाग में लाल बत्ती की ठसक बरकरार

Friday, Sep 01, 2017 - 04:20 PM (IST)

लाल! बत्ती प्रकरण, जीहां गाड़ी से लाल बत्ती उतरने का फरमान जारी हो चुका है, तथा कई नेताओं ने अपने गाड़ी की लाल बत्ती उतारने में तनिक भी देरी नहीं कि, तत्परता दिखाते हुए हुए आदेशों का पालन किया जाना आरम्भ हो गया| फटाफट गाड़ियों की बत्तियां उतारी जाने लगीं, तथा गाडियों को इसकी सजावार मानकर, कुछ नेताओं ने ऎसी मानसिकताओं को पाल लिया, तथा अपने मन के अंदर ऐसी सोंच को स्थान दे दिया। तो सोचना पड़ेगा, समझना पडेगा, गहनता से अध्ययन करना पड़ेगा कि गाड़ी से लाल बत्ती क्यों उतारी गई। यह गंभीर प्रश्न है, क्या गाड़ी की मानसिकता अहंकारी हो गई थी अथवा मानव की।क्योकि बत्ती तो गाड़ी की उतारी गई। मानसिकता की नहीं, इस आधार पर तो शायद गाड़ी ही अहंकारी साबित हो रही है, इसीलिए गाड़ी को इस बात की सजा सुना दी गई और उसी को अहंकारी मानकर उसकी लाल बत्ती उतार दी गई।

क्योकि संभवतः सत्ता की हनक की मानसिकता प्रशंसनीय थी, तभी उसपर डंडे नहीं चटकाए गए, उसकी मानसिकता से लाल बत्ती नहीं उतारी गई, तभी तो सत्ता की हनक एवं सत्ता की ठसक लिए, बिना लाल बत्ती के ही नेता जी का जलवा कायम है, और विधायक जी सत्ता के अहंकार में चूर हैं, उन्हें तनिक भी इस बात का भय भी नहीं की हमारे ऊपर भी कार्यवाही हो सकती है, शायद विधायक जी को यह लगता है की हम न्याय पूर्ण हैं, और हमारी प्रत्येक कार्य शैली न्याय संगत है, क्योकि हम सत्ता में हैं, तो समझना पड़ेगा की सत्ता में होने की ठसक क्या इस बात का साक्ष्य है, की सत्ताधारी व्यक्ति के द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य भारतीय संविधान के अंतर्गत न्याय पूर्ण होता है, इसको बड़ी गंभीरता से समझना पडेगा, तथा इसकी परिभाषा का पुनः विस्तारपूर्वक गहनता से अध्ययन करना पड़ेगा।

क्योकि सत्ता की ठसक में विधायक जी की मानसिकता में लाल बत्ती लगी हुई है, जोकि उतारी नहीं गई, क्योकि बत्ती तो गाड़ी की उतारी गई, जिसके परिणाम स्वरूप भुक्ति भोगी गरीब जनता होती है। जोकि दो जून की रोटी के प्रबंध में संघर्ष करती रहती है, परिवार के भरण पोषण का बोझ इतना अधिक हो जाता है की सांस लेने की फुरसत ही नहीं मिलती, क्योकि यह जालिम पेट तो है,..जोकि मेहनत एवं मजदूरी करने पर विवश एवं मजबूर कर देता है, चाहे दिसंबर जनवरी की कड़ाके की ठण्ड हो, अथवा मई जून की विकराल गर्मीं, गर्म हवाओं एवं लूह के थपेड़े, परन्तु इस पापी पेट के लिए सब सहन करना पड़ता है, मेहनत मजदूरी करनी पड़ती है, क्योकि परिवार की दो जून की रोटी का प्रबंध करना है, तो गर्मी, सर्दी, बारिश, सब कुछ इस शरीर पर सहन करना पड़ेगा, क्योकि पेट भरने के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं है, जिसका प्रयोग किया जाए, तो मजबूरी है, और मजबूरी ही सब कुछ करावा लेती है।

समय से आना, समय से जाना, कार्य के प्रति दृढता से सजग रहना, जिम्मेदारी का निर्वाह करना जैसी अनेकों महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वाह करना, अनेकों प्रकार का बोझ एक बेचारे गरीब व्यक्ति पर लदा हुआ होता है, यदि तनिक भी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में चूक हो जाए तो नौकरी खतरे में आ जाएगी, मालिक एवं मैनेजर की डांट भी सुननी पड़ेगी, तथा नौकरी से हाथ भी धोना पड़ जाएगा, इस पापी पेट के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी, इसको कैसे भरा जाएगा, क्योकि बड़ी मुश्किल से तो काम मिला है बेरोजगारी का तो यह आलम है, नौकरी में तनिक भी गड़बड़ी हुई मानो रोटी छिन गई, तो फिर परिवार में भूख से हाहाकार ही समझिए, इसलिए मालिक एवं मैनेजर के आदेशों का पालन किया जाए एवं नौकरी की जिम्मेदारियों का नैतिकता निर्वहन किया जाए, परन्तु कैसे?

क्योकि सत्ता की ठसक वाले विधायक भी तो हैं,विधायक जी की ठसक तो सब पर भारी है, अत्यधिक संकट है बड़ी मजबूरी है, क्या किया जाए, क्योकि मार दोनों तरफ से पड़ रही है, एक तरफ से पेट पर, तो दूसरी तरफ से पीठ पर, यदि नौकरी में नैतिकता एवं जिम्मेदारी का पालन नहीं तो पेट पर जोरदार प्रहार, भूख के कारण पूरे परिवार में हाहाकार शुरू, तथा दूसरी तरफ सत्ता की ठसक, विधायक का रोब, लाव लश्कर साथ पीट पर मार, यदि विधायक जी की नहीं सुनी तो पीठ लात जूते से लाल समझिए,…और नौकरी में नैतिकता का पालन नहीं तो पेट पर मार, दोनों तरफ से मार ही मार है, क्या किया जाए, अत्यंत गंभीर समस्या है, अब बताइए गरीब आदमी क्या करे, टोल टैक्स पर नौकरी छोड़ दे तो भूख से मर जाए, और यदि नियमानुसार टोलकर चुकाने का आग्रह विधायक जी से कर दे तो पीठ पर लात घूसे बरसने शुरू। गरीब आदमी क्या करे पीट पर मार खाए अथवा पेट पर, क्योकि क़ानून के हाथ, अब सत्ता के हाथो के अनुपात में शायद छोटे हो गए हैं।बेचारा गरीब आदमी न्याय की गुहार भी लगाने के लिए अपना साहस नहीं जुटा पाता।क्योकि थानों में भी लाल बत्ती वाली मानसिकताओं की ठसक बरकरार होती है।

                                           (एम.एच. बाबू)

                                ये लेखक के अपने विचार है।

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