श्रीलंका के बर्बाद होने के कारण

punjabkesari.in Thursday, Jul 28, 2022 - 06:33 AM (IST)

श्रीलंका में भारी आर्थिक संकट और राजनीतिक उथल-पुथल के बाद नई सरकार का गठन हो गया है। यह अलग बात है कि नव-निर्वाचित राष्ट्रपति और 6 बार प्रधानमंत्री रहे रानिल विक्रमसिंघे के खिलाफ भी जनता का आक्रोश कम होने का नाम नहीं ले रहा। इसका एक बड़ा कारण कार्यवाहक राष्ट्रपति रहते हुए विक्रमसिंघे द्वारा 13 जुलाई को देश पर फिर से आपातकाल थोपना है। स्वतंत्रता के बाद से श्रीलंका में 15वीं बार आपातकाल लगा है। बकौल प्रदर्शनकारी, उन्हें विक्रमसिंघे से बिल्कुल अपेक्षा नहीं है, क्योंकि जिस राजनीतिक नेतृत्व में श्रीलंका बर्बाद हुआ है, उसका विक्रमसिंघे हिस्सा रहे हैं। 

श्रीलंका में विनाश के लिए कई घटक जिम्मेदार हैं। कुटिल चीन के साथ घनिष्ठ आॢथक जुड़ाव ने इस देश को पंगु बना दिया। चीन विश्व का ऐसा एकमात्र देश है, जिसके सत्ता-अधिष्ठान में ‘अनिश्वरवादी’ वामपंथी अधिनायकवाद, तो अर्थव्यवस्था में समाजवाद को समर्पित रुग्ण पूंजीवाद है। संक्षेप में कहें, तो यह दुनिया में मानवाधिकारों के हनन को बढ़ावा देने वाली एक स्वाभाविक व्यवस्था है। चीन की विदेश नीति साम्राज्यवाद से प्रेरित है, जोकि ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ का एक आधुनिक संस्करण है। 

अपनी आर्थिक योजनाओं की पूर्ति हेतु बजट की कमी दूर करने और व्यापार घाटे को पाटने के लिए श्रीलंका ने चीन के अतिरिक्त कई देशों (भारत सहित) और वैश्विक संगठनों से भारी-भरकम ऋण लिया। फिर उसी कर्ज का उन असंगत, अतार्किक, अविवेकपूर्ण परियोजनाओं पर व्यय किया, जिनका शायद ही कोई आर्थिक औचित्य हो। इसी में से एक राजपक्षे हवाईअड्डा है, जिसे 20 करोड़ अमरीकी डॉलर के चीनी कर्ज से बनाया है, जो बाद में अपने बिजली बिल का भुगतान करने के लिए भी पर्याप्त धन नहीं जुटा पाया। इसी विमानपत्तन के पास डेढ़ करोड़ अमरीकी डॉलर से बना ‘कांफ्रैंस सैंटर’ है, जो शायद ही अब तक किसी उपयोग में आया है।

श्रीलंका का सकल घरेलू उत्पाद 82 अरब डॉलर है, जबकि उस पर मौजूदा कर्ज 51 अरब डॉलर का है, इसमें अकेले 10 प्रतिशत चीन का है। चूंकि चीन कर्ज माफी में विश्वास नहीं रखता और वह किसी न किसी तरह से उसे वसूल लेता है, इसलिए कर्ज के बदले में चीन ने श्रीलंका के रणनीतिक हंबनटोटा बंदरगाह को 99 वर्ष के लिए अपने पास गिरवी रख लिया। कोलंबो में भी चीन कृत्रिम 665 एकड़ द्वीप पर अपनी एक बड़ी कॉलोनी बना रहा है। 

सत्तारूढ़ दल द्वारा वर्षों से प्रदत्त लोक-लुभावन नीतियों और कर में कटौती ने भी श्रीलंका को आर्थिक रूप से निर्बल कर दिया, जो भारत में मुफ्तखोरी प्रेरित राजनीति के लिए सख्त चेतावनी भी है। इसके साथ तथाकथित पर्यावरणविदों ने श्रीलंकाई संकट को और भी दुष्कर बना दिया। वर्ष 2021 में स्वयं-भू कृषकवादियों के परामर्श और भ्रामक अभियानों के प्रभावित होकर तत्कालीन श्रीलंकाई सरकार ने देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने हेतु सभी रासायनिक उर्वरक आयातों पर प्रतिबंध लगा दिया। इस कदम से श्रीलंका में खाद्य उत्पादन ध्वस्त हो गया और महंगाई चरम पर पहुंच गई। 

श्रीलंका ने एक चीनी कंपनी के साथ लगभग 3,700 करोड़ रुपए में 99,000 टन जैविक खाद खरीदने का एक समझौता किया था। किंतु श्रीलंका ने पूरी खेप को यह कहते हुए लेने से अस्वीकार कर दिया कि इसके नमूने में हानिकारक जीवाणु हैं। इस पर बौखलाते हुए घोर ‘प्रतिक्रियावादी’ चीन ने बहाना बनाकर एक श्रीलंकाई सार्वजनिक बैंक को काली-सूची में डाल दिया। 

श्रीलंका का आर्थिक संकट कोई डेढ़-दो दशक पुराना नहीं है। 1948 में स्वतंत्रता पाने के बाद वर्ष 1965 से उसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ.) से 16 बार बेलआऊट पैकेज लेना पड़ा। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीलंका शायद ही अपने सरकारी ऋणों की पूर्ति घरेलू बचत से करता है, इसलिए वह अपने चालू खाते के घाटे और कल्याणकारी परियोजनाओं को बनाए रखने के लिए 1960 के दशक से बहुपक्षीय उधार पर निर्भर है। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए श्रीलंका उच्च ब्याज दरों पर वैश्विक  कर्ज लेने हेतु ‘अंतर्राष्ट्रीय सॉवरेन बांड’ जारी करता रहा है। श्रीलंका आई.एम.एफ. से फिर से 3 बिलियन डॉलर का राहत पैकेज मांग रहा है।

श्रीलंका एक के बाद एक इतनी गलतियां क्यों करता रहा? इसका उत्तर वंशवाद प्रेरित राजनीति में निहित है। राजपक्षे परिवार के सदस्य देश के कई महत्वपूर्ण पदों पर वर्षों से आसीन रहे। गोटबाया राजपक्षे (राष्ट्रपति), महिंदा राजपक्षे (प्रधानमंत्री), चमल राजपक्षे (गृहमंत्री), नमल राजपक्षे (खेल मंत्री), शाशेंन्द्र राजपक्षे (कृषि मंत्री) इसके उदाहरण हैं। आधुनिक प्रतिस्पर्धी दुनिया में परिवारवादी सत्ता-तंत्र का कोई स्थान नहीं, जिसका सबसे विषाक्त फल-सुहृद, पूंजीवाद होता है, जो एक ऐसी आर्थिकी का निर्माण करता है, जिसमें धन का सृजन, कठिन परिश्रम से नहीं, अपितु मिलीभगत, षड्यंत्रों और भ्रष्टाचार से व्यवस्था को लूटने के लिए होता है। 21 अप्रैल, 2019 को कोलंबो के विभिन्न चर्चों-होटलों में शृंखलाबद्ध इस्लामी आतंकवादी हमले और कोरोनाकाल ने श्रीलंकाई पर्यटन उद्योग को रसातल में पहुंचा दिया। 

आशा है कि श्रीलंका वैसी अराजक स्थिति से न घिर जाए, जैसा उसने 1980 के दशक में, विशेषकर अप्रैल 1987-दिसम्बर 1989 के बीच अनुभव की थी। उस समय अति-वामपंथी जनता विमुक्ति पेरामुना (जे.वी.पी.) ने श्रीलंका सरकार के खिलाफ हिंसक विद्रोह का नेतृत्व किया था, जिसे भारत, इसराईल और ब्रिटेन के सहयोग से कुचल दिया गया था। विश्व को चाहिए कि वह दक्षिण एशिया में श्रीलंका को दूसरा अफगानिस्तान बनने से रोके।(पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष)-बलबीर पुंज
 


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