वास्तविक मुद्दे चुनाव प्रचार से ‘नदारद’

Thursday, May 09, 2019 - 12:35 AM (IST)

अब जबकि हम लोकसभा चुनावों के लिए प्रचार अभियान के अंतिम चरणों तक पहुंचने वाले हैं, एक पहलू जो स्पष्ट रूप से सामने खड़ा है, वह है उन मुद्दों का जिनके बारे में मतदाताओं को प्रभावित करने को लेकर बात की जा रही है। कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल उन वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर रहा, जो सीधे तौर पर सामान्य व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। नि:संदेह चुनावी शब्दाडम्बर सर्वाधिक निम्र सम्भावित स्तर पर पहुंच गया है और देश की स्वतंत्रता के बाद से यह सर्वाधिक कटु प्रचार बनता जा रहा है।

सम्भवत: इसका कारण यह है कि इन चुनावों में दाव बहुत ऊंचे हैं लेकिन जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है वह न केवल घटिया बल्कि अश्लील भी है। क्या कोई अटल बिहारी वाजपेयी या लाल कृष्ण अडवानी अथवा मनमोहन सिंह द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों पर ऐसे कड़े शब्दों से हमले बारे सोच सकता है?

चिंताजनक मुद्दे
मगर शब्दों के चयन के अतिरिक्त जो मुद्दे उठाए जा रहे हैं, वे चिंता का कारण हैं। विकास के मुद्दों तथा सरकार की सफलताओं के बारे में बात करने की बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ‘परिवार’  को अपना निशाना बना रहे हैं। वे सारा जोर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की कथित असफलताओं पर दे रहे हैं तथा राजीव गांधी के निधन को हल्के संदर्भ में लेते हुए शालीनता की सारी सीमाएं लांघ गए। उनकी हत्या श्रीलंका के तमिल आतंकवादियों ने एक आत्मघाती बम हमले में कर दी थी। सबसे विवादास्पद वह तरीका था, जिससे टिप्पणी की गई कि-जिस व्यक्ति को मिस्टर क्लीन के तौर पर जाना जाता था, उसने अपना जीवन भ्रष्टाचारी नम्बर एक के तौर पर समाप्त किया। स्पष्ट तौर पर स्पर्धा भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस के बीच बनाने की बजाय मोदी तथा नेहरू-गांधी परिवार बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

इस बात का शायद ही हवाला दिया जाता है जिसे वह नोटबंदी के रूप में ‘सबसे बड़ा आर्थिक सुधार’ कहते हैं या जी.एस.टी. के लाभ अथवा यहां तक कि सरकार द्वारा शुरू किए गए विकासात्मक कार्य। प्रस्तावित बुलेट ट्रेनों अथवा स्वच्छ गंगा परियोजना अथवा यहां तक कि राजमार्गों के निर्माण में तेजी लाने आदि का कोई हवाला नहीं दिया जाता।

कांग्रेस पर भी ‘चौकीदार चोर है’ के नारे का जुनून सवार नजर आता है और हर रोज इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके तथा अन्य विपक्षी दलों के कुछ नेताओं द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा भी ङ्क्षनदनीय है। अज्ञात कारणों से ये पाॢटयां सरकार की विभिन्न असफलताओं पर जोर नहीं दे रहीं। वे लाखों नौकरियां जाने अथवा बढ़ती महंगाई या कृषि संकट अथवा काला धन वापस लाने में सरकार की असफलता तथा बैंकों को चूना लगाकर विदेश भागने के आरोपियों पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर रहीं।

चुनाव आयोग निष्प्रभावी साबित हुआ
कटु प्रचार ने चुनावी माहौल को दूषित बना दिया है और दुर्भाग्य से चुनाव आयोग, जिसके पास बहुत शक्तियां हैं, निष्प्रभावी साबित हुआ है। इसने मोदी सहित कई नेताओं को यूं ही छोड़ दिया, यहां तक कि भड़काऊ टिप्पणियों के बावजूद चेतावनी तक नहीं दी गई। यहां तक कि सर्वविदित है कि दो चुनाव आयुक्तों में से एक अशोक लवासा ने आयोग द्वारा दिए गए निर्णय पर अपना असंतोष जताया है, मगर उनकी आवाज का कोई अर्थ नहीं क्योंकि आयोग बहुमत के नियम पर कार्य करता है।

दुर्भाग्य से चुनावी कीचड़ का रुख जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार की बजाय बोफोर्स बनाम राफेल सौदे की ओर किया जा रहा है। पारदॢशता तथा डिजीटलाइजेशन लागू करने के प्रयासों के बावजूद सामान्य लोग निरंतर रोजमर्रा के भ्रष्टाचार से पीड़ित हैं। तर्क यह है कि इसका बहुत कम प्रभाव है। कुछ लोग तो यह भी कहेंगे कि स्थिति और भी खराब हो गई है क्योंकि ‘ऊंचे जोखिमों’ के नाम पर बड़ी राशियों की मांग की जा रही है।

बड़े-बड़े वायदों तथा जीवन निर्वाह के लिए भत्तों की घोषणा करने वाले विभिन्न राजनीतिक दल अर्थव्यवस्था या घोषित की गई परियोजनाओं के लिए कैसे धन पैदा करेंगे, इस बारे बात नहीं कर रहे। भारतीय मतदाता इस सब पर करीबी नजर रखे हुए हैं। साक्षरता दर तुलनात्मक रूप से बेशक अभी भी कम हो लेकिन इसने अतीत में अपनी राजनीतिक सूझबूझ दिखाई है। मतदाताओं ने अतीत में  कांग्रेस को 414 सीटें दी थीं मगर इसे 44 पर भी ला दिया। इसी तरह किसी समय इसने भाजपा को केवल 2 सीटें दी थीं और गत चुनावों में इस संख्या को बढ़ा कर 282 कर दिया। मतदाताओं के मन में विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए क्या है, इसका पता केवल 23 मई को ही चलेगा।  -विपिन पब्बी   vipinpubby@gmail.com

Advertising