राम, रामराज्य और राष्ट्र उत्थान

Sunday, Jan 28, 2024 - 06:57 AM (IST)

प्रभु श्री राम की लहर चल रही है। राम हर युग में व्याप्त रहे हैं, प्रत्येक विषम परिस्थिति में संकट मोचक की तरह देखे जाते रहे हैं, दु:ख में एक आशा की किरण माने जाते रहे हैं। जब कोई संकट आता है तो राम पर उसे दूर करने का काम छोड़कर निश्चिंत हो जाते हैं और कहते हैं कि राम सब भली करेंगे। जो करना है, वही करेंगे, जो होगा उनकी इच्छा से होगा। हमें केवल उसे स्वीकार करना है और जाहि विध राखे राम ताहि विध रहिए, सोचकर अपने काम में लग जाते हैं। राम की यही महिमा है। 

राम और कृष्ण का विपरीत स्वरूप : हमारे देश में दो भगवानों की प्रमुखता है। एक मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र और दूसरे लीला पुरुषोत्तम श्री कृष्ण। जब मनुष्य किसी विपदा में होता है तो राम का स्मरण करता है और जब कुछ प्रेम प्रसंग या हंसी ठठोली की बात आती है तो नटखट कृष्ण की सुधि ली जाती है। राम और कृष्ण के व्यक्त्वि और चरित्र में यही अंतर है। राम एक पत्नीव्रत धारण किए हुए थे जबकि कृष्ण की अनेक पत्नियां थीं। उनमें भी राधा जो हालांकि विधिवत् उनसे ब्याही नहीं थीं पर उनके बिना कृष्ण की कल्पना नहीं की जा सकती। एक ओर सीता-राम हैं तो दूसरी ओर राधा-कृष्ण हैं। 

सीता का राम से विवाह हुआ था और उनके अतिरिक्त राम के जीवन में कोई अन्य महिला नहीं आई, परंतु कृष्ण के जो विधिवत विवाह हुए, उनसे अलग उनका नाम राधा के ही साथ लिया जाता है जबकि उनका विवाह नहीं हुआ था। वे रासलीला करते थे, गोपियों के हृदय में समाए रहते थे। कुछ लोग इसे कृष्ण की स्वच्छंदता समझकर उन्हें राम से कम आंकने की भूल कर लेते हैं जबकि राम हों या कृष्ण दोनों ही आवश्यक हैं। न हम राम के बिना रह सकते हैं और न कृष्ण के, इसीलिए भजन भी यह करते हैं : हरे राम, राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। राम और कृष्ण दोनों एक साथ जबकि स्वभाव, चरित्र और जीवन प्रसंग दोनों के एक-दूसरे से बिल्कुल अलग। जो भी हो, दोनों ही आराध्य हैं और हमें दोनों ही जीवन में चाहिएं। 

संकट मोचक राम: मुगलों ने भारत में अपने पैर जमाने की कोशिश की तो जैसा कि प्रत्येक आक्रांता करता है, उन्होंने भी किया। हमारी संस्कृति, धरोहर और प्राचीन सभ्यता तथा उसके अवशेषों को नष्ट कर उनकी जगह अपने मूल्य स्थापित किए ताकि उन्हें भुलाकर इनके रंग में रंग जाए। हमारे मंदिरों पर हमले हुए, उन्हें नष्ट करने की हरसंभव कोशिश की गई और यदि समूल नष्ट नहीं कर सके तो उन स्थानों पर अपने निर्माण कर लिए। जब अत्याचार होते हैं और जुल्म का प्रतिवाद या मुकाबला करने की स्थिति में नहीं होते तो भक्ति का जन्म होता है। दीन या याचक की भांति भक्ति भाव पैदा होने लगता है। लगता है कि यही एक मार्ग है जो आततायी से बचा सकता है। 

भक्ति युग के इस काल में तुलसीदास आए और उन्होंने रामचरितमानस की रचना की और इसी क्रम में सूरदास आए और उन्होंने कृष्ण भक्ति से आेत-प्रोत रचनाएं कीं। राम और कृष्ण गरीब और अमीर सबके आराध्य तो थे ही। जहां गरीब लुटा-पिटा रहता था वहां अमीर का भी शोषण होता था। सभी की रक्षा राम और कृष्ण करते हैं, ऐसा भाव मन में रहता था। भक्तिकाल के कवियों की रचनाओं से लोगों के मन को सुकून मिलता था, जालिम का मुकाबला करने का साहस उत्पन्न होता था और वे अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर एक दूसरे से सहयोग करने के बारे में नीतियां बनाते थे। 

छत्रपति शिवाजी सब के आदर्श बन गए, उनकी वीरता की कहानियां बच्चे-बच्चे की जुबान पर थीं। राम कथा का बांचना और सुनना प्रत्येक परिवार की दिनचर्या में सम्मिलित हो गया। गुरु गोबिंद सिंह अवतरित हुए और उन्होंने भी जो रचनाएं कीं उनमें भी राम का वर्णन होता था। राम जन्मभूमि पर बाबरी मस्जिद भी इसी कालखंड में बनी। इसी कारण जब आज उसी स्थल पर राम मंदिर बना तो पूरा देश एक स्वर से उसके साथ हो गया। इतना उत्साह, इतनी ऊर्जा और साहस एक साथ व्यक्त होने का कारण यही था कि इतने वर्षों बाद लोगों के अंदर न्याय होने जैसी भावना बलवती हो रही थी।

मुगलों के बाद अंग्रेज आए और उन्होंने भी भारत की संस्कृति और सभ्यता को नष्ट करने का काम किया। इस दौर में साहित्य में भी ऐसे कवि हुए जिन्होंने राम की अनेकों प्रकार से स्तुति की। साहित्य में छायावाद के रूप में जाने गए इस युग में महाकवि पंडित सूर्य कांत त्रिपाठी निराला की रचना ‘राम की शक्ति पूजा’ रामचरितमानस की तरह ही लोकप्रिय हुई। दूसरे स्तम्भ जय शंकर प्रसाद थे जिन्होंने कामायनी जैसी अतुलनीय कृति की रचना की। इसके जोड़ की रचना भारतीय ही नहीं विश्व साहित्य में भी शायद ही मिले।

तीसरे कवि सुमित्रा नंदन पंत हुए जिन्होंने रश्मि बंध की रचना कर पाठकों को अद्भुत रचना दी। छायावाद की अगली स्तंभ थीं महादेवी वर्मा जिन्होंने प्रेम, भक्ति और शृंगार से हृदय के तार झंकृत कर सकने वाली रचनाएं दीं। एक और क्रांतिकारी अपनी औघड़ छवि वाले बाबा नागार्जुन ने राम को लेकर एक भावभीनी रचना देकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। राम राज्य की कल्पना अब जहां तक रामराज्य की बात है तो इसकी भूमिका को लेकर बापू गांधी ने आजादी से पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि इसका अर्थ न्याय से चलने वाला शासन है। इसका अर्थ यह हुआ कि अंग्रेज सरकार न्यायपूर्ण नहीं है इसलिए इससे मुक्ति मिलनी ही चाहिए। भारत छोड़ो आंदोलन इसकी परिणति थी। 

अब आज जब हम देश में रामराज्य की स्थापना की बात विभिन्न मंचों से सुनते हैं तो यह कैसा होगा, इसकी रूपरेखा के बारे में कुछ भी स्पष्ट न होने से अनेक भ्रांतियां हैं। इसकी पहली शर्त है कि सभी के लिए न्याय पाना सुलभ हो। अभी तो यह इतना महंगा और जटिल है कि साधारण व्यक्ति इसके बजाय अन्याय सहने या समझौता करने का रास्ता अपनाता है। अदालतों में पैंङ्क्षडग मुकद्दमे और पीढिय़ों तक सुनवाई ही चलते रहने के कारण न्याय व्यवस्था पर विश्वास नहीं होता। रामराज्य की दूसरी शर्त है कि शिक्षा और रोजगार सब के लिए सुलभ हो। देश में अभी यह दूर की कौड़ी है। भेदभाव करने वाली शिक्षा नीति और योग्यता तथा आवश्यकता के आधार पर रोजगार न मिलना वास्तविकता है। 

रामराज्य की तीसरी शर्त है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। मन की बात कहने में डर लगे और कह भी दो तो उसका कोई प्रभाव न हो, उपेक्षित होने जैसा भाव मन में हो। यही नहीं आलोचना का परिणाम प्रताड़ना का भय हो तो कैसे कहा जा सकता है कि हमें चाहे हमारी बात कितनी भी अर्थपूर्ण हो, बोलने की आजादी है। उम्मीद है कि कभी तो रामराज्य की कल्पना साकार होगी।-पूरन चंद सरीन
 

Advertising