सूखे क्षेत्रों में वर्षा, वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखा, बढ़ती मुश्किलें

punjabkesari.in Wednesday, Jul 03, 2024 - 05:41 AM (IST)

शुक्रवार की सुबह जब लोग प्रात: उठे तो देश की राजधानी दिल्ली में मूसलाधार बारिश ने उनका स्वागत किया। यह बारिश इतनी भयावह थी कि सारी सड़कों पर कमर तक पानी भर गया, सीवेज का पानी भी लोगों के घरों में घुसने लगा, उनकी गाडिय़ां खराब हो गईं, कुछ तालाब में बतख की तरह तैरने लगीं, लोगों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। 

राजनेताओं ने सरसरी तौर पर औपचारिक राजनीतिक सर्कस की अपनी भूमिका निभाई क्योंकि वे संसद में सरकार और विपक्ष के बीच जारी तू-तू, मैं-मैं में अत्यधिक व्यस्त थे। दिल्ली में उपराज्यपाल ने अधिकारियों के दल-बल के साथ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया, स्थिति का आकलन किया और अधिकारियों को समस्या को दूर करने का निर्देश दिया। फोटोग्राफरों ने इस दौरे की फोटो ली। इसके अलावा एक आपदा प्रबंधन बोर्ड का गठन किया गया। हर किसी ने अपने विचार और उपाय बताए और मूसलाधार बारिश के बीच जल भराव पर चर्चा हुई तथा हर कोई इस बात से संतुष्ट था कि उन्होंने अपना कत्र्तव्य निभा दिया है। 

केवल दिल्ली ही नहीं, पूरे देश में यही कहानी है। देश के विभिन्न राज्यों से जल भराव की खबरें मिल रही हैं। पंजाब में बाढ़ की स्थिति बनी हुई है। कई क्षेत्र पानी में डूब गए हैं। संभवत: सर्वोत्तम नियोजित शहर चंडीगढ़ में ट्रैफिक जाम लग गया और जलापूर्ति प्रभावित हुई। पिछले वर्ष सुखना झील का जल स्तर खतरे के निशान से ऊपर पहुंचने के बाद उसके फ्लड गेट खोले गए थे। राजस्थान सूखा क्षेेत्र में आता है और उसके चार जिलों में भारी वर्षा हो रही है। तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भारी बारिश हो रही है। कुल मिलाकर देश के सूखा क्षेत्रों में अधिक वर्षा हो रही है और कृषि क्षेत्रों, जहां पर सामान्यत: अधिक वर्षा होती है, वहां पर कम वर्षा हो रही है। वर्षा का वितरण भी समान नहीं है। देश में वर्ष में 318 दिन विषम मौसम की स्थिति बदली है जिसके चलते 3287 लोगों की मौत हुई। 1 लाख 24 हजार पशुओं की मौत हुई और 22 लाख 10 हजार हैक्टेयर क्षेत्र में फसल बर्बाद हुई। पिछले वर्ष अगस्त सौ सालों में सबसे शुष्क महीना रहा और इस तरह 36 प्रतिशत कम वर्षा हुई। मई में उत्तर भारत में भीषण गर्मी का प्रकोप रहा और हीट वेव में 125 प्रतिशत की वृद्धि हुई जिसके चलते जलाशयों में जल स्तर घटा। 

केन्द्रीय जल आयोग के अनुसार 125 जलाशयों मे केवल 21 प्रतिशत पानी उपलब्ध था। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, और केरल के 42 मुख्य जलाशयों में पानी का स्तर 17 प्रतिशत रह गया। गंगा के मैदान में स्थित बिहार के जिलों में धान की रोपाई शुरू हो जानी चाहिए थी, किंतु वहां पर सूखा पड़ा हुआ है। राज्य के 64 प्रतिशत हिस्सों में कम वर्षा हो रही है। महाराष्ट्र के 80 प्रतिशत भाग वर्षा पर निर्भर हैं और मराठवाड़ा और विदर्भ में मानसून देरी से पहुंचा है। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में भी यही स्थिति देखने को मिल रही है, जहां पर जून-जुलाई में कम वर्षा देखने को मिल रही है और इसका कारण मानव है। भारी अवसंरचना विकास, सड़कों, घरों, होटलों, बहुमंजिला इमारतों का अनियोजित निर्माण, जल-मल व्ययन प्रणाली, सड़कों, सुरंगों, और पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र में जल विद्युत परियोजनाओं और बांधों आदि के कारण दबाव बढ़ रहा है। 

देश में चक्रवात, बादल फटना, अचानक बाढ़ आना आदि आपदाएं हर वर्ष आती हैं और सरकार केवल तब ही क्यों हरकत में आती है, जब लाखों लोग बेघर हो जाते हैं और करोड़ों रुपए की संपत्ति नष्ट हो जाती है? स्पष्ट शब्दों में कहें तो सब कुछ काम चलाऊ है। विडंबना देखिए। आपदा प्रभावित क्षेत्र में खाद्यान्न आपदा आने के कई दिनों के बाद पहुंचता है और इसके लिए जटिल नौकरशाही की प्रक्रिया जिम्मेदार है। हवाई जहाज से खाना पहुंचाया जाता है और इसमें से आधे से अधिक खाना पानी में गिर जाता है और जो लोगों के बीच पहुंचता है, उसको लेकर भगदड़ मच जाती है। प्रश्न उठता है कि सरकार बुनियादी सुझावों को लागू क्यों नहीं करती? वर्षा, बादल फटना, भूकंप, बाढ़ आदि के लिए दीर्घकालीन उपाय क्यों नहीं किए जाते? 

प्रशासन की विफलता के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए और किसे दंडित किया जाए? यह विभिन्न राज्य सरकारों और संघ राज्य क्षेत्रों के अधीन असंवेदनशील प्रशासन की उदासीनता का प्रमाण है कि वे पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों को भी नहीं छोड़ते और ये क्षेत्र उनके प्रलोभन का शिकार बन जाते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन की घटनाएं और बढ़ जाती हैं। शासक वर्ग विशेषज्ञों के सुझावों को नजरंदाज करते हैं और प्रशासन कोई सबक नहीं लेता। वर्ष 2022 में उत्तराखंड के जोशीमठ में भूमि में दरारें और बेंगलूर के टैक पार्कों में बाढ़ से कोई सबक नहीं लिए गए। इंटर गवर्नमैंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज में पाया गया है कि हिमालय सहित विश्व भर के पहाड़ों में अधिक वर्षा हो रही है, जहां पहले बर्फबारी होती थी। इसके अलावा पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में तेजी से परियोजनाएं चलाई जा रही हैं, जिससे ग्लेशियर क्षेत्रों के लिए खतरा पैदा हो रहा है। नि:संदेह आवश्यकताओं के आधार पर नीतियों का निर्माण करना और समस्याओं का समाधान ढूंढना होगा। संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी के लिए अधिक संसाधन और बदलाव की प्रक्रिया के बारे में अधिक सूचनाएं जुटानी होंगी जिसके चलते बेहतर उपाय किए जा सकें। 

हमारे नेताओं को विद्यमान विकास मॉडल पर पुनॢवचार करना होगा तथा निर्णय लेने और नीति निर्माण के संबंध में विशेषज्ञों के अनुभवों का उपयोग करना होगा। बढ़ती हुई जनसंख्या और स्थानीय पारिस्थितिकीय तंत्र पर इसके प्रभाव से उत्पन्न समस्याओं पर विशेष ध्यान देना होगा। मकानों के अनियोजित निर्माण, पर्यावरण, अस्वच्छता आदि पर ध्यान देना होगा। समय आ गया है कि हम अपनी प्रबंधन रणनीतियों का मूल्यांकन करें कि वे कितनी प्रभावी हैं। चेतावनी प्रणालियों की स्थापना की जानी चाहिए, जिनमें राडार आधारित प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाए और साथ ही पर्यावरण के संरक्षण का दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। 

स्थिति स्पष्ट है। पर्यावरण की कीमत पर विकास नहीं हो सकता। हमारे राजनेताओं को सजग रहना होगा और अल्पकालिक की बजाय दीर्घकालीन नियोजन पर ध्यान देना होगा और इसके लिए न तो आपको अत्यधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है और न ही उदासीन होने की। यदि हम आपदा के बारे में कोई ठोस कदम नहीं उठाते हैं तो निश्चित रूप से भविष्य में और आपदाएं और दुखदायी खबरें आएंगी। एक पुराने कॉमिक की कुछ पंक्तियां याद आती हैं कि हमने दुश्मन को देख लिया है और वह दुश्मन हम स्वयं हैं।-पूनम आई. कौशिश
 


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