‘रेनकोट’ वाली टिप्पणी की आलोचना से पहले कांग्रेस अपने गिरेबांन में झांके

Sunday, Feb 12, 2017 - 01:26 AM (IST)

नोटबंदी को ‘संगठित और कानूनीकृत लूटपाट’ करार देने की अपने पूर्ववर्ती की सरासर भड़काऊ टिप्पणी  पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कुछ चतुराई भरी प्रतिक्रिया के आधार पर संसद को अवरुद्ध करने का प्रयास सरासर पाखंडबाजी है। हम नहीं जानते कि सामान्यत: मृदुभाषी और कम बोलने वाले मनमोहन सिंह के दिमाग में उस समय क्या चल रहा था क्योंकि उन्हें कभी भी इस प्रकार की आक्रामक अतिकथनी भरी शैली में बोलते नहीं देखा गया। उनकी टिप्पणी तो विशेष रूप में अप्रिय थी। नोटबंदी के किसी घिनौने से घिनौने आलोचक ने भी इसे ‘संगठित और कानूनीकृत लूटपाट’ करार नहीं दिया था।

सचमुच ही मनमोहन सिंह के मुंह से आलोचना करवाने की कवायद बहुत घटिया ढंग से अंजाम दी गई थी। लेकिन इस तथ्य पर संदेह नहीं किया जा सकता कि बड़े नोटों को रद्द करने के पीछे की मंशा प्रशंसनीय थी और कालांतर में इसके लाभ भी सामने आएंगे। सच्चाई यह है कि असली दोषी तो वे लोग हैं जिन्होंने अपनी निगरानी में करंसी प्रवाह का आकार जी.डी.पी.के 6 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत कर दिया था। तथ्य यह है कि मोदी ने बहुत ही दिलेरी भरा कदम उठाते हुए अर्थव्यवस्था को दूषित कर रही फालतू करंसी पर कैंची चलाई है। आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में प्रवाहित करंसी का आकार जी.डी.पी.के केवल 4-5 प्रतिशत के बराबर होता है।

यदि जापान और अमरीका में करंसी का आकार इस आकंड़े से कुछ अधिक है तो यह सर्वथा कुछ अन्य कारणों के चलते है। अमरीका में ऐसा इसलिए है कि डॉलर अब एक ग्लोबल करंसी है और जापान में इसका कारण यह है कि वहां बूढ़े लोगों की संख्या बहुत अधिक है और वे हर समय काफी सारी करंसी अपने हाथ में रखते हैं ताकि आपात स्थिति में प्रयुक्त कर सकें।

वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था में इतनी अधिक नकदी प्रवाहित होने का सम्भवत: एक कारण यह था कि यू.पी.ए. के एक दशक के शासन दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की दोनों ‘हाथों से लूटपाट’ होती रही है। आजकल पी. चिदम्बरम बैंकों के बढ़ते एन.पी.ए. पर भौंहें तरेरते हैं तो उन्हें इस बात का एहसास होना चाहिए था। यदि बैंकों के बट्टे-खाते में वृद्धि हो रही है तो यह इसका कारण यह नहीं कि मोदी के मंत्री बैंकों को हर ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे को ऋण देने के लिए धमका रहे हैं, बल्कि पूर्ववर्ती शासन में ही ऐसा किया जाता था। आपको शायद याद होगा कि विभिन्न बैंकों के विरोध के बावजूद किस प्रकार विजय माल्या को यू.पी.ए. शासन दौरान करोड़ों रुपए ऋण दिलाया गया था। उन दिनों ऐसा काम करना आम बात थी। लेकिन मोदी ने सदाबहार कमाई की पुरानी परिपाटी को पूरी तरह बंद कर दिया।

यदि मोदी कहते हैं कि केवल मनमोहन सिंह ही ‘‘गुसलखाने में रेनकोट पहनकर स्नान करने की कला में पारंगत हैं और कोई अन्य ऐसा नहीं कर सकता’’ तो इसके विरोध में कांग्रेस पार्टी द्वारा मचाए जा रहे हो-हल्ले को शांत करने के दो ही सीधे और स्पाट रास्ते हैं। एक तो उन बातों को रेखांकित करना जो सम्भवत: इस टिप्पणी के दौरान प्रधानमंत्री के मन में थीं। यानी कि स्वतंत्र भारत की सबसे भ्रष्ट सरकारों में से एक का मुखिया होते हुए भी मनमोहन सिंह अभी तक बेदाग होने का गौरव हासिल किए हुए हैं।वास्तव में वह बहुत ही परिपक्व और अनुभवी अवसरवादी हैं। जिस नरसिम्हा राव की आंखों के ऐन सामने हर्षद मेहता और केतन पारेख के घोटाले अंजाम दिए गए, उसी प्रधानमंत्री ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया था।

फिर भी उल्लेखनीय है कि यह पद ग्रहण करने के दिन तक मनमोहन सिंह आर्थिक वृद्धि पर पाबंदियां और नियंत्रण लागू करने की वकालत कर रहे थे। आज तक वह यही मानते आ रहे हैं कि अपनी वित्तीय ईमानदारी के बूते ही वह हर प्रकार के झमेलों में से बेदाग निकल जाएंगे। मैं बेबाकी से कहना चाहूंगा कि मनमोहन सिंह ही इस देश में एकमात्र बेदाग राजनीतिज्ञ नहीं हैं। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी में भी गुलजारी लाल नंदा, लाल बहादुर शास्त्री तथा यू.एन. धेबर जैसे राजनीतिज्ञों पर कभी भी कोई उंगली नहीं उठा सकताथा।

जहां तक गैर-कांग्रेसी संगठनों का सवाल है उनमें तो लाल कृष्ण अडवानी, नीतीश कुमार, मुरली मनोहर जोशी सहित ईमानदार राजनीतिज्ञों की बहुत बड़ी पलटन मौजूद  है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें से किसी भी व्यक्ति ने अपने वरिष्ठ मंत्री पद को बचाने के लिए  निजी स्तर पर भ्रष्टाचार को देखकर आंखें नहीं मूंदी थीं। ऐसे में उस व्यक्ति को विशेष रूप में छूट क्यों दी जाए जोकि स्वयं वित्तीय रूप में ईमानदार होते हुए भी एक भ्रष्ट वित्त मंत्रालय और बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय का संचालन करने के लिए जिम्मेदार था? मोदी की ‘रेनकोट’ वाली टिप्पणी पर कांग्रेस की आलोचना का उत्तर देने का दूसरा रास्ता है उसे उसकी अपनी कारगुजारियों का शीशा दिखाना।

राजीव गांधी ने योजना आयोग में मनमोहन सिंह और उनके साथीसदस्यों  को सार्वजनिक रूप में ‘जोकरों का टोला’ करार दिया था। राजीव के होनहार बेटे राहुल तो प्रधानमंत्री कार्यालय का अपमान करने के मामले में इससे भी एक कदम आगे बढ़ गए थे जब उन्होंने मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार द्वारा जारी अध्यादेश को फाड़ कर फैंकते हुए इसे ‘बकवास’ करार दिया। तब चिदम्बरम ने राहुल के व्यवहार को शोभनीय और सम्मानजनक करार दिया था।

इस पूरी चर्चा का अभिप्राय  वास्तव में यह रेखांकित करना है कि सार्वजनिक जीवन में संवाद का सामान्य स्तर अब वह नहीं रह गया जो वाजपेयी, हिरेन मुखर्जी,मधु लिमये एवं भूपेश गुप्त जैसे दिग्गजों के जमाने में था। सत्तापक्ष और या विपक्ष, दोनों ही ओर ऐसे सांसदों की कमी है जो नीतियों, कार्यक्रमों या विचारधारा पर चर्चा करते हैं। अब तो एक-दूसरे पर कीचड़ फैंकने तथा अभद्र तरह की तू-तू, मैं-मैं करने का सिलसिला संसद और विधानसभा के अंदर-बाहर भी दिखाई देता है।

अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं के अभ्युदय से वातावरण और भी मलिन हुआ है। उनका व्यवहार तो ऐसा है जैसे नींद में भी हर किसी को गालियां ही देते हों। वह तो चुनाव आयोग को भी नहीं बख्शते। केवल प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा में वह हर किसी को अपनी ङ्क्षनदा भरी टिप्पणियों का निशाना बनाए जा रहे हैं।

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