कांग्रेस को ‘नया रूप’ देने का राहुल के पास अब सही मौका

Tuesday, Mar 20, 2018 - 03:42 AM (IST)

काफी आश्चर्यजनक होने के साथ-साथ यह तथ्य बहुत स्वागतयोग्य है कि रजनीकांत और कमल हासन जैसे प्रसिद्ध फिल्मी सितारे दक्षिण भारत में खुद की राजनीतिक पार्टियां बना रहे हैं। दक्षिण भारत में फिल्मी सितारों के प्रति हमेशा की तरह आज भी जुनून है। स्व. जयललिता कई वर्षों तक दक्षिण भारत की बेताज साम्राज्ञी बनी रहीं। तमिलनाडु में तो खासतौर पर लोग न केवल फिल्मी नायकों की पूजा करते हैं बल्कि उत्तर भारत के विपरीत उनके नाम पर मंदिर तक बनाते हैं। 

आज जब भाजपा देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी है और कांग्रेस तेजी से क्षीण होती जा रही है तो यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि ढेर सारी क्षेत्रीय पाॢटयां भाजपा से किस प्रकार टक्कर लेती हैं। जैसे-जैसे क्षेत्रीय पार्टियां सशक्त हो रही हैं उसी अनुपात में कांग्रेस यह सुनिश्चित कर रही है कि यह खुद को कमजोर कर ले। कांग्रेस के पास राहुल गांधी के रूप में अब एक नया नेता है जो पहले की तुलना में काफी अधिक मुखर और आत्मविश्वास से भरा हुआ है। ऐसा लगता है कि विदेश की कई यात्राएं करके और छात्रों से लेकर शिक्षाविदों, नेताओं से लेकर व्यवसायियों तक भिन्न-भिन्न लोगों के साथ आदान-प्रदान करके उनका आत्मविश्वास बढ़ गया है। उन्हें बहुत अनुभवी और आधुनिक विचारों वाले पारिवारिक मित्र सैम पित्रोदा का भी साथ मिल रहा है। राहुल के लिए अब कांग्रेस को नया रूप देने का बहुत उचित मौका है। 

कांग्रेस कार्यसमिति बुजुर्ग राजनेताओं से भरी पड़ी है लेकिन अब समय आ गया है कि इसमें बदलाव करके अधेड़ उम्र के अनुभवी और योग्य नेताओं को आगे लाया जाए। मुझे इस बात की बहुत खुशी होती यदि यूथ कांग्रेस और एन.एस.यू.आई. कोई ऐसा उल्लेखनीय काम कर रहे होते जिसके बूते वे सबकी नजरों का केंद्र बन सकते। लेकिन यूथ कांग्रेस ने तो कांग्रेस अध्यक्ष की बहुत किरकिरी करवाई है। एन.एस.यू.आई. यानी नैशनल स्टूडैंट्स यूनियन आफ इंडिया न तो कहीं दिखाई देती है और न ही इसका नाम सुनाई देता है। इंदिरा और राजीव के दौर में यूथ कांग्रेस बहुत बड़ी भूमिका अदा करती थी। आज तो यह अपने आप में ही एक बहुत बड़ी विफलता बन चुकी है। यूथ कांग्रेस और एन.एस.यू.आई. में अब युवा लोगों जैसी आक्रामकता दिखाई नहीं देती। गुलाम नबी आजाद और यहां तक कि आनंद शर्मा के नेतृत्व में यूथ कांग्रेस एक अलग तरह का संगठन था।

1977 में इंदिरा गांधी के पतन में संजय गांधी के नेतृत्व वाली यूथ कांग्रेस का जितना बड़ा हाथ था उतनी ही बड़ी भूमिका उनके पुन: सत्तासीन होने में भी थी। मेरा मानना है कि राजीव गांधी ने यूथ कांग्रेस के जिन अध्यक्षों का स्वयं चयन किया था वे इस संगठन के सबसे काबिल और सक्षम नेता बने थे। इनमें से कुछेक अब कांग्रेस को छोड़ चुके हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया या फिर उनके अमूल्य विचारों की अनदेखी हुई है। वे सभी जमीन से जुड़े नेता थे और अपने-अपने राज्यों के लोगों के लिए प्रतिबद्ध होने के साथ-साथ वे निश्चय ही योग्य व्यक्ति थे। उन्हें बहुत अर्थपूर्ण ढंग से संगठन के काम के लिए प्रयुक्त किया जा सकता था। लेकिन ऐसा तभी हो सकता था जब राज्य स्तरीय नेताओं पर विश्वास किया जाता। 

मैं निश्चय से कह सकती हूं कि यदि राज्यस्तरीय नेता आत्मविश्वास से भरे हुए हों और उन्हें अपने ढंग से काम करने की छूट दी जाए तो वे हथेली पर सरसों उगा कर दिखा सकते हैं। ऐसे नेताओं को अपने क्षेत्रों में खुद उम्मीदवारों का चयन करने दीजिए। कांग्रेस के कार्यकत्र्ता चाहते हैं कि केंद्रीय हाईकमान विभिन्न राज्यों की सरकारों का नेतृत्व करने के लिए नेताओं का चयन अधिक सावधानी से करे। राज्यों में ऐसे नेता चाहिएं जो जनसमूह से जुड़े हुए हों, जो जमीनी स्तर पर एन.एस.यू.आई. और यूथ कांग्रेस तथा प्रदेश कांग्रेस समितियों को एक साथ खड़ा कर सकें और तीनों को साथ लेकर चल सकें, जो विनम्र होने के साथ-साथ काबिल भी हों। 

आज कांग्रेस में आर.एस.एस. तथा किसी भी क्षेत्रीय पार्टी के कार्यकत्र्ताओं का मुकाबला करने की कोई औकात दिखाई नहीं देती। हर पार्टी ने कांग्रेस के वोट बैंक में ही सेंध लगाई है। इस स्थिति में प्रदेश स्तरीय कांग्रेस नेताओं को अधिक स्वतंत्रता दी जानी चाहिए और उनके काम-काज में ऊपर से हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। आखिर प्रादेशिक नेताओं का मुंह कब तक बंद रखा जा सकता है? केंद्रीय नेतृत्व द्वारा ऐसे महासचिवों की नियुक्ति किया जाना सही नहीं है जो प्रदेश स्तर के दिग्गज नेताओं की क्षमताओं से ही परिचित न हों। हाईकमान के हथठोंके कोई भी नतीजा नहीं दिखा सकते। जो वास्तव में जनता का नेता होगा वह हर दूसरे-तीसरे दिन केंद्रीय नेतृत्व की चरण वंदना करने के लिए दिल्ली के चक्कर नहीं काटेगा क्योंकि उसे अपने काम तथा उपलब्धियों पर भरोसा होगा। वह असम के पूर्व उप मुख्यमंत्री की तरह आत्मसम्मान से भरा हुआ होगा। 

सच्चाई यह है कि हाईकमान की शक्ति का स्रोत भी वास्तव में मजबूत प्रादेशिक नेता तथा संगठन के महासचिव ही होते हैं। इसलिए प्रादेशिक नेताओं की बात अक्सर सुनी जानी चाहिए। देश भर में कुकरमुत्तों की तरह उभर रही नई क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस का वोट बैंक खा जाएंगी। कांग्रेस के लिए बेहतर होगा कि वह अपने अहंकार तथा अंतर्कलह को ताक पर रखकर सभी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ समीपता बढ़ाए और अपनी नंबर एक दुश्मन यानी भाजपा के विरुद्ध केवल एक सूत्रीय एजैंडा लेकर यू.पी.ए.-3 का गठन करे। वैसे तो सभी क्षेत्रीय पाॢटयों का एजैंडा भी यही है और उनका लक्ष्य भाजपा को पटखनी देना ही है। लेकिन जब तक कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के साथ एकजुटता नहीं दिखाती, यह कभी भी अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएगी। 

अब राहुल गांधी के पास नए-नए प्रयोग करने का समय नहीं बचा है। पहले ही बहुत देर हो चुकी है। अब उन्हें केवल अनुभवी नेताओं के कदम से कदम मिलाकर चलना होगा। उन्हें राज्यों से ऐसे नेता चुन-चुन कर अपने साथ चलाने होंगे जिन्हें संगठन का कई दशकों का अनुभव हो। कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती ही यह है कि इसने ऐसे लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया है जो दूसरी पार्टियों से आए हैं। पुराने कांग्रेसी भी इस ढर्रे को पसंद नहीं करते। नतीजा यह होता है कि काफी हल्ले-गुल्ले के बावजूद कोई उपलब्धि नहीं होती बल्कि चारों तरफ हताशा ही हताशा दिखाई देती है। अब कांग्रेस का वोट बैंक आकार में इतना सिकुड़ गया है कि यह कोई प्रभावशाली भूमिका अदा नहीं कर सकती। ऐसे में इसे यू.पी. में तो मायावती और अखिलेश जैसों के साथ मिलना ही होगा। फिर देखना तीनों की उपलब्धि कितनी उल्लेखनीय होगी।-देवी चेरियन 

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