चुनाव आयोग की कठपुतली वाली छवि लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं

punjabkesari.in Sunday, Aug 20, 2023 - 04:19 AM (IST)

चुनाव प्रक्रिया अगर लोकतंत्र की प्राण वायु है तो उसे किसी भी तरह के प्रदूषण से मुक्त बनाए रखना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी-जवाबदेही है। भारत के चुनाव आयोग की विश्व भर में प्रतिष्ठा है, पर देश में उसकी साख पर सवालिया निशान लगते रहे हैं। 

ताजा प्रकरण चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से जुड़ा है। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संसद के मानसून सत्र में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी विधेयक राज्यसभा में पेश किए जाने से फिर इस बहस को बल मिला है कि सरकार चुनाव आयोग को वास्तविक रूप से स्वायत्त और निष्पक्ष नहीं रहने देना चाहती। 10 अगस्त को राज्यसभा में पेश मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, शर्तें और पद अवधि) विधेयक, 2023 में यह प्रावधान किया गया है कि कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली सर्च कमेटी 5 नाम सुझाएगी और 3 सदस्यीय समिति अंतिम फैसला करेगी, जिसमें प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के अलावा स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा नामांकित एक कैबिनेट मंत्री होंगे। यह समिति  सुझाए गए नामों के अलावा भी किसी का चयन कर सकती है। यह प्रावधान इस बाबत सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई अंतरिम व्यवस्था के विपरीत है। 

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष बनाने के लिए दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्य व्यक्त किया था कि 7 दशक में भी इस बाबत अपेक्षित कानून नहीं बनाया गया और बिना पारदर्शी-निष्पक्ष प्रक्रिया के नियुक्तियों से यह धारणा बन रही है कि केंद्र सरकार अपने पसंदीदा नौकरशाह को ही चुनाव आयुक्त बनाती है। सर्वोच्च अदालत ने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन को उनकी सख्ती और निष्पक्षता के लिए याद किया तथा आनन-फानन में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले राजीव कुमार की चंद घंटे में ही मुख्य चुनाव आयुक्त पद पर नियुक्ति पर भी सवाल उठाए। 

क्लब कर सुनी जा रही इन जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह टिप्पणी भी की कि भले ही चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं, पर वह प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की सलाह से बंधे हुए हैं, इसलिए मूलत: यह सरकार का ही फैसला होता है। सरकार को इस बाबत संसद से कानून बनाने का निर्देश देते हुए इसी साल 2 मार्च को व्यवस्था दी गई कि जब तक कानून नहीं बनता, तब तक चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की 3 सदस्यीय समिति करेगी। सरकार का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्त की नियुक्ति संबंधी कानून बनाने को कहा था, उसी के लिए यह विधेयक पेश किया गया है, लेकिन विपक्ष इसमें किए गए प्रावधान को पारदर्शिता-निष्पक्षता विहीन, और इसीलिए लोकतंत्र के लिए अहितकर बताते हुए विरोध कर रहा है। 

दरअसल पेश किए गए विधेयक के मुताबिक चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करने वाली समिति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के बजाय प्रधानमंत्री द्वारा नामांकित एक कैबिनेट मंत्री को रखा गया है। विपक्ष का तर्क है कि इस तरह 3 सदस्यीय समिति में 2 सदस्य सत्तापक्ष के हो जाएंगे और सरकार के मनोनुकूल ही नियुक्तियां होती रहेंगी। जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान भी जब पिछले साल चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम व्यवस्था की बात आई तो केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने उसका विरोध करते हुए कहा था कि यह धारणा कि न्यायपालिका की उपस्थिति से ही स्वतंत्रता और निष्पक्षता हासिल की जा सकेगी-संविधान की गलत व्याख्या है। स्पष्ट है कि सरकार शुरू से ही चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में न्यायपालिका की भूमिका नहीं चाहती थी, लेकिन यह जानना जरूरी है कि कॉलेजियम का सुझाव महज सुप्रीम कोर्ट का ही आइडिया नहीं है। 

1990 में तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अध्यक्षता में चुनाव सुधारों पर गठित समिति ने चुनाव आयोग को अधिक शक्तियां देने के उद्देश्य से जो सिफारिशें की थीं, उनमें चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम बनाना भी शामिल था। कॉलेजियम व्यवस्था का सुझाव 2015 में विधि आयोग ने भी दिया था, हालांकि उसने नियुक्ति समिति में प्रधानमंत्री को रखे जाने की सिफारिश की थी। खुद भाजपा कभी कॉलेजियम के पक्ष में थी। ध्यान रहे कि संसद के कानून द्वारा 25 जनवरी,1950 को संवैधानिक संस्था के रूप में चुनाव आयोग का गठन किया गया, लेकिन सात दशक लंबे इतिहास में सर्वोच्च न्यायालय को भी एक यादगार मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में टी.एन. शेषन को ही याद करना पड़ा, जबकि वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार उस क्रम में 25वें स्थान पर हैं। यह चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली के साथ-साथ उसे नियुक्त करने वालों पर भी स्पष्ट टिप्पणी है। 

यह भी याद रखना चाहिए कि जिन शेषन को देश सम्मान के साथ याद करता है, उनके पर कतरने के लिए ही चुनाव आयोग को एक सदस्यीय से तीन सदस्यीय बनाया गया था। यह भी कि तब केंद्र में भाजपा की सरकार नहीं थी। जाहिर है, स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से चुनाव आयोग किसी भी सरकार यानि कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल को रास नहीं आता। इसीलिए चहेते नौकरशाहों को चुना जाता है, जो वक्त-जरूरत उनके प्रति उदारता और विरोधियों के प्रति कठोरता दिखा सकें। मनमोहन सिंह सरकार द्वारा नवीन चावला को चुनाव आयुक्त बनाए जाने पर उनकी कांग्रेस से निकटता को ले कर क्या-क्या नहीं कहा गया था? मुख्य चुनाव आयुक्त रहे मनोहर सिंह गिल को तो बाद में कांग्रेस ने राज्यसभा सदस्य ही नहीं, केंद्र में मंत्री भी बना दिया था। कड़वा सच यही है कि निष्पक्ष चयन एक छलावा है, पर इसका अर्थ यह भी नहीं कि चुनाव आयोग की सरकार की कठपुतली वाली छवि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए शुभ है।-डा. राज कुमार सिंह   
    


सबसे ज्यादा पढ़े गए